
ख़ैर। चलिए, आज आपको थोड़ा विस्तार से बतलाता हूं कि क्या अंतर है इन दोनों कैटिगरी में। शहर में रहनेवाले शहरी कहलाते हैं। लेकिन सच है कि शहरी होना संक्रमणकाल से गुज़रने जैसा होता है। यानी, इस दौर में आपके भीतर गांव या क़स्बे की सादगी और वहां का भोलापन ज़िंदा होता है। आप चाहते हैं कि आपकी सादगी पर महानगर की रंगीनी चढ़े। इसके लिए आप तमाम मशक्कत करते हैं। बेवजह भिंगाकर मारा गया जूता हो या फिर हो चांदी का; आप दोनों को बर्दाश्त करते हुए कंठलंगोट लगा दांत निपोरकर खी-खी करते नज़र आते हैं। पर कंठलंगोट का असली इस्तेमाल आपको तब सूझता है, जब मारे गए जूते से आपके चेहरे पर पसीने चुहचुहा रहे हों। कहने का मतलब यह कि तमाम तरह के दिखावे के बाद भी आपके भीतर गांव का वह बालक छुपा बैठा होता है जो पूरी सहजता से अपने आस्तीन से अपनी नाक पोंछता था।
ऐसी कई-कई रासायनिक प्रक्रियाओं से गुज़र कर ही आप
शरीफ़ शहरी होने का ठप्पा अपने ऊपर लगवा पाते हैं। इसलिए कहता हूं कि शरीफ़ शहरी बनना यक़ीनन बड़े धैर्य का काम है। वह इतना आसान नहीं कि आज आपने सोच लिया और कल से आप शरीफ़ शहरी बन गये। जो भी सज्जन फिलहाल इस टिप्पणी को पढ़ रहे हैं, उनके बारे में मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि वे शहरी तो हैं पर शरीफ़ शहरी नहीं। क्योंकि शरीफ़ शहरी पढ़ने के रोग से बिल्कुल मुक्त होता है। वह सिर्फ़ पट्टी पढ़ाना जानता है। वह किसी भी वक़्त, किसी के भी ख़िलाफ़, किसी को कोई भी पट्टी बड़ी आसानी से पढ़ा सकता है।

शहरी और शरीफ़ शहरी का एक मोटा फर्क़ आप इस रूप में समझ सकते हैं कि अधिकतर शहरी किसी न किसी स्टॉप पर बस का इंतज़ार करता हुआ दिख जाता है। महीने के अंत में उसके घर में क्लेश थोड़ा बढ़ जाता है। किसी तरह अपनी इज़्जत बचाए रखने की कोशिश में उसके चलने, उठने-बैठने का अंदाज़ उस तिलचट्टे की तरह हो जाता है, जिसपर कई टन यातनाओं का दबाव हो और तिसपर रेंगने की बेपनाह मजबूरी।
जबकि शरीफ़ शहरी के पास खूब पैसा होता है, गाड़ियां होती हैं, शोहरत होती है। इज़्जत तो वह इस क्रम में खरीद ही लेता है, खरीदने से न मिले तो वह इज़्जत लूटने से गुरेज़ भी नहीं करता। वह अपनी धुन का पक्का होता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानियां देने को वह तैयार रहता है। मसलन, ज़मीन खरीदने की धुन हो या मकान। वह उसे हर कीमत पर पूरा कर ही लेता है, भले ही इस क्रम में वह अपनी ज़मीन से उखड़ जाए या उसका बसा-बसाया घर उजड़ जाए।

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