बहुत दिनों बाद
उठा है कोई शोर
कि आदमी भूल जाना चाहता है
अपनी वर्जनाओं को
जीतना चाहता है
नियति की लड़ाई
इसलिए, ओ कृष्ण
पूछता हूं सच बताना
कब तक मोहिनी मुस्कान से
छलते रहोगे तुम?
कब तक युधिष्ठिर
शब्दजाल रचते रहेंगे?
अब कोई भीष्म
क्यों पैदा नहीं होता?
क्यों नहीं बन पाता
कोई सुदामा
अब तुम्हारा मित्र?
क्यों काट लिये जाते हैं
एकलव्य के अंगूठे?
कभी जाति के नाम पर
तो कभी दान के नाम पर
कोई कर्ण
छला जाता है बार-बार?
आज भी
उसकी शक्ति का
अवमूल्यन होता रहा है
पर तय है कि
सत्ता के लोभ में
जातीय संघर्ष को आंच देना
धर्म की परिभाषा नहीं बन सकता।
सचमुच कृष्ण,
बेहद मुश्किल है अब चुप रहना।
माना,
कि अपने देश में
धृतराष्ट्रों की परंपरा रही है,
दुर्योधनों की कोई कमी नहीं।
फिर भी
इस बेमियादी यातना का अंत
कहीं तो होगा?
सोचो कृष्ण,
जब सत्ता पाने के लिए ही
लड़ी जाती हों लड़ाइयां,
फैलाये जा रहे हों
तरह-तरह के विद्वेष।
तीन रंगों के झंडे का सिर
मवादों से भर गया हो,
इसके चक्र के अर्थ
राजनीति के गलियारे में
भटकने लगे हों।
तो क्या
मुमकिन है
कि आदमी की आस्था
बरकरार रहे?
उठा है कोई शोर
कि आदमी भूल जाना चाहता है
अपनी वर्जनाओं को
जीतना चाहता है
नियति की लड़ाई
इसलिए, ओ कृष्ण
पूछता हूं सच बताना
कब तक मोहिनी मुस्कान से
छलते रहोगे तुम?
कब तक युधिष्ठिर
शब्दजाल रचते रहेंगे?
अब कोई भीष्म
क्यों पैदा नहीं होता?
क्यों नहीं बन पाता
कोई सुदामा
अब तुम्हारा मित्र?
क्यों काट लिये जाते हैं
एकलव्य के अंगूठे?
कभी जाति के नाम पर
तो कभी दान के नाम पर
कोई कर्ण
छला जाता है बार-बार?
आज भी
उसकी शक्ति का
अवमूल्यन होता रहा है
पर तय है कि
सत्ता के लोभ में
जातीय संघर्ष को आंच देना
धर्म की परिभाषा नहीं बन सकता।
सचमुच कृष्ण,
बेहद मुश्किल है अब चुप रहना।
माना,
कि अपने देश में
धृतराष्ट्रों की परंपरा रही है,
दुर्योधनों की कोई कमी नहीं।
फिर भी
इस बेमियादी यातना का अंत
कहीं तो होगा?
सोचो कृष्ण,
जब सत्ता पाने के लिए ही
लड़ी जाती हों लड़ाइयां,
फैलाये जा रहे हों
तरह-तरह के विद्वेष।
तीन रंगों के झंडे का सिर
मवादों से भर गया हो,
इसके चक्र के अर्थ
राजनीति के गलियारे में
भटकने लगे हों।
तो क्या
मुमकिन है
कि आदमी की आस्था
बरकरार रहे?