जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

Hindi Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

 
जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
'जिरह' की किसी पोस्ट पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Sunday, January 26, 2014

इतना भी बुरा नहीं यह वक्त, जितना सब कोसते हैं

इतना भी बुरा नहीं यह वक्त, जितना सब कोसते हैं
कल की कल देखेंगे, हम तो बस आज की सोचते हैं

बेफिक्र होकर तू सपने पाल, भर ले अपनी उड़ान पूरी
अपनी जिद पर अड़े हम, शायद कुछ ज्यादा सोचते हैं

दिल्ली में तो रोशनी है, पर गांव का है मेरे बुरा हाल
कैसे छोड़ आए बूढ़े बाबा को, रात-दिन हम सोचते हैं

चमचमाती सड़कों से भली अक्सर लगती हैं पगडंडियां
थोड़े पैसे जुट जाएं तो टिकट कटाने की हम सोचते हैं

पहाड़ों-सी रात गुजरी, गुजर गया जो था गया-गुजरा
चलिए अब संभलने की राह ढूंढें, आप क्या सोचते हैं

बड़े शहर में दर्द बड़ा है, बेफिक्र होकर तुम लौटो गांव
मिलकर दुख साझा करेंगे, यहां हमसब ऐसा सोचते हैं

Friday, January 24, 2014

खूबसूरत शहर की यह अजब बात है

खूबसूरत शहर की यह अजब बात है
संभलो यारो, कदम-दर-कदम घात है।

मेरे दिए खून से बची जिसकी जिंदगी
वही मुझसे पूछता है, तेरी क्या जात है।

खुद ही सबको लड़नी है अपनी लड़ाई
किसका भरोसा, अब किसका साथ है।

तू सिर्फ अपना काम किए चला चल
मत सोच जिंदगी शह या कि मात है।

मेरी हिम्मत का राज अब तू भी सुन
मेरी पीठ पर यारो, अपना ही हाथ है।

Thursday, January 23, 2014

दिल की बात कहो जब, बंद किवाड़ समझते हैं

दिल की बात कहो जब, बंद किवाड़ समझते हैं
अजब अहमक हैं वो, तिल को ताड़ समझते हैं

कितनी बार कहा कि खुली हवा में घूम आएं
घर में बैठे हैं और घर को तिहाड़ समझते हैं

तकलीफें तो हैं, पर मन है अब भी हरा-भरा
उनसे क्या कहूं जो मुझको उजाड़ समझते हैं

यह उसका असर नहीं, आपमें बसा वह डर है
कि उसके मिमियाने को भी दहाड़ समझते हैं

डूबने से डरता था, पर जब उतरा तो डूबकर तैरा
इंसानी तमीज देखो कि राई को पहाड़ समझते हैं

Tuesday, January 21, 2014

मन की बात बोलना कोई मर्ज नहीं

मन की बात बोलना कोई मर्ज नहीं
मुझसे कुछ भी बोलो, कोई हर्ज नहीं

सीधेपन पर मेरे तुम मत करो शक
घटनाएं याद हैं, नाम कोई दर्ज नहीं

हां यह सही है कि मैं जिद्दी हूं बहुत
उतारूंगा सारे, रखूंगा कोई कर्ज नहीं

जरूरी नहीं कि तुम रखो मेरा ख्याल
लगे जो मजबूरी, वह कोई फर्ज नहीं

अनगढ़ रास्तों पर मैंने चलना सीखा
पर अपनायी अब तक कोई तर्ज नहीं

ला दे मुझको तू अपनी सारी उदासी
कि यह हक है मेरा, कोई अर्ज नहीं

Monday, January 20, 2014

गले मिल कर जो दबा देते हैं गला
जरा सोचो कैसे करेंगे आपका भला।

जाने का उसके नहीं कोई अफसोस
माहौल रहेगा खुशनुमा, शैतान टला।

छांछ भी पीता है वह फूंक-फूंककर
अब सतर्क है बहुत, दूध का जला।

अब भी मुझे प्यारे हैं सारे दोस्त
यह बात है जुदा कि सबने छला।

इतना तल्ख न हो, ऐसा खौफ न पाल
कि खुशियां भी दिखने लगें तुम्हें बला।

तू हंसता है तो लगता है बेहद अच्छा
देख जलाने वालों का दिल अब जला।

अपनी बेगुनाही बड़ी देर तक समझाई
अब जो समझना है समझ, मैं चला।

दूसरों का दोष क्यों ढोता है दिल पर
देख, कहा मेरा मान, खुद को न गला।

शिकवा किसी से, न शिकायत कोई
यारो! सीख गया मैं, जीने की कला।

खुद की सांसों से जब लिहाफ गरम होता है
पस्त पड़ती है ठंड, शरीर नरम होता है।

अजब शहर है दिल्ली, रौनक देखो यहां की
जिससे भी मिलो, सगे होने का भरम होता है।

अजब हाल है, शक होने लगा है खुद पर भी
क्योंकि अब तो हर मर्द में एक हरम होता है।

वह संस्कार गुम हो गया है हर घर से कहीं
शायद जानवरों में वह अब शरम बोता है।

राम-कृष्ण, नानक, पैगंबर, ईसा सब चुप हैं
उनके भक्तों के इस देश में अब धरम रोता है।

Monday, January 6, 2014

मां माने सम्मान

यह कोई नयी बात नहीं
यह सब जानते हैं
कि मां माने आश्वस्ति
मैंने यह तब जाना था अपने छुटपन में ही
जब बहुत कुछ नहीं था हमारे पास
पर थी मेरी एक मां
जिसके आंचल में मेरी हर परेशानी
और जरूरत का हल भरा होता था

कुछ और बरस बाद
जब मेरे भीतर पलने लगे थे सपने
पसरने लगे थे कई-कई शौक, जिन्हें पूरा करने में
मां की झोली झुंझला जाती थी
पर पता नहीं कहां से पूरी हो जाती थीं मेरी तमाम फरमाइशें
तब मैंने जाना कि मां माने सिर्फ आश्वस्ति नहीं
बल्कि धीरज, सुख, संतोष और त्याग भी

यह भी सब जानते थे पर मैं नहीं
कि मां का लिखा ‘अपने लिए’
नहीं था सिर्फ अपने लिए, वह था सबके लिए
यह भी तब जाना, जब मेरे सिर पर बिछने वाली चांदनी
नियति की आग के हवाले हो गई
तब से मेरे भीतर की ‘चांदनी आग है’
और मैं जान चुका हूं कि मां माने आग

वह करती रही ‘घर की तलाश में यात्रा’
और बुन गई एक प्यारा सा घर
बसा गई उसमें ढेर सारा प्यार
समर्पण के रेशे, रिश्तों का संसार
इसके लिए बेशक उसने बहुत कुछ सहा
आंसू सुखाए, पसीना बहा
चुप रह कर कह गई ‘जो अनकहा रहा’
तब मैंने जाना कि मां माने
घर, रिश्ता, समाज और संसार

और यह बात है 1994 के दिसंबर की
जब हमें छोड़ गई हमारी मां
सबने कहा कवयित्री शैलप्रिया चली गईं
तब मुझे भान हुआ कि मां माने सिर्फ मां नहीं
बल्कि एक कवयित्री का ठीहा, एक अस्तित्व यानी शैलप्रिया

और अब आज, जब बरसों बाद
मैंने खोल कर पलटे हैं मां के पन्ने
पन्नों से झरते दिखें है कई-कई लोग
उन्हें सादर याद करते हुए
तो लगा ‘शेष है अवशेष’ अपने पूरे संदर्भों के साथ
और तब एक नया अर्थ खुला
कि मां माने सिर्फ शैलप्रिया नहीं
बल्कि मां माने सम्मान।