यह कोई नयी बात नहीं
यह सब जानते हैं
कि मां माने आश्वस्ति
मैंने यह तब जाना था अपने छुटपन में ही
जब बहुत कुछ नहीं था हमारे पास
पर थी मेरी एक मां
जिसके आंचल में मेरी हर परेशानी
और जरूरत का हल भरा होता था
कुछ और बरस बाद
जब मेरे भीतर पलने लगे थे सपने
पसरने लगे थे कई-कई शौक, जिन्हें पूरा करने में
मां की झोली झुंझला जाती थी
पर पता नहीं कहां से पूरी हो जाती थीं मेरी तमाम फरमाइशें
तब मैंने जाना कि मां माने सिर्फ आश्वस्ति नहीं
बल्कि धीरज, सुख, संतोष और त्याग भी
यह भी सब जानते थे पर मैं नहीं
कि मां का लिखा ‘अपने लिए’
नहीं था सिर्फ अपने लिए, वह था सबके लिए
यह भी तब जाना, जब मेरे सिर पर बिछने वाली चांदनी
नियति की आग के हवाले हो गई
तब से मेरे भीतर की ‘चांदनी आग है’
और मैं जान चुका हूं कि मां माने आग
वह करती रही ‘घर की तलाश में यात्रा’
और बुन गई एक प्यारा सा घर
बसा गई उसमें ढेर सारा प्यार
समर्पण के रेशे, रिश्तों का संसार
इसके लिए बेशक उसने बहुत कुछ सहा
आंसू सुखाए, पसीना बहा
चुप रह कर कह गई ‘जो अनकहा रहा’
तब मैंने जाना कि मां माने
घर, रिश्ता, समाज और संसार
और यह बात है 1994 के दिसंबर की
जब हमें छोड़ गई हमारी मां
सबने कहा कवयित्री शैलप्रिया चली गईं
तब मुझे भान हुआ कि मां माने सिर्फ मां नहीं
बल्कि एक कवयित्री का ठीहा, एक अस्तित्व यानी शैलप्रिया
और अब आज, जब बरसों बाद
मैंने खोल कर पलटे हैं मां के पन्ने
पन्नों से झरते दिखें है कई-कई लोग
उन्हें सादर याद करते हुए
तो लगा ‘शेष है अवशेष’ अपने पूरे संदर्भों के साथ
और तब एक नया अर्थ खुला
कि मां माने सिर्फ शैलप्रिया नहीं
बल्कि मां माने सम्मान।
यह सब जानते हैं
कि मां माने आश्वस्ति
मैंने यह तब जाना था अपने छुटपन में ही
जब बहुत कुछ नहीं था हमारे पास
पर थी मेरी एक मां
जिसके आंचल में मेरी हर परेशानी
और जरूरत का हल भरा होता था
कुछ और बरस बाद
जब मेरे भीतर पलने लगे थे सपने
पसरने लगे थे कई-कई शौक, जिन्हें पूरा करने में
मां की झोली झुंझला जाती थी
पर पता नहीं कहां से पूरी हो जाती थीं मेरी तमाम फरमाइशें
तब मैंने जाना कि मां माने सिर्फ आश्वस्ति नहीं
बल्कि धीरज, सुख, संतोष और त्याग भी
यह भी सब जानते थे पर मैं नहीं
कि मां का लिखा ‘अपने लिए’
नहीं था सिर्फ अपने लिए, वह था सबके लिए
यह भी तब जाना, जब मेरे सिर पर बिछने वाली चांदनी
नियति की आग के हवाले हो गई
तब से मेरे भीतर की ‘चांदनी आग है’
और मैं जान चुका हूं कि मां माने आग
वह करती रही ‘घर की तलाश में यात्रा’
और बुन गई एक प्यारा सा घर
बसा गई उसमें ढेर सारा प्यार
समर्पण के रेशे, रिश्तों का संसार
इसके लिए बेशक उसने बहुत कुछ सहा
आंसू सुखाए, पसीना बहा
चुप रह कर कह गई ‘जो अनकहा रहा’
तब मैंने जाना कि मां माने
घर, रिश्ता, समाज और संसार
और यह बात है 1994 के दिसंबर की
जब हमें छोड़ गई हमारी मां
सबने कहा कवयित्री शैलप्रिया चली गईं
तब मुझे भान हुआ कि मां माने सिर्फ मां नहीं
बल्कि एक कवयित्री का ठीहा, एक अस्तित्व यानी शैलप्रिया
और अब आज, जब बरसों बाद
मैंने खोल कर पलटे हैं मां के पन्ने
पन्नों से झरते दिखें है कई-कई लोग
उन्हें सादर याद करते हुए
तो लगा ‘शेष है अवशेष’ अपने पूरे संदर्भों के साथ
और तब एक नया अर्थ खुला
कि मां माने सिर्फ शैलप्रिया नहीं
बल्कि मां माने सम्मान।
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