यह है मणिराम। हिंदी में एमए पास का दावा करनेवाले इस रिक्शेवाले से मेरी मुलाकात तकरीबन 10 दिन पहले हुई थी। पिछले शनिवार को नवभारत टाइम्स के कॉलम 'आंखों देखी' में इसे जगह मिली। हालांकि आज जब मैं इसे अपने ब्लॉग पर पब्लिश कर रहा हूं, तीखी धूप को कल रात हुई बारिश बहा ले गई है। पर मणिराम से मिलने के बाद जो कसक पैदा हुई मन में उसका तीखापन अब भी बरकरार है।
-अनुराग अन्वेषी
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खी धूप है। दफ्तर जाने के लिए सोसाइटी से बाहर निकला हूं। रिक्शावाला पूछता है - कहां जाना है? मैंने चुटकी ली, जाना तो है बहुत दूर, कहां पहुंचा सकते हो? रिक्शावाला हाजिरजवाब निकला, कहता है जिन्हें मंजिल का पता होता है, वह दूसरों के सहारे के बगैर ही पहुंचते हैं। मुझे अच्छी लगी उसकी हाजिरजवाबी। बात जारी रखता हूं। पूछता हूं कि गर्मी का क्या हाल है? तपाक से कहता है, लोग पिघल रहे हैं, भगवान नहीं। मन ही मन चौंकता हूं, पर उसके सामने जाहिर नहीं होने देता। थोड़ी चुप्पी बन गई। फिर मैंने उससे पूछा, सिगरेट जलाना है, माचिस है तुम्हारे पास? छूटते ही उसने कहा, जलाते हो सिगरेट, जलते हो आप, क्यों साब? कैसा है यह हिसाब?अब मुझे लगा कि उससे उसका परिचय तो पूछ ही लूं। उसने बताया मध्यप्रदेश का रहने वाला है वह। नाम है मणिराम। हिंदी में एमए कर रखा है उसने। पर कोई रोजगार नहीं मिला, तो अपने एक परिचित के साथ चला आया गाजियाबाद के वसुंधरा में। मैट्रिक तक पढ़ी उसकी पत्नी दूसरों के घरों में बर्तन-बासन, झाड़ू-पोंछा करती है। वह खुद रिक्शा चलाता है। दोनों मिलकर महीने में तकरीबन 5000 रुपये कमा लेते हैं।
उसके पढ़े-लिखे होने की बात सुन लेने के बाद इस व्यवस्था के प्रति मन इतना खट्टा हो जाता है कि मेरे पास कहने को कुछ नहीं रह जाता। बावजूद, जबर्दस्ती बातचीत जारी रखता हूं। किस दौर की कविता तुम्हें ज्यादा पसंद है, मैं पूछता हूं मणिराम से। पर सच है कि मैं उसका परिचय सुनने के बाद अपने से जिरह करने लग गया हूं। मैं भी हिंदी में एमए पास हूं। सोचता हूं वह पढ़ाई-लिखाई में जितना भी गया गुजरा होगा तो भी कई ऐसे लोगों से बेहतर होगा जो आज उसका दस गुणा कमा रहे हैं। पर मणिराम अपनी स्थिति से संतुष्ट है। उसे जिंदगी से शिकायत नहीं। एक तरफ मेरे जैसे लोग हैं जो शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठे हैं। जरा सी कोई बात हुई नहीं कि काट खाने को दौड़ेंगे। मैं पसीने से तरबतर हो चुका हूं। जेब से रुमाल निकालता हूं चेहरा पोंछने के लिए और मणिराम इस भरी दोपहर में पूरे इत्मीनान के साथ रिक्शा खींच रहा है। जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां सुनाता हुआ - हिमाद्री तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्वला, स्वतंत्रता पुकारती, अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो-बढ़े चलो... साब जी मंडी आ गयी। यहीं मेरी तंद्रा टूटती है। रिक्शे से उतर कर मणिराम को पैसे देता हूं। ऑटो वाला मेरे इशारे पर रुक चुका है। ऑटो में बैठ कर जा रहा हूं, पर मुझे लगता है कि मैं अब भी रुका हूं मणिराम के पास, अपनी खुशियां, अपनी संतुष्टि तलाशता हुआ। लगता है, एमए बहुत दूर की बात है, मैंने तो अभी जिंदगी की पहली कक्षा की भी पढ़ाई नहीं की।