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Tuesday, December 23, 2008

मां की आखिरी शाम

मेरे लिए 1 दिसंबर 1994 की रात बेहद काली थी। इसी रात तकरीबन 10 बजे पराग भइया ने दिल्ली से फोन कर बताया कि मां की तबीयत बेहद खराब है, हमलोग कल उसे लेकर रांची आ रहे हैं। मैंने पूछा - प्लेन से या ट्रेन से। भइया का जवाब था - प्लेन से। उसके इस जवाब से मैं समझ गया कि 1 दिसंबर की शाम मां की जिंदगी की आखिरी शाम हो गई। बहरहाल, मैं उन यातनादायी दौर से फिर गुजरने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा, इसलिए इस चर्चा को यहीं पर रोक कर एक दूसरी बात कहूं।

मां की मौत के बाद उनकी एक कविता ने हमसबों का ध्यान अपनी ओर खींचा। यह कविता मां की कविताओं के दूसरे संकलन 'चांदनी आग है' में शामिल है। 'एक संदेश' नाम की इस छोटी-सी कविता में मां ने दिसंबरी शाम से आखिरी बार मिलने की बात कही है। वाकई, इस संयोग ने मुझे हैरत में डाल दिया।

आप भी पढ़ें मां की यह कविता :


एक संदेश

ओ दिसंबरी शाम।
आज तुमसे मिल लूं
विदा बेला में
अंतिम बार।
सच है,
बीता हुआ कोई क्षण
नहीं लौटता।
नहीं बांध सकती मैं
तुम्हारे पांव।
कोई नहीं रह सकता एक ठांव।

Monday, December 1, 2008

सलाम और लानत के मायने एक हो गये हैं क्या?

टीएस प्रमुख हेमंत करकरे, एसीपी अशोक काम्टे और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर वाकई शहीद हुए या अपनी लापरवाही की वजह से मारे गए? यह सवाल उठाते हुए यह ध्यान है कि इस वक्त यह सवाल बहाव के विपरीत तैरने की जोखिम उठाने जैसा है। पर वाकई यह सवाल जेहन में उठता है कॉन्स्टेबल अरुण जाधव के बयानों को पढ़ने के बाद। यह वही अरुण जाधव है जो जान बचाने के लिए लाश बना आतंकवादियों की उस गाड़ी में पड़ा रहा, जिसे पुलिसवालों को मार कर लूटा गया था।

जब किसी इलाके में आतंकवादी घूम रहे हों और यह जानने के बाद भी
विवेक आसरी की प्रतिक्रिया वाकई गौर करने लायक है, जो उन्होंने इस रूप में मुझ तक पहुंचाई हैं।
बातों के बाजारों में हम

कुछ बातें तो सीधी-सादी
कुछ बातें सरकारी हैं
बातों के बाजारों में
हम बातों व्यापारी हैं
मैं भी कहता तुम भी कहते
हर बात उछलती मंडी में
कुछ बातें तो जलती जाती
कुछ फुंक जाती हैं
ठंडी में कुछ बातें
सौगातें बनकर
स्याही में ढल में जाती हैं
कुछ बातें आंखों में चुभतीं
सवालात फरमाती हैं
कुछ बातें दिल को छू लेतीं
करामात कर जाती हैं
सौ बातों की एक बात
बाकी सब मारामारी है
बातों के बाजारों में हम
बातों के व्यापारी हैं
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहलाने वाले सालस्कर की अंगुलियां पुलिस कैब की स्टियरिंग संभालने में जुटी हों, तो वे अंगुलियां हथियार कब चलाएंगी। जाहिर है ऐसे में सामने से चली दुश्मन की गोली जाया नहीं जाएगी। दुश्मन को वार करने का पूरा मौका मिलेगा। और आप अपनी रक्षा भी नहीं कर पाएंगे। यही हुआ इन सिपाहियों के साथ भी।

यह मुमकिन है कि इन्हें मामले की गंभीरता का अहसास न रहा हो। और शायद इसीलिए भी सालस्कर ड्राइविंग सीट पर बैठ गए कि साथ में काम्टे और करकरे तो हैं ही। बहरहाल, यह शहीद कहे जाने लायक मामला नहीं लगता। महज आतंकवादी कार्रवाई की चपेट में आकर मारे जाने का मामला है। अगर ये सभी पुलिसकर्मी शहीद कहे जाने लायक हैं, तब वीटी स्टेशन, ताज, ओबरॉय और नरीमन हाउस में मारे गये लोग शहीद क्यों न कहे जायें? और अगर ये सभी शहीद कहे गये तो एनएसजी के हवलदार गजेंद्र सिंह और मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की शहादत को आप क्या कहेंगे? इनके लिए कोई और शब्द तलाशना पड़ेगा।

और अब बात उस सिपाही की, जिसने नौकरी तो की सिपाही की, पर सिपाही की भूमिका नहीं निभाई। लाश बन कर पड़ा रहा लूटी गई गाड़ी में। अरुण जाधव भले जान बच जाने की खुशी मना लें, पर क्या कभी वह खुद से आंख भी मिला पाएंगे? अरुण जाधव के दाहिने हाथ में दो गोलियां लगी थीं। उन्हीं के मुताबिक, उनका वह हाथ उठ नहीं रहा था। बेशक, ऐसा हुआ होगा। उन की ख्वाहिश थी कि काश उनका हाथ उनकी बंदूक तक पहुंच जाता।

ख्वाहिश का उनका यह बयान उनकी चुगली करता है। आम आदमी और पुलिस का जो सबसे बड़ा अंतर है वह है उसकी ट्रेनिंग का। पुलिस को मिलने वाली ट्रेनिंग ही उसे आम से खास बना देती है। पर लाश बनकर आतंकवादियों द्वारा लूटी गई गाड़ी में पड़े रहना पुलिस की निशानी नहीं हो सकती। कायरता या बदहवासी का यह आलम तो आम आदमी के हिस्से में होता है, पुलिस के नहीं।

जाधव ने मीडिया को बताया है कि जब गाड़ी का टायर बर्स्ट हो गया और आतंकवादी उस गाड़ी को छोड़ कर चले गए तो उन्होंने अगली सीट पर किसी तरह चढ़कर पुलिस रेडियो से बैकअप के लिए कॉल की। गौर करें कि जो शरीर बंदूक उठाने की इजाजत नहीं दे रहा था, वही मदद की गुहार लगाने के काम आ गया। दरअसल, उस वक्त का खौफ कुछ ऐसा रहा होगा कि उन्होंने बंदूक उठाने की जोखिम नहीं उठाई। आम आदमी की तरह जान है तो जहान है का फॉर्म्यूला अपनाया। लाश बन कर घूमते रहे। ऐसे सिपाही को सलाम और महिमामंडित कर रहे लोगों को मेरा सलाम (लानत)।

Tuesday, October 28, 2008

अंधेरा जब बढ़ता है


ओ साथी,
अपने भीतर जब अंधेरा बढ़ता है
वह अहं, राग और द्वेष का
किला गढ़ता है।
सच मानें
यही तो जड़ता है।
फिर भीतर ही भीतर
सारा कुछ सड़ता है
और आदमी
धीरे-धीरे मरता है।

हां साथी, इससे पहले
कि संवेदनाओं से लबरेज हमारा चेहरा
किसी भीड़ में गुम हो जाये,
और व्यवस्था को बदलने के लिए निकला जुलूस
किसी शवयात्रा में तब्दील हो
अपने भीतर
आस्था का दीया जलाएं।
इसकी टिमटिमाती लौ
खत्म कर देती है सारी आशंकाएं
हां साथी,
स्वीकार करें दीपावली पर
हमारी शुभाशंसाएं ।

Saturday, September 27, 2008

ईश्वर, जो हमें डराता है

मो

हल्ले पर आकांक्षा की कविता पढ़ी। उस तथाकथित ईश्वर के बारे में जिसे आज अगर याद किया जाता है तो शहर दंगाग्रस्त हो जाता है। जिसकी सारी सत्ता धर्म के ठीकेदारों ने बुनी है। ये ठीकेदार हर कौम में मौजूद हैं। और इसी सर्वशक्तिमान के बल पर इनकी दुकानदारी चल रही है। खैर, दुकानदारी का चलना और धर्मों की यह विकृति - ये तो अलग से बहस का मुद्दा हैं।

बहरहाल, सोचना चाहता हूं कि इस ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का राज कहां छुपा है। लगता है जैसे यह आस्था बरसों पहले से हमारी रगो में दौड़ रही है। तब से, जब हमारे पूर्वज जंगलों में रहा करते थे। (हालांकि रहते तो हम आज भी जंगल में ही हैं)। तो जब वह जंगल में रहते होंगे, जाहिर तौर पर उनका जीवन उसी जंगल पर निर्भर था। वह जंगल जिससे उन्हें भोजन मिलता था, जिसके आश्रय में वह रहते थे। श्रद्धा से भर उठा होगा उनका मन उसकी शक्ति देखकर। वह उसकी इज्जत करने लगे होंगे। उन्हें लगने लगा होगा इन पेड़-पौधों, झरने-पहाड़ों से बेहतर और श्रेष्ठ दूसरा कुछ तो हो ही नहीं सकता। वह नतमस्तक हुए होंगे। जीवन सुख-शांति से गुजर रहा होगा। तभी जंगल में आग लगी। (यह आग वैसे नहीं लगी होगी जैसे आज अचानक पैसेंजर ट्रेन में लग जाती है या कोई कस्बा और शहर अचानक जलने लग जाता है)। बहरहाल जंगल में आग लगी और हमारे पूर्वजों ने देखा जंगल को धू-धू कर जलते हुए। वह जंगल जो उन्हें जिंदगी देता था अभी अपनी जिंदगी बचा पाने में नाकाम था। आग जलाए जा रही थी जंगल को। सिहर गए होंगे हमारे पूर्वज। डरे होंगे। डरकर नतमस्तक हुए होंगे। डरे-डरे भागते फिरे होंगे। तभी मौसम बदला। बरसात शुरू हुई। आग को उन्होंने मरते देखा। लगा, इस आग पर तो काबू पा लेती है बारिश। यह बारिश तो आग से भी ज्यादा शक्तिशाली है। पूजा होगा उन्होंने उस बारिश को। इस तरह कई-कई और परिघटनाएं हुईं होंगी और हमारे पूर्वज कई-कई बार नतमस्तक हुए होंगे ऐसे सर्वशक्तिमानों के प्रति।

तो इस तरह हमारे भीतर डर से पैदा हुई होगी श्रद्धा और हम सबकी सत्ता स्वीकार करते गए। फिर क्या था हममें से कुछ शातिर लोग हमारे इस डर का लाभ उठाने लगे। हमारे भीतर डर पैदा करते गए, हम डरकर उस नए पैदा हुए डर को स्वीकार करते गए। ईश्वर या वह अदृश्य शक्ति, जिसका राज हमें नहीं मालूम था, हम पर राज करने लगे। धर्म के ठीकेदारों के पौबारह हुए :-( और हम ब्लॉग लिखने बैठ गए। :-)

Tuesday, September 23, 2008

यह कैसा शख्स है मेरे यारो

खिले-खिले, पर घुटे-घुटे
तने-तने, पर झुके-झुके
मिले हुए, पर कटे-कटे
ये कैसे लोग हैं मेरे यारो

साफ-साफ, पर धुआं-धुआं
भेड़चाल और हुआं-हुआं
हंसी-हंसी में जलाभुना
यह कैसा वक्त है मेरे यारो

बहुत-बहुत, पर जरा-जरा
डरा-डरा, पर हरा-भरा
जगा-जगा, पर मरा-मरा
यह कैसा रूप है मेरे यारो

प्यार-प्यार में मारो-काटो
रौद्र रूप भी और तलवे चाटो
तारीफ के बजाए डांटो-डांटो
यह कैसा शख्स है मेरे यारो

चापलूसी में है सना-सना
जगह-जगह है, घना-घना
तू कर इसे अब मना-मना
यही है वक्त का तकाजा यारो

Monday, September 22, 2008

जिंदगी मांगती रही है हिसाब

उम्र के
इसी पड़ाव पर
जिंदगी पूछने लगी मुझसे,
सच-सच बता
मुझे आखिर तूने कितना जिया

जिंदगी जब
मांगने लगे,
हर किये-धरे का
ऐसे हिसाब
मै जानता हूं
सुख गुम होता है
दुख तो खैर बेहिसाब

अब
तू तो ये न पूछ मुझसे
कि दिल्ली आकर क्या किया
सचमुच यारो,
जीने की आदत छूट गई,
मरने का सलीका सीख लिया।

Sunday, September 21, 2008

पोस्ट के नेचर के मुताबिक लगाएं तस्वीर

किसी पोस्ट के साथ उस नेचर की तस्वीर हो, तो पोस्ट निखर आता है। यह तो सच है कि इनसान का पहला परिचय तस्वीर से होता है, न कि टेक्स्ट से। इसलिए भी तस्वीर को फीलर की तरह इस्तेमाल करने की बजाय उसे पोस्ट के जरूरी हिस्से की तरह इस्तेमाल करना चाहिए। कई साथियों ने मेल कर कहा था पोस्ट के बीच में तस्वीर लगाने का तरीका बताने को। तो ऐसे साथियों की फरमाइश पर ही पेश है आज का ब्लॉग बाइट। इस अंक को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

Monday, September 15, 2008

हादसों में हमारा भी हाथ

"यह बात एक बार फिर साबित हुई कि 13 की संख्या कितनी अशुभ होती है। और उसपर दिन अगर शनिवार हो तो कहने ही क्या। करैला ऊपर से नीम चढ़ा। याद करें, वह 13 सितंबर, दिन शनिवार की ही शाम थी, जब दिल्ली में सीरियल धमाके हुए। 20 लोग मौत के हवाले हुए और तकरीबन 150 लोग भयंकर जख्मी।"

स तरह की कोई भी स्क्रिप्ट हमारे बीच राहत लेकर नहीं आती। बल्कि सच तो यह है कि ऐसा या इस जैसा कोई भी एक्स्प्रेशन वह काम करता है जो धमाके के जरिये आतंकवादी करना चाहते थे और नहीं कर सके। यानी, ऐसी स्क्रिप्ट से हम आतंकवादियों के अधूरे मिशन को उसकी मंजिल तक पहुंचाते हैं।

ऐसे मौकों पर एक्सक्लूसिव के नाम पर जो सनसनी पैदा की जाती है, सबसे तेज की दौड़ में जो हड़बड़ी दिखाई जाती है, वह लोगों का इत्मीनान छीन लेती है। ऐसी सनसनी की जगह सजगता पैदा करने की कोशिश हो, तो वाकई कोई बात बने।


हम जिस छोटी-सी पट्टी पर हेल्पलाइन नंबर चलाते हैं, सचमुच उसका दायरा बढ़ना चाहिए। और जितने बड़े दायरे में हंगामे को समेटते हैं उसे समेट कर पट्टी में लाने की जरूरत है। ऐसा नहीं कि घटनास्थल पर हमारे कैमरे न जाएं। हमारे रिपोर्टर वहां से रिपोर्टिंग न करें। बिल्कुल करें। घटनास्थल से रिपोर्टिंग कर वहां के बारे में बताना, बेशक बेहद जरूरी है। पर मीडिया को भाषा की उस शक्ति की भी समझ होनी चाहिए, जो किसी थके-हारे को शक्ति भी देती है।

फर्ज करें, आपके पड़ोसी के घर में किसी की असामयिक मौत हो गई। आप उसके घर जाते हैं तो इसलिए कि आपके भीतर उससे अपनत्व का कोई रिश्ता है। उसे आप सांत्वना देते हैं। सच बोलने के नाम पर यह नहीं कहते कि क्या यार, जिसे मरना था मर गया, अब कितनी देर तक टेसुए बहाएगा।

मतलब यह कि हम अपने समाज से अपनत्व का वह रिश्ता भूलते जा रहे हैं। भाषा की वह समझ खोते जा रहे हैं, जिससे कोहराम के समय भी राहत दी जा सकती है। अपने उस दायित्व को भी नजरअंदाज कर रहे हैं, जिसे निभाने से खौफ की उम्र बेहद छोटी हो जाती।

आइए, लिंक करें हर बात को

साथियो,
आपके कई पत्र हमें मिले थे, जिनमें कहा गया था कि पोस्ट के बीच लिंक लगाने का तरीका बतायें। पिछले अंक में हमने वह तरीका आपको बताया था, पर साथ ही यह भी चर्चा की थी कि यह तरीका भले आसान है पर है दोषपूर्ण। लिंक लगाने के उस तरीके में दोष यह है कि लिंक की गई साइट किसी नये विंडो में न खुलकर मौजूद विंडो को ही कन्वर्ट कर देती है। इस बार ब्लॉग बाइट में एचटीएमएल की वह कोडिंग दी है, जिसके सहारे दिया गया लिंक नये विंडो में खुलेगा। नवभारत टाइम्स में छपी इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें

Sunday, September 7, 2008

अपनी पोस्ट के बीच ऐसे लगाएं लिंक

ब्लॉग बाइट की ताजा किस्त के साथ हाजिर हूं मेरे दोस्तो। वादे के मुताबिक इस बार चर्चा की गई है अपनी पोस्ट के बीच किसी संदर्भ के लिंक लगाने के तरीके की। तो देखें यह काम है कितना आसान।
नवभारत टाइम्स में छपी इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें

Friday, September 5, 2008

क्या है श्लील और क्या है अश्लील

श्लील और अश्लील पर बहस कोई नई बात नहीं है। जरूरी नहीं कि जो चीज एक की निगाह में अश्लील हो, उसे दूसरा भी उसी रूप में देखे। अमूमन, नंगेपन को हम बड़ी आसानी से अश्लील कह जाते हैं। पर देखने की जरूरत यह है कि किसी का नंगापन उसकी कोई मजबूरी तो नहीं। इसके बाद ही हमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। कोई स्त्री या पुरुष अपने कमरे में नंगा लेटी है/लेटा है - हमें इसे अश्लील कहना चाहिए या उस निगाह को जिसने उसके कमरे में झांकने की कोशिश की?
- क्या चापलूसी करना अश्लील नहीं है?
- किसी गलत को सही कह उसे प्रोत्साहित करना अश्लील नहीं है?
- हम ग़ज़ल लिखें और शीर्षक दें गज़ल (गजल लिखें तब तो चलेगा), तो क्या यह अश्लील नहीं है?
.......
कहने का मतलब यह कि अगर हम छांट-छांट कर निकालें तो हमारे कदम-कदम पर अश्लीलता बिछी मिलेगी। और अगर ऐसा है और हम उसे आसानी से नजरअंदाज कर बर्दाश्त किये चले जाते हैं तो क्या यह अश्लील नहीं है?
साथियो, क्या सोचते हैं आप। क्या है श्लील और क्या है अश्लील? कृपया हमें बतायें।

Monday, September 1, 2008

झट से करें फॉन्ट का धर्मांतरण

क्रुति देव सरीखे फॉन्ट को यूनिकोड में कैसे बदलें - इस बार के ब्लॉग बाइट में इसी पर चर्चा है। वैसे, यूनिकोड फॉन्ट को भी दूसरे किसी फॉन्ट में कन्वर्ट किया जा सकता है - इसकी भी जानकारी जुटाई गई है इस बार। अगले अंक में पोस्ट के बीच लिंक लगाने की चर्चा करूंगा। इसके लिए एचटीएमएल कोड भी उपलब्ध कराया जायेगा, ताकि लिंक की गई साइट या ब्लॉग नये विंडो में खुले। नवभारत टाइम्स में छपी इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें

Sunday, August 24, 2008

यूनिकोडेड फॉन्ट को सपोर्ट करते कुछ और कीबोर्ड

ब्लॉग बाइट की एक और किस्त के साथ मैं आपके लिए हाजिर हूं। इस बार के अंक में चर्चा की गई है हिंदी में कंपोजिंग के कुछ और कीबोर्ड की। विंडोजएक्सपी के साथ जो यूनिकोड फॉन्ट हमें मिलने लगा है उसके इस्तेमाल के लिए इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड का ऑप्शन तो होता ही है। पर हमारे कई साथी ऐसे भी हैं जो इन्स्क्रिप्ट कंपोजिंग नहीं जानते हैं। वे रेमिंग्टन या फिर किसी और कीबोर्ड का इस्तेमाल करना जानते हैं। इस किस्त में ऐसे साथियों के लिए उनकी सुविधा के कुछ कीबोर्ड के लिंक दिये गये हैं। अभी तक की योजना है कि अगली किस्त में फॉन्ट कन्वर्टर की चर्चा हो। नवभारत टाइम्स में छपी इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें

Sunday, August 17, 2008

अपने ब्लॉग पर देखें दूसरों के ब्लॉग की लास्ट पोस्ट

कुछ ब्लॉगरों ने अपने ब्लॉग पर दूसरों के ब्लॉग की जो लिंक लगाई है, उसमें उस ब्लॉग की लास्ट पोस्ट दिखती है, साथ ही कितनी देर पहले पोस्ट की गई यह भी। यानी, यह जो सुविधा है वह आपको अप्रत्यक्ष तौर पर ब्लॉग एग्रिगेटर भी बना रही है। और सबसे रोचक बात यह कि ब्लॉग स्पॉट ने लिंक लगाने के इस तरीके के बेहद आसान बना दिया है। पहले जब आप लिंक लगाते थे तो लिंक नये विंडो में खुले इसके लिए HTML कोडिंग करनी पड़ती थी। इस बार ब्लॉगरों को इस झंझट से मुक्ति मिल गई है। लिंक लगाने की इस पूरी प्रक्रिया को ब्लॉग बाइट की इस नई किस्त में देखें। नवभारत टाइम्स में छपी इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें

और हां, पिछली बार जिस इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड लेआउट की चर्चा मैंने की थी, उस की बोर्ड लेआउट का फोटो आप यहां से डाउनलोड कर सकते हैं।

Wednesday, August 13, 2008

बहुत दिनों बाद

किसी कविता को सुनाने या पढ़ाने से पहले उसके बारे में अगर कवि को अपनी ओर से कुछ कहने की जरूरत पड़े तो यह उस कविता का कमजोर पक्ष हो सकता है। जाहिर है इस कविता के बारे में मैं अपनी ओर से कुछ कहना नहीं चाहता। पर यह भरोसा है कि पाठकों की ओर से भी इस पर कई नई बातें आ सकती हैं। कुछ ऐसी बातें जिन पर संभवतः मेरी निगाह भी नहीं गई है। फिलहाल पेश है कविता 'बहुत दिनों बाद' :



Sunday, August 10, 2008

ब्लॉग बाइट : गोद में हिंदी, शहर में ढिंढोरा

मेरे साथियो,
हिंदी के यूनिकोडेड फॉन्ट की चर्चा मैंने इससे पहले के किसी ब्लॉग बाइट में की थी। इस बार कई साथियों के मेल मुझे मिले। उन्होंने जानना चाहा था कि ट्रांस्लिटरेशन टूल के बिना हिंदी में कंपोजिंग कैसे हो सकती है। इस अंक में मैंने विंडोज एक्सपी की इसी खासियत की चर्चा की है। बताया है कि एक्सपी में हिंदी के यूनिकोडेड फॉन्ट की सुविधा दी गई है। उसे एक्टिव कैसे किया जाये, यह जानना चाहें तो ब्लॉग बाइट की नई कड़ी पढ़ें। नवभारत टाइम्स में छपी इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें। अगर आप इनस्क्रिप्ट के की-बोर्ड के बारे में जानना चाहते हैं तो मुझे लिखें। मैं इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड का लेआउट मेल कर दूंगा।

Wednesday, August 6, 2008

जब निगाहें बुलाएं...

मेरे छुटपन के एक साथी ने अपने अब तक के जीवन में महज एक शेर लिखा है। पर यह शेर मेरे भीतर अब भी शोर मचाता है।

आंखों में रहकर चले जाने वाले
निकले हैं आंसू तुझे ढूंढ़ने को।

उन आंसुओं की आवाज आप भी सुनें। उनसे बनती धार आप भी महसूसें।


प्रियदर्शन की कविता 'गुस्सा और चुप्पी'

पता नहीं क्यों प्रियदर्शन की यह कविता मुझे बेहद लुभाती है। जब भी अकेला महसूस करता हूं यह कविता मुझे बल देती है। नतीजा है कि इसे पढ़कर आपको सुनाने के लोभ का संवरण नहीं कर पाया। प्रियदर्शन वाकई लाजवाब लिखता है। उसकी व्यस्तता मैंने बेहद करीब से देखी है, पर समझ नहीं पाया कि इतना सोचने का वक्त उसे कब मिलता है। मैं यह भी पूरे दावे के साथ नहीं कह सकता कि वह लिखने के पहले काफी सोचता-विचारता है। और यह भी नहीं कि वह बगैर सोचे लिख डालता है। जाहिर है उसकी रचना प्रक्रिया मेरे लिए रहस्य जैसी है। कुतुहल पैदा करने जैसी है। विस्मय में डाल देने जैसी है। बहरहाल, उसकी कविता सुनें।





पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक करें

Tuesday, August 5, 2008

अपने मीत की नकल

मीत भाई की नकल कर खुशी हुई। मैंने दूसरों का इस तरह का ब्लॉग नहीं देखा है। मीत की नकल कर ही कोशिश की एक पोस्ट करने की। अविनाश से रास्ता पूछा। उसने तरीका बताया। और एक नई पोस्ट इस तरह। इन दोनों का आभार।


Sunday, August 3, 2008

ब्लॉग बाइट की पांचवीं किस्त

साथियो,
पिछली बार आपने जैसा तगड़ा रिस्पॉन्स दिया। उसके लिए आप सबों का बेहद शुक्रगुज़ार हूं मैं। 'ब्लॉग बाइट' की पांचवीं किस्त छप गई है। इसमें बताया गया है कि हम पोस्टिंग पेज पर ट्रांस्लिटरेशन टूल कैसे एक्टिव कर सकते हैं। और हिंदी कंपोजिंग न पता हो तो भी हम अपनी पोस्ट हिंदी में कैसे लिख सकते हैं। ब्लॉग बाइट की इस ताज़ा किस्त के लिए यहां क्लिक करें

Tuesday, July 29, 2008

नवभारत टाइम्स का 'ब्लॉग बाइट'

साथियो,
नवभारत टाइम्स में हर रविवार को 'ब्लॉग बाइट' नाम से एक कॉलम छप रहा है। अब तक इस कॉलम के चार अंक आ चुके हैं। लिखने की जिम्मेवारी मुझे सौंपी गई है। कोशिश है कि अभी इसके कुछ अंकों में तकनीकी चर्चा जारी रखूं। शुरुआती चर्चा बिल्कुल बेसिक लेवल की होगी, धीरे-धीरे कई ऐसी नई बातें भी सामने आएंगी, जिसके जरिए आप अपने ब्लॉग को और खूबसूरत बना पाएंगे। छप चुके अंकों को पढ़ने के लिए यहां देखें ब्लॉग बाइट

Tuesday, July 22, 2008

देश का चीरहरण


भारत -
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं

देश के प्रति सम्मान का यह भाव रखने वाले पाश ने कभी आहत होकर लिखा था :

इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं ...

सचमुच, आज जो कुछ भी संसद में होता दिखा, उसे हमारी महान संसद के रेकॉर्ड से भले बाहर रखा जाये, पर उन असंसदीय पलों को हमारी निगाहें नहीं भुला सकतीं। चैनलवाले कह रहे हैं यूपीए सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया। पर मैं पूरे विश्वास के साथ कह रहा हूं कि आज इस देश का चीरहरण हुआ है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तेवर अपने भाषण में जितने तीखे हुए हों, यह सच है कि देश की जनता के सामने सभी औंधे मुंह गिरे पड़े हैं।

पाश ने लिखा था 'मेरे यारो, यह हादसा हमारे ही समयों में होना था, कि मार्क्स का सिंह जैसा सिर सत्ता के गलियारों में मिनमिनाता फिरना था'।

आज सांसदों की करतूतों को देखते हुए जी चाहता है कि पाश की ये पंक्तियां चुरा लूं और पूछूं कि यह हादसा हमारे ही समयों में होना था। पर हम सभी तो वह हैं, जो परिवर्तन तो चाहते हैं मगर आहिस्ता-आहिस्ता। कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे। विरोध में हमारी मुट्ठी भी तनी रहे और हमारी कांख भी ढकी रहे। (धूमिल मुझे माफ करें कि इन पंक्तियों का इस्तेमाल मैंने ऐसे घटिया संदर्भ में किया)

देश के इन नामाकुलों के खिलाफ न खड़ा हो पाने के पक्ष में निजी उलझनों की दुहाई देकर मैं खुद को इस देश के चीरहरण में शरीक पा रहा हूं। लानत है ऐसी जिंदगी पर, ऐसी शख्सीयत पर। ओ पाश, मैं खुद को जिंदा महसूस कर सकूं इसके लिए मुझे अपने शब्द उधार दे दो :
इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं ...

Monday, July 21, 2008

हम सब नीरो हैं

जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था।

इस वक्त रोम का वह नीरो हम सबों की आत्मा में घर कर चुका है। नतीजा है कि मैं भी नीरो, तुम भी नीरो, हम सब नीरो। हमारे पास हमारी डफली है अपना राग है। हम गाएंगे। हमें कौन रोक सकता है। यह लोकतांत्रिक देश है। यहां किसी को कोई भी नहीं रोक सकता। हम बिकेंगे, तुम रोकने वाले कौन? हम खरीदार हैं, खरीदेंगे। तुम रोकने वाले कौन?

पर यह न भूलें कि यह वही देश है जहां बुद्ध ने पूछा था 'मैं तो रुक गया, तुम कब रुकोगे' ? उनके यह पूछने मात्र से अंगुलिमाल रुक गया था।

साथियो, सच बताना कि इस देश में कुर्सी बचाने और गिराने का जो घिनौना खेल हो रहा है, वह तुम्हें सालता है या नहीं? अगर सालता है तो फिर हमसब बेज़बान क्यों हैं? साहित्यकार हों या विचारक, सब खामोश क्यों हैं? अखबार और चैनलों को छोड़ दें तो इस मुद्दे पर ऐसी चुप्पी क्यों है? 'इससे मेरा क्या लेना-देना' की भूमिका में हम खड़े क्यों हैं? गौर करें, इस गौरवशाली देश के सामने 'गौरव' का क्षण कोई पहली बार नहीं आया। इससे पहले भी यह होता रहा है। पर इस बार यह नंगे तरीके से सामने आया। मीडिया इन नेताओं से उनके बिकने और खरीदने पर खुलेआम सवाल पूछ रहा है और वे गोल-मटोल जवाब दे, खुद को पाक-साफ बता रहे हैं।

हर सरकार आग्रह करती है जनता से कि अपनी आय की सही जानकारी दें। पर क्या यह सरकार बताएगी कि सांसदों को खरीदने के लिए उनके जो दलाल करोड़ों रुपये लेकर भटक रहे हैं, ये रुपये के आय का स्रोत क्या है?

या वह विपक्ष, जो सरकार की कुर्सी गिराने में जी-जान से जुटा है, यह बताने की हिम्मत जुटा पाएगा कि सहस्त्र (क) मल जुटाने के लिए उसके पास इतनी राशि कहां से आ रही है?

यही वह वक्त है, जब हम अपने भीतर के नीरो को मार भगायें। हम स्वांतः सुखाय के लेखन से बाहर आयें, बहुजन हिताय की बात भी सोचें। हमारे भीतर के शब्द हमारे हाहाकार को बतायें, न कि किसी नकली दुनिया को रचते हुए हमें आत्ममुग्ध बतायें।

सचमुच, अपनी अब तक की चुप्पी से और इस घिनौनी राजनीति का अप्रत्यक्ष हिस्सा होकर मैं आत्मग्लानि से भर गया हूं।

Thursday, July 17, 2008

ये अशिक्षित शिक्षक

बल्लभगढ़ : थाना मुजेसर क्षेत्र में गौंछी गांव के एक सरकारी स्कूल में एक टीचर ने छात्रा का मुंह काला कर स्कूल में घूमाया। उसे यह सजा होम वर्क न करने पर दी गई। बाद में जिला शिक्षा अधिकारी ने उस महिला टीचर को सस्पेंड कर दिया।
पूरी खबर के लिए पढ़ें नवभारत टाइम्स

सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट, हर जगह ऐसे अशिक्षित शिक्षक भरे पड़े हैं। दरअसल, डिग्रियां घोषित कर देती हैं कि अमुक शख्स शिक्षक होने के लायक है और ऐसी डिग्रियों के आधार पर उसे नौकरी भी मिल जाती है। पर उस टीचर में मानवीय संवेदनाएं गहरी हैं या छिछली, वह बच्चों को समझ पाने के काबिल है या नहीं - इसकी पड़ताल करने की किसी पुख्ता व्यवस्था की हमारे यहां बेहद कमी है।

यह सच है कि आज के दौर में प्राइवेट स्कूल एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहां आप जितनी पूंजी लगाते हैं, उससे कई गुणा ज्यादा मुनाफा आपको हासिल होता है। तो मुनाफे के खून का यह जो स्वाद है, वह शाकाहारियों को भी ठेठ मांसाहारी बना गया। जाहिर है ऐसे में बच्चे, शिक्षा, संस्कार, माहौल सब के सब हासिये में चले गए। निगाहों में रच-बस गया मुनाफा, मुनाफा और मुनाफा।

सरकारी स्कूल मुनाफा नहीं देखता। ये स्कूल जिन हाथों से संचालित होते हैं, दरअसल वे हाथ बेजान हैं। वे न तो स्कूल का भविष्य लिख पा रहे हैं और न बच्चों का। बस वे जनता के पैसों को बेवजह बहाना जानते हैं।

नवभारत टाइम्स के मेट्रो एडिटर दिलबर गोठी ने अपने साप्ताहिक कॉलम आंगन टेढ़ा में सरकारी स्कूलों पर अतार्किक ढंग से खर्च की जा रही राशि की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि इन दिनों सरकारी स्कूलों में प्रोजेक्टर पहुंचाए जा रहे हैं। इससे पहले स्कूलों को कंप्यूटर उपलब्ध कराए गए थे, ताकि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी पब्लिक स्कूलों के बच्चों से टक्कर ले सकें। उन्हें सीसीटीवी कैमरे और रेकॉर्डर भी दिए गए और डीवीडी और सीडी प्लेयर भी।

अब जरा गौर करें। स्कूलों में प्रोजेक्टर तो पहुंचा दिए गए पर क्या यह देखने की कोशिश की गई कि स्कूलों में प्रोजेक्टर लगाने की जगह है भी या नहीं। 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में हॉल नहीं है। कमरों के अभाव में क्लास नहीं लग पाती। स्कूलों में बच्चों को साफ पानी मिले, इसके लिए एक्वा गार्ड तो भेज दिए गए, लेकिन यह नहीं देखा गया कि स्कूलों में पानी की सुविधा है या नहीं।

कुल मिलाकर यह कि पब्लिक स्कूलों में शिक्षा को छोड़कर बाकी सारी चीजों की व्यवस्था विलासिता के स्तर तक हैं। वहीं, इन स्कूलों से अंधी होड़ का जुनून सरकारी स्कूलों के सिर चढ़ा है। नतीजा है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जरूरी साधन मुहैया कराने की अनियोजित कोशिश फूहड़ बन जाती है।

यहां तक आते-आते बात थोड़ी भटक गई है। असल मामला यह है कि स्कूलों में चाहे जितने साधन हम जुटा लें, इन कारखानों से निकलने वाले बच्चे तभी कामयाब हो पाएंगे जब उन्हें किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई जाये। पर सवाल यह है कि यह जीने की कला सिखायेगा कौन? वह शिक्षक जो बच्चों के बालमन को ही नहीं समझ पाता?

आज जब इस प्रसंग के बाद मैं अपने स्कूली दिनों को याद कर रहा हूं तो मुझे अपने स्कूल का एक दिन भी याद नहीं आ रहा, जिसे मैं यादगार कह सकूं। एक भी ऐसी क्लास जेहन में नहीं बस सकी है, जो अपनी रोचकता के कारण सुनहरी बन गई हो। ऐसे ही समय में कहना पड़ता है कि ऐसे शिक्षक अपने महती कर्म में फेल हो गये। उन्होंने शिक्षक का पेशा तो अपनाया पर उसके दायित्वों से कोसों दूर रहे।

अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा अपने स्कूल के एक ऐसे साथी की, जो आज शिक्षक है। और जो अपने स्कूली दिनों और शिक्षकों की भूमिका को याद कर दुखी होता है। और इस दुख को याद कर कोशिश करता है कि उसके छात्रों को ऐसी कोई पीड़ा न हो। उसकी हर क्लास इतनी रोचक हो कि हर बच्चा अपने को इन्वॉल्व महसूस कर सके।

Wednesday, July 16, 2008

हमारी काहिली के दो महीने


आरुषि और हेमराज की हत्या आज से ठीक दो महीने पहले हुई थी। यानी 15-16 मई की रात। हेमराज की लाश तो एक दिन बाद यानी 17 मई को बरामद हुई। तब तक पुलिस इसी थ्योरी पर काम करती रही कि नौकर हेमराज ने आरुषि का कत्ल किया है। खैर, लाश मिलने के बाद कोताही बरतने के इल्जाम में नोएडा सेक्टर 20 के एसएचओ का तबादला हुआ। इसके बाद पुलिस ने नये सिरे से तफ्तीश शुरू की और शक के घेरे में आया डॉक्टर तलवार का पुराना नौकर विष्णु। साथ ही डॉ. तलवार के कंपाउंडर कृष्णा से भी पूछताछ हुई। मीडिया में खबर आई 'पुलिस मान रही है कि दोनों की किसी डॉक्टर या कसाई ने की है। जाहिर है पुलिस के शक के घेरे में डॉ. तलवार थे। इस बीच सूत्रों के हवाले से खबर चलती रही कि डॉ. राजेश तलवार और उनकी पारिवारिक मित्र डॉ. अनीता दुर्रानी के बीच नाजायज संबंध हैं। 24 जून को डॉ. राजेश तलवार गिरफ्तार कर लिये गये। पुलिस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि मामला ऑनर कीलिंग का है। डॉ. तलवार और डॉ. अनीता दुर्रानी के बीच नाजायज संबंध थे, जिसे आरुषि जान गई थी। उसका यही जानना उसकी हत्या की वजह बना।

अवैध संबंध और पुलिस के दावे को झूठा कहते हुए दुर्रानी दंपती मीडिया के सामने आए। इससे पहले वह चुप रहे, पता नहीं क्यों। बाद में डॉ. राजेश तलवार के परिजनों ने सीबीआई जांच की मांग की। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी।

हत्या के पंद्रह दिन बाद यानी १ जून को मामला सीबीआई के हाथ में आया। मायावती के निर्देश पर एसएसपी समेत मेरठ जोन के आईजी और डीआईजी का ट्रांसफर हुआ। 13 जून को सीबीआई ने डॉ. तलवार के कंपाउंडर कृष्णा को गिरफ्तार कर लिया। उसी दिन दुर्रानी परिवार के नौकर राजकुमार से की गई पूछताछ। सीबीआई ने 27 जून को राजकुमार को गिरफ्तार कर लिया। 11 जुलाई को डॉ. तलवार को जमानत मिल गई।

इस पूरे प्रकरण को देने का मकसद सिर्फ इतना कि आरुषि और हेमराज के हत्यारे (हत्यारा) हमारी जांच एंजेसियों से ज्यादा चालाक और शातिर हैं (है)। दो महीने गुजर गये और हम अब तक सबूत तलाश रहे हैं। सबूत नष्ट कैसे हुए? नोएडा पुलिस की लापरवाही से? अगर हां, तो नोएडा पुलिस की उस पूरी टीम की सजा क्या होनी चाहिए, जिसकी वजह से हत्या का सबूत नहीं जुट पाया और हत्यारे के चेहरे पर अब तक मुखौटा है। सीबीआई जैसी शार्प जांच एजेंसी के पास अब तक कोई ठोस सबूत नहीं, जिसके बल पर यह केस कोर्ट में टिका रह सके।

क्या इस केस की नियति भी निठारी कांड की तरह लंबा खिंचना है? क्या यह निठल्लापन देखना हमसबों की नियति है? सच है कि यह केस पहेली की तरह लगने लगा है। जांच एजेंसियां जो कहती है, उस पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा नहीं। और उसके कहने में जितने विरोधाभास हैं, उससे हम आंखें कैसे चुरा लें। पर आश्चर्य यह कि सीबीआई को ऐसी चाल दिखाने में संकोच क्यों नहीं। क्या वह किसी को बचाने में जुटी है या वाकई इतनी लाचार है कि उसका हर स्टेटमेंट अब संदिग्ध लगने लगा है।

Monday, July 14, 2008

असहजता, जो बन गई है सहजता

सुनते थे खामोशी शोर से घबराती है
खामोशी ही शोर मचाए, ये तो हद है

सचमुच, ब्लॉग पर खुद की इतने दिनों की लंबी चुप्पी मेरे भीतर गहरा शोर मचाने लगी। आज वह शोर जोर मार रहा है।


दरअसल, गर्मी की छुट्टियां मैंने अनुनय और अन्या (अब मान्या) के संग बिताई। इन दोनों बच्चों ने भी मेरा साथ पा खूब एञ्जॉय किया।
प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - अपने फेवरिट कार्टून करेक्टर का स्केच थर्मोकोल पर बना उसके कटआउट पर फोन डायरी चिपकाएं। बाप के पसीने छूटे और मां की खीज बढ़ी और तैयार हो गयी बिटिया की फोन डायरी।

बकौल मान्या, 'पापा गर्मी तो बीती नहीं, फिर छुट्टियां खत्म क्यों हो गईं?' मैं जब भी कंप्यूटर ऑन करता, अनुनय पहुंच जाता - पापा, मुझे गेम खेलना है। कुल मिलाकर इन दोनों बच्चों ने कंप्यूटर 'हैक' कर लिया था। मैं कुछ नहीं कर सकता था।

जो बचा समय होता था, वह बच्चों के होमवर्क में होम हुआ। अनुनय II में है और मान्या I में। पर स्कूल से मिले होमवर्क (प्रोजेक्ट वर्क) इन बच्चों के स्टैंडर्ड से ऊपर के थे। बाद में मैंने इनके स्कूल के और बच्चों से भी संपर्क किया, सबका हाल एक-सा था। यानी, होमवर्क बच्चों के लायक नहीं, मां-बाप के लायक। यही हाल दूसरे स्कूलों का भी दिखा। मैं समझ नहीं पाया कि प्रोजेक्ट के नाम पर ऐसे होमवर्क से बच्चे क्या सीखेंगे, जो वे करते ही नहीं।

प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - बर्ड हाउस बनाएं। घर की दैनिकचर्या भले गड़बड़ा गई, पर बिटिया रानी बर्ड हाउस देख कर फूली नहीं समाई। मां-बाप की मेहनत कामयाब हुई

मेरी छोटी-सी समझ में यह बात नहीं अंट पा रही कि ऐसे प्रोजेक्ट वर्क से बच्चे में कौन-सा टैलेंट पैदा करना चाहता है स्कूल। सबसे दुखद पहलू, स्कूल से संपर्क करें तो सलाह मिलेगी कि कहां टेंशन पाल रहे हैं, फलां दूकान वाले को कहें, वह पता बता देगा कि इस सीजन में कौन-कौन लोग प्रोजेक्ट वर्क तैयार कर देंगे, बहुत मामूली पैसा लेकर।

गौर से देखें, तो लापरवाही हमारी है। हम अच्छी शिक्षा की उम्मीद में बच्चों का एडमिशन जहां करवाते हैं, उसके बारे में यह पता नहीं करते कि उस स्कूल का मिशन क्या है। इन दिनों मैंने महसूस किया कि जिस तरह से पत्रकारिता में तामझाम बढ़ता गया, उसका स्तर उतना ही गिरता गया। ठीक वैसे ही, स्कूलों ने तामझाम बढ़ाया और पठन-पाठन की जीवंतता कमजोर पड़ती गई। मशीनी और बनावटी शिक्षा बच्चों को तकनीकी रूप से जितना समृद्ध कर दे, उनके भीतर पल रहे इन्सान को उतना ही आहत करती है। महसूस करता हूं कि आज के स्कूलों से मिल रही शिक्षा बच्चों की सहजता पर हमला कर रही है। और वहां से हासिल असहजता ही उनकी सहजता बनती जा रही है।

यह सच सभी जानते हैं कि कलकल कर बिंदास बहता झरना बेहद खूबसूरत और आकर्षक होता है। पर उससे बिजली तभी पैदा की जा सकती है, जब उसे बांधा जाए। यानी, बिजली पैदा करने के लिए झरने की सहजता का नष्ट होना अनिवार्य है।

इसी बिजली पैदा करने की ललक में हम अपने बच्चों की सहजता नष्ट कर रहे हैं। उनके बचपन को छीनने की साजिश में हम भी शरीक हैं। क्या कोई हल है कि हम इस साजिश को रोक सकें?

Tuesday, June 10, 2008

'मददगारों' का एक रूप यह भी

पंकज त्यागी
नई दिल्ली : पुरानी दिल्ली में एक ऐसी वारदात हुई, जिसके बाद लुटे हुए लोग सड़क पर शायद ही किसी मददगार की मदद लेंगे। जो राहगीर बिजनेसमैन को लूटने वाली औरतों के पीछे दौड़ लगा रहे थे, वही लोग उन औरतों के फेंके 25 हजार रुपये उठाकर नौ दो ग्यारह हो गए। औरतों से 55 हजार रुपये बरामद कर उन्हें तो गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन मददगारों और 25 हजार रुपयों का कोई सुराग नहीं मिला।
दिलचस्प सबक देने वाली यह वारदात हुई पुरानी दिल्ली के यमुना बाजार इलाके में। शनिवार दोपहर शास्त्री नगर में रहने वाले बिजनेसमैन प्रमोद तिवारी फव्वारा चौक से गांधीनगर जाने के लिए आरटीवी में सवार हुए। उनके बैग में 80 हजार रुपये थे। फव्वारा चौक से इस गाड़ी में 6 औरतें चढ़ीं और तिवारी के आसपास बैठ गईं। इनमें से एक औरत बीमार की तरह बर्ताव कर रही थी, जबकि बाकी उसकी तीमारदारी में जुटी थी। यमुना बाजार में ये सब नीचे उतर गईं।
इसी वक्त तिवारी की निगाह अपने बैग पर गई, जहां से रकम गायब थी। औरतों पर शक होते ही उन्होंने तुरंत नीचे उतर कर शोर मचा दिया। शोर सुनते ही औरतों ने दौड़ लगा दी। 'बीमार' औरत सबसे आगे दौड़ रही थी। अफरातफरी में जमा हुए राहगीरों में से कुछ औरतों का पीछा करने लगे। एक औरत ने कुछ रकम निकाली और पीछा कर रहे लोगों के सामने सड़क पर फेंक दी। यह चाल पूरी तरह कामयाब रही और पीछा कर रहे राहगीर अब औरतों को पकड़ने के बजाय सड़क से रुपये उठाने में जुट गए। इत्तफाक से यमुना बाजार में कश्मीरी गेट के एसएचओ अरुण शर्मा, हवलदार रामकिशन और सिपाही धर्मवीर गुजर रहे थे। उन्होंने अफरातफरी होते देखी और औरतों को पकड़ लिया। इनकी तलाशी में पुलिस को 55 हजार 730 रुपये मिल गए। बाकी रकम उठाकर वे 'जिम्मेदार नागरिक' फरार हो चुके थे, जो कुछ देर पहले तक बिजनेसमैन की मदद कर रहे थे।
साभार : नवभारत टाइम्स

Sunday, May 25, 2008

धरती अब भी घूम रही है

भाषा की गति लोक व्यवहार से तय होती है। इसी के आधार पर मानक बनते हैं और तब तैयार होता है उसका व्याकरण। ठीक ऐसी ही बात परंपरा के लिए भी कही जा सकती है। बदलते वक्त के साथ परंपराएं भी बदलती हैं और उनका व्याकरण भी। तो बदल रही परंपराओं और बन रहीं मान्यताओं की ओर इशारा करता संजय खाती का यह नजरिया पेश है आपके लिए :

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गुजरा हफ्ता हमारे लिए बेहद तकलीफदेह रहा। नोएडा में आरुषि मर्डर केस खबरों पर छाया रहा, जिसमें तमाम अटकलों के बाद पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि चौदह साल की इस प्यारी सी बच्ची की हत्या उसके पिता ने की। उधर मुंबई में एक प्रेमी-प्रेमिका ने मिलकर एक युवक का बेदर्दी से कत्ल कर दिया। ये दोनों केस पुलिस के दावे पर आधारित हैं और जैसा कि आप जानते हैं, पुलिस के दावों को भी अदालत में सही साबित करना होता है और तभी इस बात का फैसला होता है कि कसूरवार कौन था। लेकिन फिलहाल जो डिटेल्स सामने आए हैं, वे आम नागरिक का दिल दहला देने वाले हैं और जाहिर है, यह सवाल उठे बिना नहीं रहता कि हमारे समाज को क्या हो गया है?

इस नतीजे पर पहुंचना बेहद आसान है कि हमारे समाज का नैतिक पतन हो रहा है। मीडिया ने जिन एक्सपर्ट्स से बात की है, उनकी भी राय यही है कि सोशल वैल्यू सिस्टम में गिरावट आ रही है, समाज का नैतिक तानाबाना बिखर रहा है, क्योंकि लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं। वे अपनी सुख-सुविधा के आगे किसी चीज की कीमत नहीं समझते, लिहाजा हर तरह के अपराध बढ़ रहे हैं, यहां तक कि पवित्र रिश्तों की इज्जत भी बची नहीं रही।

मेरा मानना है कि यह एक आसान जवाब है, और जैसा कि होता है, आसान जवाब सही जवाब नहीं होते। वे हमें इसलिए पसंद आते हैं कि हमें ज्यादा सिर खपाने से फुर्सत मिल जाती है। यह सही है कि पुराना वैल्यू सिस्टम बिखर रहा है, लेकिन सिर्फ इतने से ही जुर्म बढ़ने का दावा साबित नहीं हो जाता। सबसे पहले तो यह बात ही बहस में है कि जुर्म बढ़ रहे हैं।

हमारे पास जो आंकड़े हो सकते हैं, वे काफी नए हैं। मसलन हम यह पता नहीं लगा सकते कि बीस, पचास या सौ साल पहले अपराध कम होते थे या ज्यादा। इसकी वजह रिपोर्टिंग सिस्टम है। आज का समाज कहीं ज्यादा संगठित है, लोग ज्यादा जागरूक हैं और सिस्टम ज्यादा कारगर है, इसलिए अनगिनत ऐसे केस भी अब दर्ज होने लगे हैं, जो पहले नहीं हो पाते थे।

मुझे लगता है कि जुर्म तब भी होते थे और बड़ी तादाद में होते थे, लेकिन वे पुलिस केस नहीं बनते थे। जिन मामलों को आज हम वैल्यू सिस्टम टूटने की मिसाल मानते हैं, वे भी हर युग में हुए हैं। इतिहास और पुराणों को देखिए, जहां राजपाट के लिए भाइयों और पिता की हत्या के किस्से आम हैं, बल्कि जायज ठहराए गए हैं। परिवार के भीतर बदकारी (इंसेस्ट) के आरोप से तो देवता भी बरी नहीं हैं।

परिवार और समाज का विकास होने के बाद भी उनकी नैतिकता को लगातार चैलेंज किया जाता रहा है। पिछड़े समाजों में ऐसे-ऐसे अत्याचार होते हैं कि रूह कांप जाए। पाकिस्तान के कबाइली इलाकों में किसी कुनबे को सजा देने के लिए उस कुनबे की महिला से सामूहिक बलात्कार का मामला हाल में इंटरनैशनल मुद्दा बन गया था, जब मुख्तारन माई ने बगावत कर दी थी।

जिन्हें क्राइम ऑफ पैशन कहा जाता है, यानी जज्बाती अपराध जैसे कि नोएडा और मुंबई के केस हो सकते हैं, उनकी भी कमी कभी नहीं रही। शहरों से दूर ऐसे किस्से सैकड़ों मिल जाएंगे, जिन्हें इज्जत के नाम पर दबा दिया जाता है।

यहां तक कि शहरों में भी ऐसे केस हमेशा होते आए हैं। फर्क यह है कि वे हाई प्रोफाइल केस नहीं होते। ज्यादा से ज्यादा वे पुलिस फाइलों में गुम हो जाते हैं, मीडिया उन्हें तवज्जो नहीं देता। लेकिन जब उसे कोई हाई प्रोफाइल सनसनीखेज मामला मिल जाता है, तो उसके शोर की इंतहा नहीं रहती। इस शोर का असर हम पर जबर्दस्त होता है और हम डिप्रेशन के शिकार हुए बिना नहीं रहते। हमें लगने लगता है कि दुनिया ने अपनी धुरी पर घूमना छोड़ दिया है। हम नरक में जा रहे हैं। सब कुछ खत्म हो रहा है।

यह एक बुजुर्ग सोच है। हर उम्रदराज शख्स को लगता है कि उसका जमाना बेहतर था और अब अच्छाई खत्म होती जा रही है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ जीवन का जोश धीमा पड़ने लगता है, थकान और ऊब के धुंधलके के पार नए जमाने की हलचलें भुतहा दिखने लगती हैं। हर पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी उद्दंड, बदतमीज और बेसब्र नजर आती है।

वक्त की करवटें गुजरे जमाने की शरारतों को इतना मासूम बना देती हैं कि उनके बरक्स मौजूदा दौर हाहाकारी लगने लगता है। लेकिन सच तो यही है कि हर नया जमाना पहले से ज्यादा बिंदास, तरक्कीपसंद, शौकीन और मेहनती साबित होता है। इसीलिए समाज आगे बढ़ता है, वह कभी जंगलों की ओर नहीं लौटता।

तो समाज के पतन की थ्योरी को गलत मानते हुए मैं दो नतीजों तक पहुंचना पसंद करूंगा। एक तो यह कि समाज नीचे नहीं जा रहा, वह अपने रास्ते पर है, जैसी कि उसकी फितरत है, और दूसरा, नैतिकता की जिस गिरावट का रोना हम रोते रहते हैं, वह असल में नैतिकता के मतलब बदल जाने से पैदा हुई गलतफहमी और तानव का मामला है।

इस दूसरे मुद्दे का थोड़ा सा खुलासा शायद जरूरी है। नए जमाने में पुराने पैमाने टूट रहे हैं, जैसे कि विवाह और परिवार की संस्थाएं। जाहिर है, इसके साथ रिश्तों के मायने भी बदलेंगे। लेकिन इसमें वक्त लगता है। भारत जैसे समाज में, जहां परंपरा काफी मजबूत रही है, यह काम और भी मुश्किल होगा। लिहाजा पुराने मूल्यों को बचाने की जिद भी होगी, नए का लालच भी और डर भी।

विवाह से पहले और विवाहेतर रिश्ते आम बात होते जा रहे हैं, लेकिन उनके साथ जुड़ी उलझनें भी। अगर हम पुलिस के दावे को मानें, तो आरुषि के मर्डर जैसा केस अमेरिकी समाज में नहीं घट सकता, जबकि भारत में उसके पूरे चांस हैं। पश्चिम में परिवार की थीम इतनी कमजोर पड़ चुकी है कि पिता को अपना रिश्ता छिपाने और इज्जत बचाने के लिए इस हद तक जाने की जरूरत नहीं होती। उसे बेटी के किसी रिश्ते पर भी नाराज होने का हक नहीं होता।

इसी तरह मुंबई वाले मामले का निपटारा भी वहां दूसरे तरीके से हो सकता था। अलबत्ता उस केस से जुड़ी बेरहमी जरूर चौंकाने वाली बात है, लेकिन ऐसा पागलपन कब नहीं था? क्राइम ऑफ पैशन हर जमाने और हर समाज में होते रहेंगे। इंसान सृष्टि का सबसे अक्लमंद जीव है। उसके गिरने की कोई हद नहीं है, लेकिन आखिरकार अपनी सामूहिकता में वह ऊपर ही उठता देखा गया है। दिन-रात हमें घेरे हुए इन डरावने किस्सों और तमाम अपशकुनों के बावजूद इस सचाई पर भरोसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
साभार : नवभारत टाइम्स

Friday, May 16, 2008

दहलाने वाली दृष्टि

आज चोखेर बाली पर सुरेश जी का 'दहल' जाना पढ़ा और दूसरों को 'दहलाने की उनकी कोशिश' भी देखी। सुरेश जी कितने संवेदनशील हैं इस बात का पता इससे ही चल जाता है कि उन्होंने इतनी भयंकर वारदात को महज 'घटना' माना है। आपने लिखा है 'यह नारी अशिक्षित नहीं है. उसने अंग्रेजी में एम् ऐ किया है. ' सुरेश जी, शिक्षित होने का संबंध जो लोग डिग्रियों से तौलते हैं, मुझे उनके शिक्षित होने पर संदेह होने लगता है। आपको ढेर सारे ऐसे लोगों के उदाहरण अपने समाज में मिल जाएंगे, जिन्होंने स्कूल-कॉलेज का चेहरा तक नहीं देखा, पर उनकी शालीनता और उनके संस्कार के सामने डिग्रीधारी भी बौने नजर आने लगते हैं।

आपने लिखा 'उसके पिता ने अपनी इस एकलौती बेटी को बेटों जैसा प्यार दिया. शिक्षा पूरी होने पर उसे एक स्कूल में अध्यापिका की जॉब दिला दी.'


दो-तीन बातें इन दो वाक्यों पर। पहली बात तो यह कि उस पिता ने सिर्फ प्यार दिया। यह आकलन आपका है क्या कि बेटों जैसा प्यार दिया? जो परिवार अपनी बेटी को एमए तक की पढ़ाई करने का अवसर दे, वह दकियानूसी नहीं हो सकता। दकियानूस दृष्टि यह है कि हम उसे कहें कि उसे बेटों जैसा प्यार दिया। खतरनाक बात यह कि अध्यापक पिता ने अपनी बेटी को पढ़ा तो दिया पर उसके भीतर समझ पैदा नहीं कर सका, संस्कार पैदा नहीं कर सका। और तो और आपके मुताबिक 'शिक्षा पूरी होने पर उसे एक स्कूल में अध्यापिका की जाब दिला दी।' गौर करें सुरेश जी, वह लड़की इतनी भी शिक्षित नहीं थी कि एक छोटी-सी जॉब पा सके। आपके मुताबिक, उसके टीचर पिता ने उसे जॉब दिलाई थी। एक दुखद बात और कि जो टीचर अपने घर के बच्चे को सही और गलत के अंतर को समझ पाने की दृष्टि नहीं दे सका, वह समाज को क्या सिखलाएगा? और आखिर में एक कुतर्क, अगर बाप ने बेटी को बेटों जैसा प्यार दिया, तो बेटी ने भी उस प्यार का सम्मान करते हुए बेटों जैसा काम किया। बहरहाल, अपराध न बेटा (पुरुष) करता है, न बेटी (स्त्री)। यह आपको भी समझना चाहिए।


आपने लिखा 'मैंने भी जब इस के बारे में सुना... '। पर आपने हमें जो सुनाया, वह तो लाइव कमेंट्री की तरह है। लगा ऐसा कि हत्याएं हो रही हैं और आप वहां खड़े होकर बारीक तरीके से वारदात के हर स्टेप को अपनी डायरी में दर्ज कर रहे हों। दरअसल, आपने इस वारदात को अपनी ओर से रोचक बनाने की अथक कोशिश की है। हां सुरेश जी, अपराध की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वह रोचक नहीं हो सकता, वह घृणित ही रहेगा। उसे रोचक अंदाज में पेश करने की कोशिश उससे भी ज्यादा घृणित। ऐसी किसी वारदात को स्त्री-पुरुष से जोड़कर देखने वाली दृष्टि इस समाज के लिए कितनी खतरनाक है, इस पर अगर आप विचार कर सकें (मुझे संदेह है) तो करें। और फिर बताएं कि यह अपराध किसी स्त्री ने किया या किसी पुरुष ने?

Thursday, May 15, 2008

विकास का भेंग

मैं रहता हूं गाजियाबाद के वसुंधरा (यूपी) में। नौकरी करता हूं दिल्ली के एक अखबार में। मेरे बड़े भाई का घर भी वसुंधरा की इसी जनसत्ता सोसाइटी में है। वह नौकरी करते हैं एक न्यूज चैनल में। मेरी छोटी बहन धनबाद (झारखंड) के एक कॉलेज में हिंदी की लेक्चरर है। मां को गुजरे अब 13 साल बीत चुके हैं। पापा रांची (झारखंड की राजधानी) में रहते हैं। अपना मकान है। पांच किरायेदार हैं।

भइया 92 में ही दिल्ली आ गया था। मैं आया हूं महज चार साल पहले। भइया को दिल्ली भेजने के बाद पापा यही कहा करते थे कि वह नौकरी की तलाश में नहीं, भविष्य की तलाश में गया है। मैं इतने वर्ष टिका रहा रांची में तो सिर्फ अपनी जिद पर कि पापा के साथ रहना है। पर आखिरकार मुझे भी दिल्ली का रुख करना पड़ा। मुझे भेजते वक्त पापा की अभिव्यक्ति थी 'जब पराग को भेजा था दिल्ली, तो लगा मेरा दिमाग मुझसे अलग हुआ। रेमी की शादी की, तो लगा कोई मेरा दिल मुझसे अलग कर ले गया। और अब तुम्हें भेज रहा हूं तो जान रहा हूं कि मैं अपाहिज हो जाऊंगा, क्योंकि तुम्ही तो मेरे हाथ-पांव हो।'

यह कहानी सिर्फ मेरे परिवार की कहानी नहीं है। यह इस देश के हर तीसरे-चौथे-पांचवें परिवार की कहानी है। गांव का बेटा बेहतर की तलाश में शहर की ओर भाग रहा है, शहर का बेटा इसी बेहतर की तलाश में महानगर का रुख करता है और महानगर का बेटा भाग रहा है विदेश। यानी हम सब भाग रहे हैं, हांफ रहे हैं, खीज रहे हैं, जूझ रहे हैं। इस जूझने से हासिल हो रहा है थोड़ा ज्यादा पैसा, थोड़ा ज्यादा तनाव और बुरी तरह अपने और अपने परिवार से कटते जाने का संत्रास।

इस देश में हर वह शख्स जो अपने पिता होने का दायित्व निभाता है, अपना पूरा वर्तमान और भविष्य के तमाम सपने झोंक देता है अपने बच्चों पर। इस झोंकने के पीछे कहीं वह सोच भी काम करती है कि यही बच्चे तो हमारे बुढ़ापे का सहारा होंगे। बच्चे भी पिता के सपनों पर खरा उतरने की कोशिश करते हैं। पर बदले हुए वक्त और इस वक्त की जरूरत के मद्देनजर उन्हें भी कई समझौते करने पड़ते हैं। इन समझौतों के बीच बड़ा हुआ बच्चा अपने बच्चों का बाप बन चुका होता है और फिर वह उस बच्चे के लिए अपना वर्तमान और भविष्य झोंकने लगता है। यानी, कुल मिलाकर यह चक्र हर मध्यवर्गीय भारतीय को पीसता रहता है।

सच यह है कि ऐसे हालात पीड़ा पैदा करते हैं। अनामदास ने ठीक कहा है यह पीड़ा अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ जीने का संघर्ष है। जो मुड़कर देखना नहीं चाहते, वह खुश हैं। बच्चों की प्रगति देखकर अलग रह रहा पिता भी खुश होता है। पर यह खुशी उसके अकेलेपन पर भारी पड़ती है।

आखिर, बेहतर की तलाश में हो रहा विस्थापन हम क्यों स्वीकार करते हैं। दरअसल, इंसान की अतृप्ति उसे बेहतर की तलाश में भटकाती है। जैसे ही एक अतृप्ति तृप्त होती है, उसकी जगह फिर कोई नई अतृप्ति आ जाती है। क्योंकि यह इंसान जानता है कि तृप्त जानवर होने से बेहतर है अतृप्त आदमी बन कर रहना। तो अपने को आदमी बनाये रखने के लिए बहुत सहज रूप में वह अपने भीतर नई अतृप्तियां भरता जाता है। ऐसे ही समय में बेहतर की परिभाषा भी बिल्कुल व्यक्तिपरक हो जाती है। कोई अपनी बेहतरी दिल्ली छोड़कर यूपी के किसी कस्बे में बसने में देखता है तो कोई किसी कस्बे को छोड़कर विदेश में बस जाने में। यानी, विस्थापन की वजहें कई सारी हैं। कई बार बिल्कुल ही निजी भी।

इन सब के बीच, विस्थापन की एक बड़ी वजह है विकास की अधकचरी योजना। हो रहे विस्थापन का 60-70 प्रतिशत हिस्सा इसी का नतीजा है। यह वह देश है जहां किसी शहर में मेट्रो की लाइन बिछ रही होती है और कई इलाके साइकल चल सकने लायक सड़क के लिए तरसते रह जाते हैं। कुछ शहरों में आधुनिकतम संसाधन हैं तो कई इलाके बुनियादी साधनों का इंतजार कर रहे हैं। एक तरफ ऋण में डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों टन अनाज गोदाम में सड़ रहा है। यानी, विकास की भेंगी दृष्टि देश के हर हिस्से को नहीं देख पा रही है। विकास का यह भेंग जब तक दूर नहीं होता, लोगों का विस्थापन होता रहेगा। हम पलायन करते रहेंगे सिर्फ अपने इलाके से नहीं बल्कि देश और समाज के प्रति अपने दायित्वों से भी।

Tuesday, May 13, 2008

बता री सजनी


बिन मौसम मुझे याद तेरी क्यों आई
हां री सजनी, अब हो गई तेरी सगाई

न कर नम अपनी ये प्यारी-प्यारी आंखें
हां री सजनी, दुआएं लिए खड़ी है माई

चल उठ, छोड़ अतीत देख अब सिर्फ आगे
हां री सजनी, मत कह अब दुहाई है दुहाई

मत कोस किसी को, नहीं बदलेगा कुछ भी
हां री सजनी, अब न बाप सुनेंगे न भाई

मेरी सांसों की हर आहट, भर रही है घबराहट
बता री सजनी, ये दिल क्यों निकला हरजाई

Wednesday, May 7, 2008

बेटा करे डिनर, पिता खाए 'बन'

आज मेरा 38वां जन्मदिन है। संयोग से मेरे वीकली ऑफ का दिन भी। बच्चों की जिद थी कि डिनर के लिए होटल चलें। उनकी जिद पूरी कर दी। उन्होंने खूब चाव से खाना खाया। यह देखकर मुझे भी संतोष हुआ। पर साथ ही मेरे जेहन में यह बात भी कौंध रही थी कि मेरे पिता आज घर पर बिल्कुल अकेले हैं। चौबीस घंटे घर में रहनेवाली मेड सरहूल का पर्व मनाने गांव गई है। दो-चार दिन में लौटना है। उसकी अनुपस्थिति में पापा ने आज सुबह दूध-चूड़े पर गुजारा किया। दोपहर में कुछ भी नहीं खाया और डिनर के लिए दुकान से बन (एक तरह की पावरोटी) मंगवा ली है। मैं अपने बच्चों के साथ होटल में चिकन और बटरनान खा कर लौटा हूं। और मेरे पिता अपने बच्चों से दूर ब्रेड खाकर काम चला रहे हैं।

यह अयाचित स्थिति क्यों बन जाती है जिंदगी में। आज मनःस्थिति ऐसी नहीं कि इस पर चर्चा कर सकूं। पर किसी पोस्ट में यह चर्चा होनी है कि रोजगार की वजह से हो रहा विस्थापन भी दर्द के नए प्रदेश में हमें ले जाता है।

Saturday, April 26, 2008

प्रथम चुंबन

शिराओं में
खून की गति
कम हो तो ज़रूरी नहीं
कि आदमी उदास, हताश या निराश है।

कई क्षण ऐसे होते हैं
जहां वक़्त रुक जाता है,
शिराओं में खून जम जाता है,
और ज़िंदगी
हसीन लगने लगती है।

तल्ख अनुभवों को
ताक पर रख
अगर वक़्त को महसूसा जाये
तो सचमुच
वक़्त भी धड़कता है
और इस वक़्त की नब्ज
हमारे हाथों में है
जिसकी नक्काशी
न जाने कितने संदर्भों को
जन्म देती है
जहां पल-पल अहसास होता है
कि हम ज़िंदा हैं।

Friday, April 25, 2008

बच्चे कहते हैं

ओ पिता,
तुम बहुत गंदे हो
तुम मेरे साथ नहीं खेलते।
खेलने के लिए कहता हूं
तो डांट कर मुंह फेर लेते हो।


पहले तुम
इतने गुस्सैल तो नहीं थे!
अब अम्मा पर भी
झल्लाने लगे हो!
तुम्हें क्या मालूम
तुम्हारे पीछे
अम्मा कितना रोती हैं!

ओ पिता,
तुम इतना झुक कर
क्यों चलने लगे?
तुम्हारे केश
इतने सफ़ेद और
चेहरा
इतना रूखा क्यों हो गया?

अब तो मैं
तुम्हारे साथ खेलूंगा भी नहीं।
बूढ़ों के साथ बच्चे
कहीं खेलते हैं भला!

Monday, April 21, 2008

उनके इंतजार में

उनके इंतजार में जाने कब से खड़ा हूं उसी मोड़ पर
अब है उन्हें ही रंज, जो गये थे खुद मुझे छोड़ कर

सही वक्त नहीं यह किसी से शिकवा-शिकायत का
देख, मातम मना रहे हैं लोग, अब रिश्ते तोड़ कर

गर तू चाहता है जीतना अब भी, हारी हुई यह जंग
फिर छोड़ दे ये रोना-धोना, अब दुश्मनों से होड़ कर

बहुत मुश्किल नहीं है मेरे भाई, झुकेंगे ये कसाई
तू शुरू तो कर अपनी चाल, सारी शक्ति जोड़ कर

Sunday, April 20, 2008

टेक केअर ऑफ माई आइज़

यह एसएमएस मुझे मेरे बेहद करीबी एक साथी ने भेजा। लघुकथा के कलेवर का यह एसएमएस मनुष्य की मानसिक बुनावट की जटिलताओं की ओर ध्यान खींचता है। इनसान जब ख़ुद को निरीह पाता है, तो वह सबसे घुल-मिल कर रहता है और दूसरों से सहयोग की भी अपेक्षा करता है। उसे अपना दुख सबमें नज़र आता है और सबका दुख ख़ुद में महसूस करता है। पर जैसे ही उसकी स्थिति मजबूत होती है, वह अपनी पुरानी ज़िंदगी भूल जाना चाहता है। निरीह और लाचार तमाम लोग उसे अब बोझ लगने लगते हैं। तो पढ़ें इस एसएमएस को जो मनुष्य के त्याग और स्वार्थ की पराकाष्ठा को दिखला रहा है :

There was a blind boy, who used to
hate every one except his girlfriend.
He always used to say that l'll marry u
if i could see!! Suddenly 1 day someone
donated him eyes n then when he saw
his glfriend, he was astonished to see
that his glfriend was also blind!
His glfriend then asked
"WILL U MARRY ME NOW?
he simply refused....
his glfriend went away saying...
"JUST TAKE CARE OF MY EYES."

Thursday, April 17, 2008

यौन पवित्रता : जड़ता टूटनी चाहिए (अंतिम)

स्त्री पर पुरुष का हक जैसी धारणाएं स्त्री को भयमुक्त होकर खुली हवा में जीने नहीं देतीं। खुली हवा में जीने का मतलब यह कतई नहीं होता कि जब चाहा, जिसके साथ चाहा हमबिस्तर हो लिये। यह तो एक तरह की यौन उच्छृंखलता होगी। खुली हवा में सांस लेने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि स्त्री मान ले और समाज स्वीकार ले कि जिस तरह पुरुष निडर और निःसंकोच होकर कहीं भी घूम सकता है, स्त्री भी घूम सकती है। लूट की वारदातें अपनी जगह पर हैं। लूटनेवाला तो कभी भी और कुछ भी लूट सकता है, तो क्या इस डर से स्त्री अपना कार्यक्षेत्र सीमित कर ले?

बलात्कार एक विकृत मानसिकता है। विभिन्न सर्वेक्षणों के मुताबिक अधिकतर मामलों में पीड़िता के आसपास के लोग ही होते हैं बलात्कारी। स्त्री के संबंध में मर्दों का इतिहास सचमुच बहुत गंदा रहा है और यही समाज स्त्री से अपनी यौन पवित्रता को किसी भी कीमत पर बचाये रखने की अपेक्षा करता है। स्त्री से यौन पवित्रता की यह मांग बहुत अस्वाभाविक है और इसे इज्जत से जोड़ कर देखने की हमारी दृष्टि उतनी ही दकियानूसी भी।

समाज का कोई घिनौना चरित्र किसी स्त्री को जब पूरी बस्ती में नंगा घुमा देता है, तो क्या इस हादसे को पीड़िता की इज्जत से जोड़कर देखने की ज़रूरत है या फिर इसे उस बस्ती के मुर्दा होने से जोड़ कर देखा जाना चाहिए? महिला को नग्न किये जाने से महिला की इज्जत उतर गई या फिर वह पूरी बस्ती ही नंगी हुई? क्या इस वारदात से बस्ती के सारे मर्द नंगे नहीं हुए?

बलात्कार को इज्जत से जोड़कर देखने की एक वजह पीड़िता की 'प्राइवेसी' का भंग होना भी हो सकता है। लेकिन कई दूसरी परिस्थितयों में भी तो लोगों की प्राइवेसी ख़त्म होती है, उस वक़्त उनका नज़रिया क्यों बदल जाता है? जहां तक 'इज्जत' का प्रश्न है, तो वह उम्र भर कमाया गया धन होती है। किसी की भी इज्जत होती है तो किसी एक वजह से नहीं। बल्कि उस स्त्री या पुरुष को लोग उसकी पूरी समग्रता में देखते हैं।

बलात्कार को स्तब्ध कर देने वाला अपराध मानने के पीछ मुख्य चिंता स्त्री के कौमार्य की सुरक्षा की हो सकती है। समाज में यह धारणा बलवती है कि वही स्त्री विवाह योग्य है, जिसका पहले किसी पुरुष से यौन संबंध न हुआ हो। इसके ठीक उलट पुरुष के लिए ऐसी किसी कौमार्य की बाध्यता समाज में नहीं है। कहीं न कहीं स्त्री और उसकी यौन शुचिता के प्रति हमारी यह एकांगी दृष्टि बलात्कार को ख़ास अपराध में तब्दील कर देती है।

विचार करने की एक बात यह भी है कि इस वारदात को कितना ख़ास माना जाये? इस दुष्कृत्य को रोकने के लिए किसी स्त्री से कितनी शारीरिक क्षति स्वीकार करने की अपेक्षा आप करेंगे? क्या सचमुच बलात्कार इतना जघन्य है कि उसके लिए स्त्री को अपनी जान की बाज़ी लगा देनी चाहिए? दुखद यह है कि आज समाज उस स्त्री को अपने सिर-माथे पर बिठा लेगा, जिसने बलात्कारी के मंसूबों को नाकाम कर दिया हो। भले ही इसके लिए उसे अपने हाथ-पांव गवांने पड़े हों। और दूसरी तरफ, किसी के साथ अगर यह वारदात सफल हो गई, तो समाज उस स्त्री को शक की निगाह से देखेगा। समाज का यह नज़रिया कितना सही है? दरअसल यह सारी हाय-तौबा इसीलिए है कि हमारी महान संस्कृति ने स्त्री को असूर्यपश्या के रूप में जड़ दिया है। जड़ता की यह स्थिति टूटनी चाहिए।

Wednesday, April 16, 2008

यौन पवित्रता : जड़ता टूटनी चाहिए (एक)

बलात्कार की वारदात मुंबई की लोकल ट्रेन में हो या मरीन ड्राइव की किसी पुलिस चौकी पर, दिल्ली की सड़कों पर रात में दौड़ती कार में हो या फिर किसी छोटे से शहर के किसी हिस्से में; वह जब भी सुर्खियों में आती है, सबके भीतर डर छोड़ जाती है। ऐसी खबरों के बाद यह समाज पुलिस की निष्क्रियता पर मर्सिया गाता है और सुरक्षा व्यवस्था को जम कर कोसता है। इसके साथ ही वह ऐसी वारदातों के होने की वजह तलाशता है। अक्सर सन्नाटा, परिचित, रिश्तेदार या फिर बदले की (दुः) भावना वजह बनते हैं। अकेली क्यों गई थी, किसी को साथ क्यों नहीं ले गई... पता नहीं कितने सवाल नाचते रहते हैं, पर कोई सही जवाब नहीं मिल पाता। और आखिरकार हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं। अपनी दुनिया में मस्त। दरअसल, ये सवाल और ये चिंताएं महज तात्कालिक हैं, जो उभरते-डूबते रहते हैं। बलात्कार से जुड़ी असल समस्या इससे कहीं ज़्यादा गहरी है।

जनता की सुरक्षा या पुलिस की सक्रियता पर चिंता इस लेख का विषय नहीं। चिंता की बात यह है कि बलात्कार की हर वारदात को हमारा समाज पीड़िता की इज्जत से जोड़ कर क्यों देखता है? दुखद पहलू यह कि पढ़ा-लिखा तबका भी इसे 'इज्जत की लूट' का नाम देता है। यह विचारने की ज़रूरत है कि क्या ऐसी वारदात से पीड़िता की इज्जत वाकई तार-तार हो जाती है? यहां पर यह सवाल सिर उठाने लगता है कि यह 'इज्जत' क्या है? क्या पुरुष और महिलाओं की इज्जत के मापदंड अलग-अलग होते हैं? लूटनेवाला तो वहशी होता है, दरिंदा होता है। अगर वह दरिंदा 'होमो' हुआ तो जाहिर तौर पर उसकी दरिंदगी का शिकार पुरुष होगा। क्या उस स्थिति में भी हम कहेंगे कि फलां पुरुष की इज्जत लूट ली गई? पुरुष वर्चस्व वाला यह समाज कतई ऐसा नहीं कहेगा। बल्कि वह इस दरिंदगी को 'अप्राकृतिक यौनाचार' का नाम देगा।

इस समाज में मर्दों को परंपराओं से यह सीख मिलती रही है कि हर स्त्री पर किसी न किसी मर्द का अधिकार है। यह अलग बात है कि इस मर्द के चेहरे वक़्त के साथ बदलते जाते हैं। यानी शादी से पहले स्त्री पिता के अधिकार क्षेत्र में होती है और शादी के बाद यह सत्ता हस्तांतरित कर दी जाती है स्त्री के पति के नाम। इस सत्ता के मद में चूर भारतीय मर्द बलात्कार को इज्जत से जोड़ कर इसलिए भी देखता है कि उसे लगता है बलात्कार की घटना (वारदात नहीं) उसके अधिकार क्षेत्र में किसी दूसरे पुरुष द्वारा किया गया हमला है। यानी स्त्री की मानसिक पीड़ा को नज़रअंदाज कर मर्द इस वारदात को अपनी प्रतिष्ठा पर किया गया हमला मानता है। उसे इस वारदात से अपनी पराजय का बोध होता है।

ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं। हाल के वर्षों में हुए सांप्रदायिक दंगों को याद करें। महिलाओं के साथ हुई दुराचार की वारदातें ताज़ा हो जाएंगी। आख़िर दंगाइयों के निशाने पर महिलाएं क्यों आईं? इसीलिए कि दंगाई मर्दों की निगाह में किसी ख़ास कौम को पराजयबोध कराने का सबसे सरल तरीका यही दिखा।


दूसरी तरफ, इस समाज में स्त्री भी अपने आप को किसी और की थाती मानकर बढ़ने देती है। घर में ही उसे शोषण सहने की सीख दी जाती है। उसे स्त्रीयोचित तमाम गुण सिखाये जाते हैं। उसे बताया जाता है कि तेज़ दौड़ना, खिलखिलाकर हंसना या फिर पलटकर सवाल करना स्त्रीयोचित नहीं होता। यानी, हर क़दम पर एक नये स्त्रीयोचित गुण से उसके व्यक्तित्व को निखारा जाता है। इन सारी नसीहतों को घुट्टी की तरह पीकर वह संकोच, दब्बूपन और कायरता के सांचे में ढलती हुई जीती-जागती मूर्ति बनती है। हमारा मर्दवादी समाज अपनी गढ़ी हुई इस मूर्ति पर सीना तानकर कहता है, देखो, उसमें लज्जा है, शील है, सहनशीलता है।

Thursday, April 10, 2008

विरोध की भाषा

विरोध की एक भाषा
मुझे भी आती है
पर सिर उठाने से पहले
मुझे बार-बार समझाती है
और मैं,
जो हाथ में थाम
ज़बान का खंजर
उठ खड़ा हुआ था
अभी-अभी अचानक
मिमियाता हुआ-सा
घुस जाता हूं अपने खोल में
रूह कांप जाती है
और कांप जाता है पंजर
हर तरफ दिखता है
सिर्फ़ उजाड़ और बंजर।

सोचा था,
मेरी आवाज़ पर जुटेंगे लोग
पर देखो
गिद्धों की टोली में
मैं अकेला
और निरीह खड़ा हूं
खड़ा भी कहां
सिर्फ़ पड़ा हूं
सड़ा हूं, सड़ा हूं और सचमुच सड़ा हूं
पर अपनी बात पर
अब भी अड़ा हूं
कि थके-हारे लोग
आज नहीं तो कल
जुटेंगे
हमें तोड़ने की चाह रखनेवाले
ख़ुद टूटेंगे
अपनी इसी आस्था के कारण
उनकी छाती में मैं
कील-सा गड़ा हूं
मुझे समझाने वाली भाषा के लिए
मैं चिकना घड़ा हूं
महसूस करता हूं
कि किसी भी साजिश के ख़िलाफ
वाकई मैं बड़ा हूं
देखो यारो, देखो
एक बार फिर मैं
पूरी ढिठाई के साथ खड़ा हूं।

Monday, April 7, 2008

तेरे साथ का मतलब


जाने ये कैसी अजब रात है
भीतर गहरे दबी कोई बात है

नाकाम हैं तुम्हें भूलने की कोशिशें
कि कोशिशों पर यादों का घात है

तू अपनी धुन में काम किये चला चल
मत सोच कि ज़िंदगी शह या कि मात है

मेरी हिम्मत का राज़ तू भी सुन
मेरी पीठ पर अपना ही हाथ है

वाकई मौत से भी भिड़ता रहूंगा मैं
जिंदगी में जब तलक तेरा साथ है

Tuesday, April 1, 2008

डेथ नोट

मैं जानता हूं

मेरे मर जाने के बाद भी
ऐसा कुछ नहीं होगा
जो मैं चाहता रहा हूं
बरसों से।
मेरी आंखों में दौड़ रहा है
इन दिनों लगातार जो रीतापन
यह हृदय की स्पंदनों में
बरसों से छुपा था
यह अलग बात है
कि तुम सब बेखबर थे।

मेरी मौत
पता नहीं कितनी नयी बातों को
जन्म देगी
दोस्त/दुश्मन के शिनाख्त की
एक बिल्कुल नयी तहजीब
तुम्हें बताएगी।
लेकिन इससे पहले
जरूरी है कि तुम ख़ुद को पहचानो।
यही बात तुमसे नहीं होगी।

दरअसल साथी,
ख़ुद को पहचानने के लिए
ज़रूरी है ख़ुद से जिरह करना
और जब भी करोगे तुम ख़ुद से जिरह
अपने को पाओगे
मेरे क़त्ल की साजिश में शरीक।

साथी,
यह काली रात
और गहराती जा रही है।
सुबह की उम्मीद में
जगा रहना चाहता हूं मैं
पर तुम्हारे भीतर जो डर
गहराया है
उसे दूर करने के लिए
बेहद ज़रूरी है कि मैं मर जाऊं।
शायद मेरा मरना
तुम्हारे भीतर एक नया इनसान गढ़ सके।

साथी,
कल तुम्हारा जन्मदिन है
तुम्हारे इस जन्मदिन पर मैं
अपनी ज़िंदगी
तुम्हें दे देना चाहता हूं।
मेरे अक्षरों से उगेंगे अगर
लाल रंग
उसे सिंदूर की तरह लगा लेना।
बड़ी खूबसूरत लगती हो तुम,
तुम्हारी हंसी, तुम्हारी बोली
तुम्हारा रूठना, तुम्हारा रोना
तुम्हारा गुस्साना, तुम्हारा...
तुम्हारे भीतर जो कुछ भी है
वाकई, सब बहुत प्यारा है
और जब भी
तुम्हारे भीतर देखता हूं
वहां मेरी आकृति भी दिखती है
जो पूरी बेशर्मी के साथ
तुम्हारे भीतर बैठी है
और तुम उसे बेतरह प्यार कर रही हो।
ऐसे में मेरा अस्तित्व नंगा होता है।
और अपनी नंगई से घबराकर
मैं सचमुच मर जाना चाहता हूं।

गर मेरा मर जाना यह साबित कर सके
कि सचमुच मैं ज़िंदा आदमी था
तो मुझे, मर ही जाना चाहिए
मेरी आंखों में तुम तैर रही हो
मेरी रगो में तुम दौड़ रही हो
मेरे विचारों को पापा का प्यार
रौंद रहा है
और मेरी मृत्यु के रास्ते में
मेरा डर खड़ा है
पापा और तुम्हारा रूप लिये हुए।

Monday, March 31, 2008

पाश की निगाह में भगत सिंह





"जिस दिन उसे फांसी लगी उसकी कोठरी से उसी दिन लेनिन की एक किताब बरामद हुई थी जिसका एक पन्ना मोड़ा हुआ था देश की जवानी को उसके आखरी दिन के मोड़े हुए पन्ने से आगे बढ़ना है।"
-पाश

भगत सिंह और पाश की शहादत की तारीख़ एक ही है पर वर्ष अलग। वैसे, पंजाबी कवि पाश अपने जीवनकाल में क्रांतिकारी देशभक्त भगत सिंह को बेहद पसंद करते रहे होंगे, इसमें शक़ नहीं। 23 मार्च 1982 को पाश ने भगत सिंह को कुछ यूं याद किया था :

उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाकी की
देश सारा बचा रहा बाक़ी
उसके चले जाने के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाज़ें जम गईं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चिहरे से आंसू नहीं, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे संबंधित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था।

Friday, March 28, 2008

पाश का 'लोहा'

आप लोहे की कार का आनंद लेते हो
मेरे पास लोहे की बंदूक है
मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो
लोहा जब पिघलता है
तो भाप नहीं निकलती
जब कुठाली उठाने वालों के दिल से
भाप निकलती है
तो पिघल जाता है
पिघले हुए लोहे को
किसी भी आकार में
ढाला जा सकता है

कुठाली में देश की तकदीर ढली होती है
यह मेरी बंदूक
आपके बैंकों के सेफ;
और पहाड़ों को उल्टाने वाली मशीनें,
सब लोहे के हैं।
शहर से उजाड़ तक हर फ़र्क
बहिन से वेश्या तक हर अहसास
मालिक से मुलाजिम तक हर रिश्ता,
बिल से कानून तक हर सफ़र,
शोषणतंत्र से इंकलाब तक हर इतिहास,
जंगल, कोठरियों व झोपड़ियों से पूछताछ तक हर मुक़ाम
सब लोहे के हैं।

लोहे ने बड़ी देर इंतज़ार किया है
कि लोहे पर निर्भर लोग
लोहे की पंत्तियां खाकर
ख़ुदकुशी करना छोड़ दें
मशीनों में फंसकर फूस की तरह उड़नेवाले
लावारिसों की बीवियां
लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास
कपड़े तक भी ख़ुद उतारने के लिए मजबूर न हों।

लेकिन आख़िर लोहे को
पिस्तौलों, बंदूकों और बमों की
शक्ल लेनी पड़ी है
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
(लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।

अनुवाद - चमनलाल

Tuesday, March 25, 2008

पाश को मार कर भी नहीं मार सके आतंकवादी

यह हैं पाश। अवतार सिंह संधू 'पाश'। आज से बीस साल पहले (23 मार्च 1988 को) खालिस्तानी आतंकवादियों ने इनकी हत्या कर दी थी। इस पंजाबी कवि का अपराध (?) यही था कि यह इस जंगलतंत्र के जाल में फंसी सारी चिड़ियों को लू-शुन की तरह समझाना चाह रहे थे। चिड़ियों को भी इनकी बात समझ आने लगी थी। और वे एकजुट होकर बंदूकवाले हाथों पर हमला करने ही वाली थीं कि किसिम-किसिम के चिड़ियों का हितैषी मारा गया। उस वक्त पाश महज 37 बरस के थे।

वैसे, यह बेहद साफ़ है कि कोई भी किसी की हत्या तभी करता है, जब उसे सामनेवाले से अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आता है। यानी, कोई भी हत्या डर का परिणाम है। पाश की क़लम से डरे हुए आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। पाश बेशक ज़िंदादिल इनसान थे। उनकी जिंदादिली की पहचान हैं उनकी बोलती-बतियाती कविताएं। पाश की कविताएं महज कविताएं नहीं हैं, बल्कि विचार हैं। उनका साहित्य पूरी दृष्टि है। ज़िंदगी को क़रीब से देखने का तरीका है। कुल मिलाकर वह ऐसी दूरबीन है जिससे आप दोस्तों की खाल में छुपे दुश्मनों को भी पहचान सकते हैं।
पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। इसी वक़्त वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और बाद में नागा रेड्डी गुट से भी। पर ख़ुद को हिंसा से हमेशा दूर रखा। 1970 में वह जेल में थे और वहीं से उन्होंने कविता संकलन 'लौह कथा' छपने के लिए भेजा। इस संकलन में उनकी कुल 36 कविताएं थीं। इस संकलन के आने के साथ ही अवतार सिंह संधू 'पाश' पंजाबी कवियों में 'लाल तारा' बन गये। 1971 में पाश जेल से छूटे। इस बीच जेल में ही उन्होंने ढेर सारी कविताएं लिखीं और हस्तलिखित पत्रिका 'हाक' का संपादन किया। 1974 में पाश के 'उड्डदे बाजां मगर', 1978 में 'साडे समियां विच' और 1988 में 'लड़ांगे साथी' कविता संकलन छपकर आये। अपने 21 वर्षों की काव्य-यात्रा में पाश ने कविता के पुराने पड़ रहे कई प्रतिमानों को तोड़ा और अपने लिए एक नयी शैली तलाशी। संभवतः अपने इसी परंपराभंजक तेवर के कारण पाश ने लिखा है :

तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाये
तुम्हें पता नहीं
मैं कविता के पास कैसे जाता हूं
कोई ग्रामीण यौवना घिस चुके फैशन का नया सूट पहने
जैसे चकराई हुई शहर की दुकानों पर चढ़ती है।

पाश की कविताओं में विषय-वैविध्य भरपूर है, किंतु उनके केंद्रीय भाव हमेशा एक हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि पाश ने जिंदगी को बहुत करीब से देखा। तहजीब की आड़ में छूरे के इस्तेमाल को उन्होंने हमेशा दुत्कारा, साथ ही मानवता और उसकी सच्चाई को उन्होंने गहरे आत्मसात किया। पाश के लिए ये पंक्तियां लिखते हुए उनकी कविता 'प्रतिबद्धता' याद आती है, जिसका करारा सच प्रतिबद्धता के नाम पर लिखी ढेर सारी कविताओं को मुंह चिढ़ाता है :

हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है
जैसे हुक्के में निकोटिन होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर
कोई मलाई जैसी चीज होती है।

गुड़ की चाशनी, हुक्के की निकोटिन और महबूब के होठों की मलाई - ये बिंब पाश जैसे कवि को ही सूझ सकते हैं। यह अलग बात है कि कविता के नासमझ आलोचक इसे बेमेल बिंबों की अंतर्योजना कह कर खारिज करना चाहें। पाश ने खेतों-खलिहानों में दौड़ते-गाते, बोलते बतियाते हुए हाथों की भूमिका भी सीखी :

हाथ अगर हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
'हीर' के हाथों से 'चूरी' पकड़ने के लिए ही नहीं होते
'सैदे' की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
'कैदो' की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं।

इस अंदाज में अपनी बात वही कवि रख सकता है जिसे पता हो कि वह कहां खड़ा है और सामनेवाला कितने पानी में है :

जा, तू शिकायत के काबिल होकर आ
अभी तो मेरी हर शिकायत से
तेरा कद बहुत छोटा है।

मनुष्य और उसके सपने, उसकी ज़िंदादिली और इन सबसे भी पहले अपने आसपास की चीजों के प्रति उसकी सजगता पाश को बहुत प्यारी थी :

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
लोभ और गद्दारी की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता।
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब कुछ सहन कर लेना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट जाना
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...।

पाश के लिए कविता प्रेम-पत्र नहीं है और जीवन का अर्थ शारीरिक और भौतिक सुख भर नहीं। बल्कि इन सबसे परे पाश की दृष्टि एक ऐसे कोने पर टिकती है, जिसे आज के भौतिकतावादी समाज ने नकारने की कोशिश की है - वह है उसकी आज़ादी के सपने। आज़ादी सिर्फ तीन थके रंगों का नाम नहीं और देश का मतलब भौगोलिक सीमाओं में बंधा क्षेत्र विशेष नहीं। आज़ादी शिद्दत से महसूसने की चीज़ है और देश, जिसकी नब्ज भूखी जनता है, उसके भीतर भी एक दिल धड़कता है। इसलिए पाश हमेशा इसी सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखते हैं।

वैसे तो पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं। विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है। पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी। पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी। यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है :

यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...


पाश ने अपने पहले काव्य संग्रह का नाम रखा था - लौहकथा। इस नाम को सार्थक करनेवाली उनकी कविता है लोहा। कवि ने इस कविता में लोहे को इस क़दर पेश किया है कि समाज के दोनों वर्ग सामने खड़े दिखते हैं। एक के पास लोहे की कार है तो दूसरे के पास लोहे की कुदाल। कुदाल लिये हुए हाथ आक्रोश से भरे हैं, जबकि कारवाले की आंखों में पैसे का मद है। लेकिन इन दोनों में पाश को जो अर्थपूर्ण अंतर दिखता है, वह यह है कि :

आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।

पाश की कविताओं से गुज़रते हुए एक खास बात यह लगती है कि उनकी कविता की बगल से गुज़रना पाठकों के लिए मुश्किल है। इन कविताओं की बुनावट ऐसी है, भाव ऐसे हैं कि पाठक बाध्य होकर इनके बीच से गुज़रते हैं और जहां कविता ख़त्म होती है, वहां आशा की एक नई रोशनी के साथ पाठक खड़े होते हैं। यानी, तमाम खिलाफ़ हवाओं के बीच भी कवि का भरोसा इतना मुखर है, उसका यकीन इतना गहरा है कि वह पाठक को युयुत्सु तो बनाता ही है, उसकी जिजीविषा को बल भी देता है।

मैं किसी सफ़ेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूं
मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है।
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है।
तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में ग़लत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं
अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं
अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है।
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंज़रों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की।

उन्होंने अपनी लंबी कविता 'पुलिस के सिपाही से' में स्पष्ट कहा है :

मैं जिस दिन रंग सातों जोड़कर
इंद्रधनुष बना
मेरा कोई भी वार दुश्मनों पर
कभी ख़ाली नहीं जाएगा।
तब फिर झंडीवाले कार के
बदबू भरे थूक के छींटे
मेरी ज़िंदगी के घाव भरे मुंह पर
चमकेंगे...


और इसके लिए बेहद ज़रूरी है :

मैं उस रोशनी के बुर्जी तक
अकेला पहुंच नहीं सकता
तुम्हारी भी जरूरत है
तुम्हें भी वहां पहुंचना पड़ेगा...


1974 में प्रकाशित 'उड्डदे बाजां मगर' में पाश की निगाह बेहद पैनी हो गयी है और शब्द उतने ही मारक। इसी संकलन की कविता है - हम लड़ेंगे साथी ।

हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं से
हम चुनेंगे साथी ज़िंदगी के सपने


पाश ने देश के प्रति अपनी कोमल भावना का इज़हार पहले काव्य संग्रह की पहली कविता में किया है

भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं...

पर पाश इस भारत को किसी सामंत पुत्र का भारत नहीं मानते। वह मानते हैं कि भारत वंचक पुत्रों का देश है। और भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश कहते हैं :

इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है...


नवंबर '84 के सिख विरोधी दंगों से सात्विक क्रोध में भर कर पाश ने 'बेदखली के लिए विनयपत्र' जैसी रचना भी की। इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी।

मैंने उम्रभर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफ़सोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें ...
... इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो।

पाश की हत्या ने उनकी एक कविता की तरफ लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। 'मैं अब विदा लेता हूं' शीर्षक इस कविता में पाश ने अपनी सामाजिक भूमिका का उल्लेख करते हुए मृत्यु से 10 साल पहले ही अपनी अंतिम परिणति का ज़िक्र किया था :

...तुम यह सब भूल जाना मेरे दोस्त
सिवाय इसके
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का भी जी लेना मेरे दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।

संभवतः यही एक ऐसी कविता थी, जिसमें पाश अपने व्यक्तिगत जीवन से संबोधित थे और अपने आसपास के निकटस्थों के लिए लिखा था। सचमुच, उनके भीतर जिंदगी को उसके गले तक जीने की बलवती इच्छा थी।

Thursday, March 20, 2008

बैटलफ़ील्ड फॉर लीडरशिप ऑन गूगल

फागुन के नशे में BLOG का कोई दूसरा अर्थ नहीं दिख रहा साथियो। हां, कुछ रोज़ पहले तक यह मुझे और मेरे जैसे कई साथियों को ब्यूटिफुल लिटरेचर ऑन गूगल का अर्थ भी देता रहा है। ऐसा नहीं कि यह अर्थ ख़त्म हो गया है। पर फिलहाल, जब होली सिर चढ़कर बोलने को तैयार हो तो मन का थोड़ा भटक जाना स्वाभाविक है। यही सोचकर भटकने दिया इस मन को और एक बीत चुके प्रकरण पर थोड़ी चुटकी ली है। क्षमायाचना सहित पेश है 'बुरा न मानो होली है' : इलेक्ट्रॉनिक कलम हाथ में थाम लेने से कोई अगुवा या मठाधीश नहीं बन जाता। स्वयंभू मठाधीश तो हम हो सकते हैं, पर स्वीकृत नहीं। इसके लिए नायकों वाले गुण भी दिखने चाहिए।
कलम से गर्दन नहीं टूटती। यह अहसास होने के बाद अपनी करनी पर गर्दन झुक जरूर जाती है। और एक सच तो यह कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, बोलते हैं वही हमारा चेहरा दूसरों के सामने बनाता है/बिगाड़ता है। किसी ने लिखा है :

मैं आदमी को शक्ल-ओ-सूरत से नहीं
शब्दों से जानता हूं
क्योंकि सामने जब शब्द होते हैं
तो आदमी नहीं, आदमी के ईमान बोलते हैं।

और अंत में फिर वही धारणा...