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Monday, March 23, 2009

हर तरह की गैरबराबरी के खिलाफ


कि
सी व्यक्ति को क्या सिर्फ इसलिए याद कर लेना चाहिए कि आज उसका जन्मदिन है; या इसकी कोई दूसरी वजह भी हो? सच बात तो यह है कि हर दिन कई-कई लोगों का जन्मदिन होता है, लेकिन हम सिर्फ उन्हें ही याद करते हैं जिन्होंने ऐसा कोई सकारात्मक काम किया होता है, जिससे देश-काल उनका ऋणी हो गया हो। इस अर्थ में यह हमारा नैतिक दायित्व होता है कि हम उन्हें याद करें। पर लोहिया के लिए यह तर्क अधूरा लगता है। उन्हें सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि यह हमारा नैतिक दायित्व है बल्कि इसलिए भी किया जाना चाहिए कि उन्होंने हमें जीने के कई सार्थक और नये मानदंड भी दिये।

हमें डॉ. लोहिया को इसलिए भी याद रखना चाहिए कि आज भी समाज को लोहिया की जरूरत है। कोई भी समाज जब थक-हार जाता है, उसके तेवर चुकने लगते हैं, उसकी ऊर्जाएं शेष होने लगती हैं
लोहिया नास्तिक थे और गांधी पूर्णतः आस्तिक। गांधी की ईश्वरीय आस्तिकता ऐसी गहरी थी कि मृत्यु के क्षणों में भी उनके आराध्य का नाम उनकी जुबान पर था। किंतु लोहिया ऐसी किसी भी ईश्वरीय शक्ति के प्रति पूरी तरह नास्तिक थे। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वे आस्थावान नहीं थे। उनकी आस्था उन्हें गहरे जोड़ती थी - मनुष्यों से, इनसानियत से। उनकी यह आस्था इतनी गहरी थी कि सान्निपातिक क्षणों में भी वे जब-तब भूखे-लाचारों के बारे में बड़बड़ा उठते थे। उनकी आस्था थी - समाज और सुदृढ़ समाज के तेवरों में।
तो लोगों के जीवन में निरर्थकता पनप जाती है और यह वह क्षण होता है जब समाज के भटक जाने की गुंजाइश और आशंका बढ़ जाती है। ऐसी हर गुंजाइश और ऐसी हर आशंका को निराशा के तौर पर महसूसा जा सकता है। ऐसे समय में डॉ लोहिया का आप्त वाक्य 'निराशा के कर्तव्य' और इस शीर्षक के तहत उनका विचार हमें हमारी जिम्मेवारियों का अहसास करता है और निराशा के उन क्षणों में भी दृढ़ता के साथ चलते रहने की प्रेरणा देता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ. लोहिया आजाद भारत के सबसे प्रखर और मौलिक राजनीतिक चिंतक होने के साथ ही एक संघर्षशील, कल्पनाशील व सतत सक्रिय राजनेता थे। जरा देखिए कि लोहिया ने कैसी राजनीतिक पार्टी की कल्पना की थी - 'मैं चाहता हूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाये कि वह पिटती रहे, पर डटी रहे। आखिर वह कौन-सी ताकत थी, जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही? समाजवादी आंदोलन के पिछले 25 वर्ष के इतिहास को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है, वह यह कि यह पिटना नहीं जानते। जब भी पिटते हैं, धीरज छोड़ देते हैं। मन टूट जाता है। और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के लिए तैयार हो जाते हैं।'

उनके इसी विचार को अगर हम और विस्तारित अर्थ 'संस्था' के रूप में देखें, तो इसकी प्रासंगिकता आज और जबर्दस्त नजर आयेगी। आज की सामिजिक संस्था मूल्यहीनता के दौर से गुजर रही है। इस इकाई के परिचित चेहरे आत्ममुग्ध और आत्मरति के शिकार हो गये हैं। आत्मश्लाधाओं में जीते ये लोग इतने व्यक्तिवादी होते गये हैं कि हमारी अपनी संस्कृति हाशिए पर आ गयी है।

समाजवादी व्यवस्था के हिमायती थे डॉ. लोहिया। उनकी कामना थी कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की जगह पर नयी समाजवादी व्यवस्ता की स्थापना हो। निजी पूंजी और विषमताओं के खिलाफ लोहिया की यह दृष्टि युगांतकारी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के संदर्भ में उनका निष्कर्ष था कि यह व्यवस्था औद्योगिक क्रांति से निकली सभ्यता की संतान है। उनकी दृष्टि यह भी कहती थी कि यह सभ्यता लगातार मरणासन्न है और इसकी जगह पर नयी सभ्यता की स्थापना हर हाल में होनी है। डॉ. लोहिया के भीतर ऐसी आशंका 1950-51 में पैदा हो गयी थी और उन्होंने उसी समय अपने मित्रों के आमंत्रण पर की गयी अमेरिका की यात्रा में कई जगहों पर अपनी इस आशंका को व्यक्त भी किया था। 13 जुलाई 1951 को न्यूयॉर्क के आईडल वाइल्ड हवाई अड्डे पर उन्होंने कहा, 'अमेरिकी जनता के प्रति मेरे मन में बहुत प्यार है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के बारे में, जिसकी चरम सीमा अमेरिका है, मेरे मन में कई संदेह हैं। मैं यहां यह देखने आया हूं कि प्रमुख क्या है - प्रेम या संदेह?' 35वें दिन अपनी अमेरिका यात्रा के समापन पर उन्होंने कहा, 'अमेरिकी जनता के प्रति मेरे अनुराग में वृद्धि हुई है, पर वर्तमान सभ्यता के प्रति मेरे मन में पल रही आशंका भी बड़ी हो गई है।' उसी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार कहा था - 'मैं फोर्ड और स्टालिन में कोई फर्क नहीं देखता। दोनों बड़े पैमाने के उत्पाद, बड़े पैमाने की प्रौद्योगिकी और केंद्रीकरण पर विश्वास करते हैं, जिसका मतलब है कि दोनों एक ही सभ्यता के पुजारी हैं।' अपनी आशंका को और पुख्ता ढंग से डॉ. लोहिया ने कहा, 'हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि यह सभ्यता मर चुकी है, किंतु लाश के रूप में अगले 50 वर्षों तक बनी रह सकती है और युद्धादि की क्रूर घटनाओं को जन्म दे सकती है।'

औद्योगिक क्रांति से उपजी हुई इस सभ्यता के बारे में जो संशय डॉ. लोहिया के भीतर पनपे थे, उन संशयों को वर्तमान में मूर्त रूप में देखा जा सकता है। बताने की जरूरत नहीं कि यूरोपीय और अमेरिकी समाज इन दिनों प्रयोजनहीनता का दंश झेल रहा है। वहां के दो-तीन दशकों के साहित्य प्रयोजनहीनता और उद्देश्यहीनता को अभिव्यक्त कर रहे हैं। वहां 'विचारों के अंत' और 'इतिहास के अंत' की बातें मुखर हो रही हैं। फ्रांस के लेखक जूनियन ग्रीन का कहना है कि 'पेरिस बुझ रहा है और इसकी सारी रोशनियां मद्धिम पड़ गयी हैं।' साहित्य अकादेमी की संगोष्ठी में भाग लेने के लिए भारत आयी वहां की युवा लेखिका लोरांस कोसे ने एक लेख में कहा था, 'आज फ्रांस के साहित्य में विचारों के अंत की अभिव्यक्ति, विचार मात्र के प्रति तिरस्कार, उद्देश्यों के प्रति संदेह, अप्रतिबद्धता और अपने भीतर सिमटने की प्रवृति के रूप में दिखाई पड़ रही है। अब न तो गुस्से से भरे लेखक हैं, न न्याय के लिए लड़ने वाले लेखक और न ही मातृ भाव बढ़ानेवाले लेखक हैं। यहां तक कि उनमें लिखने का उत्साह नहीं है।' यह हाल सिर्फ फ्रांस का नहीं है, पश्चिमी सभ्यता के लगभग सभी देशों का है। वहां के सारे दर्शन और तमाम विचार फीके पड़ते जा रहे हैं। यही वजह है कि बुद्धजीवियों की निगाह में इतिहास का अंत होता जा रहा है। इतिहास का ऐसा अंत तो दुखद है ही, लेकिन गौरतलब बात यह है कि इसकी वजहें वही हैं, जो डॉ. लोहिया ने काफी पहले बतायी थीं।

लोहिया नास्तिक थे और गांधी पूर्णतः आस्तिक। गांधी की ईश्वरीय आस्तिकता ऐसी गहरी थी कि मृत्यु के क्षणों में भी उनके आराध्य का नाम उनकी जुबान पर था। किंतु लोहिया ऐसी किसी भी ईश्वरीय शक्ति के प्रति पूरी तरह नास्तिक थे। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वे आस्थावान नहीं थे। उनकी आस्था उन्हें गहरे जोड़ती थी - मनुष्यों से, इनसानियत से। उनकी यह आस्था इतनी गहरी थी कि सान्निपातिक क्षणों में भी वे जब-तब भूखे-लाचारों के बारे में बड़बड़ा उठते थे। उनकी आस्था थी - समाज और सुदृढ़ समाज के तेवरों में। और उनकी यह आस्था नारी के समक्ष जाकर श्रद्धा का रूप ले लेती थी। प्रसाद की भाषा में कहा जाये तो 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो।' उन्होंने समाज में नारी के समान अधिकार के लिए, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए जो तेवर अपनाया, वह निस्संदेह परंपराभंजक ही था। उनका मानना था कि सीता-सावित्री नहीं, बल्कि द्रौपदी इस देश की प्रतिनिधि नारी है। उनकी कामना थी कि द्रौपदी की तेजस्विता इनमें पुनः स्थापित हो और रजिया की तरह वे पुनः सत्ता की केंद्र बनें।

डॉ. लोहिया एक बार अपने सहयोगी लाडली मोहन निगम के साथ लक्ष्मीबाई के किले की खूबसूरती देखने गये थे। वहां वे रानी लक्ष्मीबाई की घोड़े पर सवार प्रतिमा को अपलक देखते रहे। उसके नीचे खुदे पत्थर पर जब उनकी निगाह पड़ी तो उन्होंने देखा कि वहा लिखा था, 'नारी जाति की गौरव महारानी लक्ष्मीबाई।' इसे पढ़कर लोहिया आग-बबूला हो उठे। कहने लगे, 'इस देश के राजा इतने राक्षसी रहे हैं, यह मैं कभी कल्पना नहीं कर सकता। यहां नारियों को सम्मान कभी नहीं मिल सकता; यह वाक्य लिखने वाला शासक वही होगा, जो समता और बराबरी की बात करता है, लेकिन वह कभी समता और बराबरी दे नहीं सकता है। क्या झांसी की रानी नारियों की ही प्रतिनिधि थीं? क्योंकि जानता हूं कि देश अगर झांसी की रानी को देश का गौरव समझना चाहता, तो पुरुषोचित अहं को ठेस पहुंचती।' थोड़े समय के विराम के बाद उन्होंने फिर कहा, 'मैं इस बात को पूरे देश भर में कहूंगा। और अगर इस गलती को नहीं सुधारा गया, तो मैं इस पत्थर को तोड़ दूंगा'

समाज में महिलाओं की तात्कालीन स्थिति उन्हें सालती थी। वे चाहते थे कि समाज पर पुरुष का जो वर्चस्व कायम है वह टूटे। यहां महिला और पुरुष की समान भागीदारी हो।
दरअसल डॉ. लोहिया हर तरह की गैरबराबरी के खिलाफ थे और उनकी 'सप्त क्रांति' में भी पूरी दुनिया में जारी नस्ल, वर्ण, भाषा, क्षेत्र, लिंग, अर्थ और धर्म पर आधारित भेदभाव मिटाने पर जोर दिया गया है। क्योंकि इनके रहते मानव समाज कभी भी एक आदर्श समाज नहीं बन सकता। लोहिया ने यह सब सिर्फ कहा या लिखा ही नहीं, बल्कि इनके विरुद्ध संघर्ष खड़ा करने का निरंतर प्रयास भी करते रहे। चूंकि यह संघर्ष आज भी न सिर्फ अधूरा है, बल्कि आज की दुनिया शायद इन भेदभावों के चलते और भी तनावग्रस्त व समस्याग्रस्त नजर आ रही है, इसलिए लोहिया की प्रासंगिकता आज और बढ़ गयी है।

Thursday, March 12, 2009

मुकम्मल तस्वीर की तलाश में तेंदुलकर

लेखक नरेंद्र पाल सिंह का आत्मकथ्य :

जानने वाले मुझे एनपी के नाम से पुकारते हैं। पत्रकारिता में कदम जमाए दो दशक से ज्यादा हो चुके हैं। करियर का आगाज बतौर खेल पत्रकार किया लेकिन फिर टेलीविजन पत्रकारिता में कई साल गुजारने के बाद अब क्रिकगुरुऑनलाइन डॉट कॉम में बतौर सलाहकार संपादक काम कर रहा हूं। करियर यात्रा के दौरान अमर उजाला, आजतक, एनडीटीवी और सहारा समय जैसे संस्थानों में बड़ी भूमिकाओं में काम किया। वैसे, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कई साल गुजारने के बावजूद खेल मेरे लिए जुनून ही है। उसमें मुझे ज़िंदगी का अक्स दिखता है। दरअसल, सीएलआर जेम्स की इस बात पर मुझे पूरा भरोसा है कि खेल शून्यता में नहीं खेला जाता है, यह समाज का आईना बन हमारे सामने आता है। यही वजह है कि अपने लेखन मैं समाज के हर हद को छूना चाहता हूं। इसलिए, मेरे लिए खेल ज़िंदगी है...

चिन तेंदुलकर क्राइस्टचर्च के एएमआई स्टेडियम के बीचों बीच सजी 22 गज की स्टेज पर अपने रंग बिखेर कब के लौट चुके हैं। धोनी की टीम इंडिया का कारवां क्राइस्टचर्च से उड़ान भरता हुआ अब हेमिल्टन पहुंच गया है। लेकिन,क्रिकेट चाहने वालों के जेहन में सचिन रमेश तेंदुलकर के बल्ले से निकली शतकीय पारी अभी भी जारी है। दर्द से कराहते तेंदुलकर क्रीज पर एक नयी गेंद का सामना करने के लिए फिर स्टांस ले रहे हैं। उनके बल्ले से बहते स्ट्रोक एक स्लाइड शो की तरह निगाहों के सामने से गुजर रहे हैं। एक बार नहीं बार बार।

इसकी वजह ये नहीं है कि न्यूजीलैंड में पहला वनडे शतक बनाते तेंदुलकर की इस 163 रनों की नाबाद पारी ने भारत को एक और आसान जीत दिलायी। इसलिए भी नहीं कि ये तेंदुलकर को वनडे में अपने ही 186 रनों के शिखर से आगे ले जाने की दहलीज पर ले आयी। इसलिए भी नहीं कि इस पारी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में तेंदुलकर के बल्ले से शतकों के शतक के ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगा दी है।

दरअसल, ये पारी आंकडों और रनों के मायावी खेल से कहीं बहुत आगे जाकर क्रिकेट की स्टेज पर तेंदुलकर होने के अक्स तलाशती एक और बेजोड़ पारी है। इस पारी में क्रीज पर मौजूद एक बल्लेबाज नहीं है। ये अपनी साधना में लीन एक कलाकार है। सिर्फ इस फर्क के साथ कि उसके हाथ में ब्रश की जगह बल्ला थमा दिया गया है। कैनवास की जगह क्रिकेट के मैदान ने ली है। अपने खेल में डूबकर उसका भरपूर आनंद लेते हुए तेंदुलकर नाम का ये जीनियस इस कैनवास पर एक और तस्वीर बनाने में जुटा है। ये रनों, रिकॉर्ड और लक्ष्य से पार ले जाती तस्वीर है।

क्रिकेट की पूरी दुनिया वैसे उसकी रची हर पेंटिग को सराहती है। लेकिन, हर दूसरे कलाकार की तरह सचिन को भी शायद अपनी एक मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। बीस साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो अपने स्ट्रोक्स को रन में, रनों को शतक में और शतकों को नए शिखर में तब्दील कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस मुकम्मल तस्वीर की खोज खत्म नहीं हुई है। वो लगातार जारी है।

इसलिए,बीस साल लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद वो आज भी गेंद की रफ्तार, उसकी दिशा और लंबाई को गेंदबाज के हाथ से छूटने के साथ ही पढ़ लेते हैं। कदमों के मूवमेंट की हर बारीकी को तय करते हैं। क्रीज को बॉक्सिंग रिंग में तब्दील कर एक चैंपियन मुक्केबाज की तरह सधे हुए फुटवर्क के साथ स्ट्रोक्स के लिए सही पोजिशन ले लेते हैं। अपने बेहद सीधे बल्ले के मुंह को आखिरी क्षण में खोलते हैं। गेंद कभी लाजवाब कारपेट ड्राइव की शक्ल में तो कभी हवा में सीधे सीमा रेखा की ओर रुख करती है। क्राइस्टचर्च में इसी तरह उनके बल्ले से निकले 16 चौकों और पांच आसमानी छक्कों के बीच यह अहसास बराबर मजबूत होता रहा कि इस कलाकार के अवचेतन में गहरे कहीं कोई मुकम्मल तस्वीर दर्ज है। वो अपने स्टोक्स के सहारे इसे उकेरने में जुटा है। लेकिन, तस्वीर अभी भी पूरी नहीं हो पायी है। ये उसकी अपनी खड़ी की गई चुनौती है। उसे इससे पार जाना है। लेकिन, इतिहास का सच तो यही है कि कलाकार कभी अपनी मुकम्मल तस्वीर तक पहुंच ही नहीं पाता। वो केवल उसे रचने में जुटा रहता है। बस, इसे रचने के लिए वो सही मौके और सही क्षण का इंतजार करता है। ये मौका और ये लम्हा आते ही उसकी साधना शुरु हो जाती है। क्राइस्टचर्च में भी तेंदुलकर उसी मौके और लम्हे में पहुंच गए थे, जहां से उनकी अधूरी तलाश आगे बढ़ रही थी। इसीलिए ये पारी हमारे ही जेहन में जारी नहीं है। वो भी उस पारी को अभी जी रहे हैं। मुकाबले के बाद अपनी पारी का जिक्र करते तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। यहां वो क्रिकेट की बात करते हैं। विकेट की भी और माहौल की भी। लेकिन, यही जोर देकर कहते हैं कि यहां आपको इस मैदान के आकार के मुताबिक अपनी बल्लेबाजी और स्ट्रोक्स को ढालना था। तेंदुलकर ने खुद को बखूबी ढाला भी। अपनी पहचान बन चुके स्ट्रेट ड्राइव को कुछ देर के लिए भुलाते हुए उन्होंने बैटिंग क्रीज के समानांतर दोनों ओर रन बरसाए। एक नहीं,दो नहीं 129 रन। अपनी क्रिकेट को लेकर तेंदुलकर की यही सोच उन्हें क्रिकेट के रोजमर्रा के गणित से बाहर ले जाता है। ये तेंदुलकर को क्रिकेट के दायरे से पार ला खड़ा करती है।

शायद सोच का यही धरातल है कि इसी मैच में युवराज की क्लीन स्ट्राइकिंग पावर, धोनी के ताकत भरे स्ट्रोक्स और रैना की बेहतरीन टाइमिंग से भी रनों की बरसात होती है। लेकिन, सचिन के जीनियस के सामने ये कोशिशें हाशिए पर छूट जाती हैं। इतना ही नहीं, इस नयी टीम इंडिया के ये नाम, उम्र और अनुभव में ही पीछे नहीं छूटते। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तेंदुलकर की इस ऊंचाई के सामने बौने दिखने लगते हैं।

तेंदुलकर आज भी टीम की रणनीति में अपनी भूमिका तय कर उसे मंजिल तक पहुंचाते हैं। कभी दूसरे छोर पर सहवाग के साथी के तौर पर तो कभी सहवाग के जल्द आउट होने पर आक्रमण की बागडोर हाथ में लेते हुए। कभी एक छोर को संभाल अपने नौजवान साथियों को क्रिकेट के गुर के साथ साथ जरुरी हौसला थमाते हुए। वो धोनी की इस टीम इंडिया के एक सदस्य हैं। उनकी विनिंग कॉम्बिनेशन की एक मजबूत कड़ी। लेकिन, इसके बावजूद वो टीम में सबसे अलग पायदान पर हैं। सचिन इस टीम के एक सदस्य, एक खिलाड़ी भर नहीं है। सचिन एक युग में तब्दील हो चुके हैं। धोनी की इस विश्व विजयी टीम में वो एक एवरेस्ट की मानिंद खड़े हैं, जिसके इर्द गिर्द बाकी खिलाड़ी पठार की तरह दिखायी देते हैं।

फिर, युग में तब्दील हो चुके तेंदुलकर आज की घटना नहीं हैं। सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने 90 के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। तेंदुलकर एक ऐसी टीम में शुमार किए गए, जो समय, काल और देश की हदों से बाहर खड़ी थी। शायद, एक ड्रीम टीम में ही कई युगों को एक साथ समेटा जा सकता है। दिलचस्प है कि 80 के दशक में डेनिस लिली के बाद बीते 25 सालों में तेंदुलकर की अकेले खिलाड़ी हैं, जिन्हें इस टीम में जगह मिल पायी। जॉर्ज हैडली से लेकर एवरटन वीक्स तक विव रिचर्ड्स लेकर ब्रायन लारा तक विक्टर ट्रपर से लेकर वॉली हेमंड तक, नील हार्वे से लेकर ग्रैग चैपल तक, डेनिस कॉम्टन से लेकर ग्रीम पॉलक तक-तेंदुलकर सब को पीछे छोड़ते हुए टीम में दाखिल हुए। लेकिन, ये फैसला करते वक्त ब्रैडमैन किसी दुविधा में नही थे। उनका कहना था-ये सभी बल्लेबाज अपने प्रदर्शन में किसी बल्लेबाज से कम नहीं हैं। न आंकडों में कहीं उन्नीस ठहरते हैं। सभी खेल के महान नायक हैं। लेकिन, तेंदुलकर अलग हैं। उनके पास किले की तरह मजबूत डिफेंस हैं। साथ ही जरुरत के मुताबिक रक्षण को आक्रमण में बदलने की महारथ। और इससे भी आगे उनकी कंसिस्टेंसी। तेंदुलकर में अपनी झलक देखते ब्रैडमेन का कहना था कि उनकी बल्लेबाजी परिपूर्ण है।

बेशक, ब्रैडमैन की निगाहों में तेंदुलकर एक दशक पहले ही एक परिपूर्ण बल्लेबाज बन गए थे। लेकिन शायद तेंदुलकर को अभी भी परिपूर्णता की तलाश है। अपनी मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। अपनी इस कोशिश के बीच वो सिर्फ एक बल्लेबाज और क्रिकेटर नहीं रह जाते। तेंदुलकर एक सोच की शक्ल ले लेते हैं। एक नजरिए में तब्दील हो जाते हैं। ये संदेश देते हुए कि क्रिकेट की किताब अब तेंदुलकर की नजर से भी लिखी जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे सर डॉन ब्रैडमैन ने क्रिकेट को परिभाषित किया। शायद यही सचिन रमेश तेंदुलकर होने के मतलब है।