Wednesday, February 27, 2008
शरीफ़ शहरी की शान
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अंतर
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Sunday, February 24, 2008
महाभिनिष्क्रमण के बाद
चूंकि तुम्हारा उदर भरता रहा
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 11:09 PM 4 प्रतिक्रियाएं
भ्रूण का वक्तव्य
मां,
तुम ख़ुद स्त्री हो
इसलिए जानती हो
इस कटखने समाज में
पल-बढ़ रही स्त्री का दर्द।
चूंकि इस वक्त मैं
तुम्हारे भीतर पल रही हूं
इसलिए जान भी रही हूं
समाज के इस कड़वे स्वाद को
और आज
तुम्हारी उस हताशा को भी
मैंने महसूसा
जब तुम्हें पता चला
कि तुम्हारे भीतर पलता भ्रूण
स्त्रीलिंगी है।
ओ मां,
मैं जानती हूं
कि घर की माली स्थिति
खराब है
और मेरे लिए दहेज की चिंता,
समाज के बिगड़ैलों से
मेरी हिफाजत का तनाव...
से घबराकर तुम
मुझे जन्म देना नहीं चाहती
लेकिन मां,
शायद यह
तुम्हें नहीं पता होगा
कि मैं
तुम्हारे अंतरंग क्षणों की साक्षी
बन चुकी हूं
तुम मेरे उस दर्द को भी
नहीं जान सकती
जब तुमने पिता से कहा
कि तुम्हारे गर्भ में
लड़की है और उसे तुम जन्म...
लेकिन मां,
इन सबके बावजूद
मुझे अपनी कोख से जन्म दो न!
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 2:53 PM 1 प्रतिक्रियाएं
Friday, February 8, 2008
मां को समर्पित पांच कविताएं
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परिवेश : एक
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ओ मां,
तुम्हें याद होगा
कि बादलों की गड़गड़ाहट से घबराकर मैं
हमेशा सिमट जाया करता था
तुम्हारी गोद में।
और यहीं सिमटे हुए
बहुत बार
कई-कई लड़ाइयां लड़ी हैं मैंने
और कई बार पीट चुका हूं
उस राक्षस को भी
जो तुम्हारी कहानियों की परियों को
सताया करता था।
संभव है,
तुम्हें याद न हो
पर मैंने तुम्हें बताया था
कि एक रात मैं अचानक
और मेरे हाथों
कंस की हत्या हो गयी।
सचमुच मां,
अब समझता हूं
वह तुम्हारी गोद का जादू था
कि मैं निःशंक होकर
बैठे-बैठे लड़ लिया करता था
अपनी तमाम काल्पिनक दुःश्चिंताओं से
अपने को तमाम लोककथाओं का
नायक समझता हुआ
धीरे-धीरे बड़ा होता गया
तुम्हारी कहानियों के नायकों के
सारे पोल खुलते गये
उनके खल पात्रों को
जीवन में कई बार देखा।
हां मां,
उम्र की इस यात्रा से
गुज़रते हुए
चीज़ों को बहुत क़रीब से देखा है
बातें बहुत साफ हुई हैं
अब मैं
अपने बच्चों को
तुम्हारी कहानी सुनाता हूं
कि कैसे पैसे के अभाव में तुम
घुलती रही ताउम्र
इस जंगलतंत्र में
विवश हुए लोग हैं
इन वर्षों में
बहुत जटिल होती गयी है ज़िंदगी
समूचे मानदंड बदल चुके हैं
अमन और शांति
दूर के ढोल हैं
नेताओं के बोल हैं
आदमी की क़ीमत
मिट्टी के मोल है।
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ओ मां,
बचपन से तुम्हें
अपने पास देखता रहा
और फैलता गया मैं
समूचे आकाश में।
फिर रास्ते के पहाड़
राई बन गये
और मैं
राई से पहाड़।
तुमने कहा
नियति नहीं है पहले से तय।
और सचमुच
लड़ता गया मैं
अपनी तमाम वर्जनाओं से
दुश्चिंताओं के घेर से बाहर आकर
मैंने तय की अपनी नियति
और बुनता गया ढेरों सपने।
लेकिन अब भी
अकेले में अक्सर
एक आदमकद सच्चाई
दबोचती है मुझे
सवालों के कटघरे में
बींध जाते हैं
मेरे तमाम विचार
कि दूसरों के भोग का अवशेष
मैं झेलूं कब तक?
प्रश्नों की सीमा में बंधा आदमी
हमेशा आदमी नहीं रह जाता
पर तय है
कि रेगिस्तान में
मृगमरीचिका का संबल
जीवन देता है कई-कई बार।
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छीजने लगता है मन
व्यवस्थाएं होने लगती हैं
उलट-पलट
धूल-गर्द और गर्म हवाओं को भी
फांकते हुए
नहीं मिल पाता है
जीने का कोई सही अर्थ
तो फैलने लगता है
अवश विद्रोह।
नींद खुलते ही
हर रोज़ देखता हूं
बिस्तर पर दर्द से लेटी मां।
रसोईघर से जूझती
बूढ़ी दादी।
और पिता के ललाट पर
परेशानियों की लकीरें।
नहीं देख पाया कभी
कि सुबह की शुरुआत हुई हो
मां की हंसी से।
इसीलिए भी
चंद लम्हें
आंखें बंद किये पड़े रहता हूं दोस्तो
कि शायद कभी
कल्पनाओं में आ जाये
पिता का हंसता चेहरा
और मां की वेदनारहित हंसी।
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बातें सीमित हैं
चंद पारिभाषिक शब्दों से
बताता चलता हूं
तुम्हारी पीड़ा।
कि तुम
सूने आकाश को ताकती हो सिर्फ़
कि तुम्हें कविताएं
बेमानी लगने लगी हैं
लेखों में तुम्हारी कोई रुचि नहीं रही
कि हम सब
तुम्हारी परेशानियों में
घुल रहे हैं।
पापा की पेशानी
भाई का चेहरा
और छोटी की आंखें
नहीं देख पाता अब।
सिर्फ़ चाहता हूं
कि तुम्हारी ताज़गी लौट आये
तो लिखूं एक लंबी कविता
अजनबी होते शब्दों को
फिर प्यार करूं।
ओ मां,
कैसे हो जाती हैं
स्थितियां इतनी अनियंत्रित
कि कोई सही शब्द नहीं सूझता?
कि शब्दों के बाज़ार में?
सही शब्द नहीं मिलते?
कि दिनचर्या बंध जाती है?
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जीवन के संदर्भ में
अपने ख़याली दर्शन पर
कई-कई बार आत्ममुग्ध हुआ हूं मैं।
अपने ज्ञान की शेखी बघारता
न जाने कितनी बार
मैंने मौत को लताड़ा है।
स्वजन के मृत्युदंश से आहत
कई लोगों को
बड़ी आसानी से
समझाया/बहलाया/फुसलाया है।
लेकिन आज स्थितियां बदल गईं
ज़िंदगी और मौत से
रस्साकसी करते अपनी मां को देख।
जबकि जानता हूं
कि एक दिन
छोड़ जाना हैं हमें
सारा कुछ
बन जाना है इतिहास
फिर कभी कोई पलटेगा
हमारी कतरनों को
और तार-तार होकर
निकलेगी हमारी कविता।
सचमुच, कतरनों की हिफ़ाज़त के लिए
चिंतित हूं मैं।
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 11:55 PM 7 प्रतिक्रियाएं
Thursday, February 7, 2008
युद्धरत आम आदमी
इस बार यह नदी
पूरी सूख गयी
या यकायक
पूरी नदी ही बह गयी?
मैं देख रहा हूं
हमारे पांवों तले की ज़मीन
खिसक रही है
हमारे हिस्से की रोटी
हमारी थाल से ग़ायब हो रही है
हमारी हर चीज़
जो हमें बहुत प्यारी थी
उस पर बिचौलियों ने
क़ब्ज़ा जमा लिया है।
पेट की धमनभट्ठी में
हम झुलस रहे हैं
और तिसपर हमारी अंतड़ियां
हमसे जो सवाल कर रही हैं
उनका एक भी कोई सही जवाब
नहीं है हमारे पास।
हमारे शरीर की हर ऐंठन
हमारे इर्द-गिर्द एक तिलिस्म
बुन रही है
जिसका तोड़ और जिसका हिसाब
हम ख़ुद भूलते जा रहे हैं।
हमारी थाल से
अगर रोटियां ग़ायब हो रही हैं
तो यह क़तई नहीं साबित होता
कि हमारे मलिकान
बहुत चालाक हैं।
अगर ठंड भरी सुबह में
हमारी ललाट पर
पसीने चुहचुहा रहे हैं
तो यही साबित हो रहा है
कि हमने
बेजा मेहनत की है।
जाड़े में बहता
यह पसीना
बहुत दुर्गंधित है साथी
असह्य है एयरकंडिशंड में
बैठे लोगों का होना।
हमारी हर ज़रूरत पर
पिस्सू की तरह चिपके ये लोग
बड़े सुघड़ भले दिख रहे हैं
पर इनकी असलियत
कुछ और है।
गुलाब की खेती करने वाले
ये बहरुपिये
हम सबों के बीच
मतभेद बो रहे हैं।
इसलिये अपनी तमाम चुनौतियों के बीच
थोड़ा समय निकाल यह सोचें
कि हमारी कैक्टस हुई
ज़िंदगी का राज़
कहां छुपा है।
धनिए की महक
और मकई के बाले
बेटे की तुतलाती ज़बान
और पत्नी की पनीली आंखें
ये सारा कुछ छोड़कर
हम आये थे यारो
अपने प्यारे से गांव से
सोचा था
शहर में
सपनों की बगीया लगेगी
और गांव में बेटा जवान होगा
मगर
कुपोषण के शिकार हुए
दोनों के दोनों।
यारो, बहुत सह लिया
अब चलो
हमारी ज़रूरतें
जिनके लिए मज़ाक़ हैं
अपनी करनी से
उनके चेहरे तराश दें
उन्हें बतायें
कि हम अपने पसीने से
तुम्हारी ईंटें जोड़ सकते हैं
तो हमारे पसीने में
तुम्हारे मकान
बह भी सकते हैं।
यारो,
हम युद्धरत आम आदमी हैं
अपनी ज़रूरतों को
अपनी आंखों से देखेंगे
और तमाम रणनीतियां भी
अब अपनी बनायी हुई होंगी।
पहले की ग़लती
हमें फिर नहीं दुहरानी
कि बकरियों को
बुरी निगाह से बचाने के लिए
उन्हें हम कसाईबाड़े में रख दें।
हमारे शरीर वज्र के बने हों
और हमारे इरादों में
फौलाद साफ-साफ झलके
इसके लिए ज़रूरी है
कि युद्धरत हो जाओ।
हर ख़ास को अब
आम बना देना है
ख़ास बने रहने की चाह
बहुत बड़ी कमज़ोरी है
यही से शुरू होता है
व्यवस्था के ढांचों का
ढीला पड़ते जाना।
यक़ीनन, इस लंबी यात्रा में
हमें कई घाटियों से गुज़रना है
जहां कई तीखे मोड़ हैं
लेकिन चिंता की कोई बात नहीं
सुरक्षा के सारे इंतज़ाम
कर लिये गये हैं
तुम बेख़ौफ़ बढ़े चलो।
सुबह का सूरज
अब पीली रोशनी नहीं फेंकेगा
दहकते हुए आदमी की
हां में हां मिलायेगा वह
तुम इतमीनान में रहो
कि हर सुबह अब सूरज
पहले तुम्हारी झोपड़ियों में उगेगा।
सिपाहियों की बंदूकें
घबराई हैं यह सोचकर
कि कल जब तुम
अचानक कमर कस लोगे
उनके ख़िलाफ और पूछोगे
बेवजह ढाये गये ज़ुल्म की वजह
तो क्या जवाब देंगी वे।
यारो, अब उदास होने की ज़रूरत नहीं
क्योंकि सचमुच
जीवन के हर मोर्चे पर
युद्धरत है आम आदमी।
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 6:01 PM 2 प्रतिक्रियाएं
Tuesday, February 5, 2008
कलमुंही का पत्र
बिंदु
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 9:59 PM 4 प्रतिक्रियाएं
समीकरण
तुमने कहा 'दुनिया'
और मुझे कसाईबाड़े की याद आई
तुमने कहा 'जनता'
और मुझे
लाचार मेमनों की याद आई।
यक़ीन मानो,
अब और कोई भी शब्द
तुम्हारे मुंह से
सुनने की तबीयत नहीं।
क्योंकि प्रजातंत्र जब हाशिये की चीज़ हो जाए
और तुम हमें
सिखाने लगो
कि दो और दो
पांच होते हैं
तो दुनिया और जनता की बात
तुम्हारे मुंह से सुनना
भद्दे मज़ाक की तरह लगती है।
यह घटिया मज़ाक
तुमने बहुत दिनों तक कर लिया
और हर बार हमने
ज़हर का घूंट पीया।
लेकिन कहते हैं न
कि जब आक्रोश की आंखें
सुलगती हैं
तो समुद्र को भी
रास्ता देना पड़ता है।
इसलिए देखो,
हम सब तहज़ीब में
परिवर्तन कर रहे हैं
भजन-कीर्तन छोड़कर
अब आग का समर्थन कर रहे हैं।
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 12:08 AM 0 प्रतिक्रियाएं
Monday, February 4, 2008
महानगर
इस कस्बे में
समझौता नहीं होता
किसी चीज़ की
कोई सीमा नहीं।
सिर्फ़
मतलब के साथ
भटकते लोग हैं
सिपाही हैं, सलाहकार हैं
पटवारी हैं, बनवारी हैं
और हर तरफ़
ज़िंदगी
आदमी पर भारी है।
यहां
न कोई किसी का बाप है
न कोई किसी की मां
न कोई भाई है
और न कोई बहन
दरअसल,
सभी अपने सपने में
मस्त हैं
इंसानियत का खंभा
ध्वस्त है।
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 12:21 AM 0 प्रतिक्रियाएं
Sunday, February 3, 2008
बंद घड़ी के कांटे
मेरा कमरा
जिसमें एक विशेष गंध
तैरती है
जो दूसरे कमरों में नहीं।
मुझे बेहद लगाव है
कमरे में टंगी
मोनालिसा से
ठहरी हुई गंध से
खिड़की से दिखता
आसमान का टुकड़ा
जैसे सारा यथार्थ
वहीं कहीं अटका होगा
और मैं ढूंढ़ने लगता हूं
उस टुकड़े में ज़िंदगी।
एक संपूर्ण ज़िंदगी
सुख-दुख, पाप-पुण्य
आत्मा-परमात्मा...
इन सब से भी परे कुछ
उस टुकड़े में
कई तस्वीरें बनती हैं-मिटती हैं
मेरे सोच के साथ-साथ।
तभी एक चित्र दिखता है,
मैं पहचानने की कोशिश करता हूं,
वहां मेरे कमरे की गंध है,
बंद पड़ी घड़ी है,
ठहरा हुआ समय है,
समूचा मेरा कमरा है,
कमरे में मैं हूं,
और मुझे देखकर
मुस्कुराती हुई मोनालिसा है।
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 11:14 PM 1 प्रतिक्रियाएं