और मैं भी मानता हूं
बहुत बड़े संन्यासी थे तुम
राजा पिता की सारी जायदाद छोड़कर
जंगल-जंगल भटकते रहे
सत्य की तलाश में।
इसके पीछे वजह यह भी रही
कि बचपन में
तुम्हारी हर जरूरत पूरी होती रही
तुम्हारे घर-आंगन में
दूध-दही की नदी बही।
अगर तुम किसी फुटपाथ पर
पैदा होते
तो यकीन मानो
तुम्हारी पहली ज़रूरत
पेट की होती
शायद, सच की तलाश के लिए
सोच भी नहीं पाते तुम
डरे हुए जानवर की तरह
दबाये रखते अपनी दुम।
चूंकि तुम्हारा उदर भरता रहा
इसलिए तुमने जाना
कि लोभ दुख का कारण है
कभी एक शाम
भूखे रहना तुम्हारी मजबूरी बन जाए
और दिहाड़ी मजदूर की समस्या
तुम्हारी समस्या बन जाए
तो फिर देखना
ये सारे आदर्श हवा हो जाएंगे।
दरअसल,
दुख के और भी कई कारण हैं
तुम्हें नहीं मालूम
कि जब
दरवाजे के कब्जे की कील
उखड़ी पड़ी हो
तो घर की तिमारदारी
है कितनी जरूरी
कि शहर में
लंपटों की टोली ने
रोटी पर कब्जा किया हुआ है...
.......... ।
और भी कई-कई तनाव हैं
कि शहर में हर तरफ
खतरनाक उदबिलाव हैं।
मौसम का मिजाज
फिर उखड़ा है।
शहर पाले का शिकार हुआ है
और हर आदमी ठिठुर रहा है।
4 comments:
बड़ी बेबाक कविता है। लेकिन अक्सर होता यह है कि खाए-पिए अघाए तबकों के लोग ही अंतर्विरोधों को अच्छी तरह देख पाते हैं। गौतम बुद्ध किसी दास परिवार से नहीं आ सकते थे। लेकिन वही राजकुमार सिद्धार्थ बुद्ध के रूप में इतनी सदियों बाद भी दलितों का संबल बने हुए हैं। हमें सामाजिक प्रवाह की इस हकीकत को समझना पड़ेगा। भावुक लफ्जों से रोया जा सकता है, हकीकत तक नहीं पहुंचा जा सकता है।
बिल्कुल सही. शहर उदबिलावों से भरा हुआ है.
Sad but true....lovely poetry.... watch sudhir mishra's 'hazaaron khwahishein aisi'....your poem reminded me of the movie...
bebak satya
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