जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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Thursday, February 7, 2008

युद्धरत आम आदमी


यारो, यह ग़ज़ब कैसे हो गया?
इस बार यह नदी
पूरी सूख गयी
या यकायक
पूरी नदी ही बह गयी?

मैं देख रहा हूं
हमारे पांवों तले की ज़मीन
खिसक रही है
हमारे हिस्से की रोटी
हमारी थाल से ग़ायब हो रही है
हमारी हर चीज़
जो हमें बहुत प्यारी थी
उस पर बिचौलियों ने
क़ब्ज़ा जमा लिया है।

पेट की धमनभट्ठी में
हम झुलस रहे हैं
और तिसपर हमारी अंतड़ियां
हमसे जो सवाल कर रही हैं
उनका एक भी कोई सही जवाब
नहीं है हमारे पास।

हमारे शरीर की हर ऐंठन
हमारे इर्द-गिर्द एक तिलिस्म
बुन रही है
जिसका तोड़ और जिसका हिसाब
हम ख़ुद भूलते जा रहे हैं।

हमारी थाल से
अगर रोटियां ग़ायब हो रही हैं
तो यह क़तई नहीं साबित होता
कि हमारे मलिकान
बहुत चालाक हैं।
अगर ठंड भरी सुबह में
हमारी ललाट पर
पसीने चुहचुहा रहे हैं
तो यही साबित हो रहा है
कि हमने
बेजा मेहनत की है।
जाड़े में बहता
यह पसीना
बहुत दुर्गंधित है साथी
असह्य है एयरकंडिशंड में
बैठे लोगों का होना।
हमारी हर ज़रूरत पर
पिस्सू की तरह चिपके ये लोग
बड़े सुघड़ भले दिख रहे हैं
पर इनकी असलियत
कुछ और है।
गुलाब की खेती करने वाले
ये बहरुपिये
हम सबों के बीच
मतभेद बो रहे हैं।
इसलिये अपनी तमाम चुनौतियों के बीच
थोड़ा समय निकाल यह सोचें
कि हमारी कैक्टस हुई
ज़िंदगी का राज़
कहां छुपा है।

धनिए की महक
और मकई के बाले
बेटे की तुतलाती ज़बान
और पत्नी की पनीली आंखें
ये सारा कुछ छोड़कर
हम आये थे यारो
अपने प्यारे से गांव से
सोचा था
शहर में
सपनों की बगीया लगेगी
और गांव में बेटा जवान होगा
मगर
कुपोषण के शिकार हुए
दोनों के दोनों।

यारो, बहुत सह लिया
अब चलो
हमारी ज़रूरतें
जिनके लिए मज़ाक़ हैं
अपनी करनी से
उनके चेहरे तराश दें
उन्हें बतायें
कि हम अपने पसीने से
तुम्हारी ईंटें जोड़ सकते हैं
तो हमारे पसीने में
तुम्हारे मकान
बह भी सकते हैं।

यारो,
हम युद्धरत आम आदमी हैं
अपनी ज़रूरतों को
अपनी आंखों से देखेंगे
और तमाम रणनीतियां भी
अब अपनी बनायी हुई होंगी।
पहले की ग़लती
हमें फिर नहीं दुहरानी
कि बकरियों को
बुरी निगाह से बचाने के लिए
उन्हें हम कसाईबाड़े में रख दें।

हमारे शरीर वज्र के बने हों
और हमारे इरादों में
फौलाद साफ-साफ झलके
इसके लिए ज़रूरी है
कि युद्धरत हो जाओ।

हर ख़ास को अब
आम बना देना है
ख़ास बने रहने की चाह
बहुत बड़ी कमज़ोरी है
यही से शुरू होता है
व्यवस्था के ढांचों का
ढीला पड़ते जाना।

यक़ीनन, इस लंबी यात्रा में
हमें कई घाटियों से गुज़रना है
जहां कई तीखे मोड़ हैं
लेकिन चिंता की कोई बात नहीं
सुरक्षा के सारे इंतज़ाम
कर लिये गये हैं
तुम बेख़ौफ़ बढ़े चलो।

सुबह का सूरज
अब पीली रोशनी नहीं फेंकेगा
दहकते हुए आदमी की
हां में हां मिलायेगा वह
तुम इतमीनान में रहो
कि हर सुबह अब सूरज
पहले तुम्हारी झोपड़ियों में उगेगा।

सिपाहियों की बंदूकें
घबराई हैं यह सोचकर
कि कल जब तुम
अचानक कमर कस लोगे
उनके ख़िलाफ और पूछोगे
बेवजह ढाये गये ज़ुल्म की वजह
तो क्या जवाब देंगी वे।

यारो, अब उदास होने की ज़रूरत नहीं
क्योंकि सचमुच
जीवन के हर मोर्चे पर
युद्धरत है आम आदमी।

2 comments:

Ek ziddi dhun said...

hum ladenge saathi....
ye Raj Thakrey ko bhi bhej deejiye

JaCk said...

greetings from italy :P

what are the topics of this blog ?