मेरा कमरा
जिसमें एक विशेष गंध
तैरती है
जो दूसरे कमरों में नहीं।
मुझे बेहद लगाव है
कमरे में टंगी
मोनालिसा से
ठहरी हुई गंध से
खिड़की से दिखता
आसमान का टुकड़ा
जैसे सारा यथार्थ
वहीं कहीं अटका होगा
और मैं ढूंढ़ने लगता हूं
उस टुकड़े में ज़िंदगी।
एक संपूर्ण ज़िंदगी
सुख-दुख, पाप-पुण्य
आत्मा-परमात्मा...
इन सब से भी परे कुछ
उस टुकड़े में
कई तस्वीरें बनती हैं-मिटती हैं
मेरे सोच के साथ-साथ।
तभी एक चित्र दिखता है,
मैं पहचानने की कोशिश करता हूं,
वहां मेरे कमरे की गंध है,
बंद पड़ी घड़ी है,
ठहरा हुआ समय है,
समूचा मेरा कमरा है,
कमरे में मैं हूं,
और मुझे देखकर
मुस्कुराती हुई मोनालिसा है।
Sunday, February 3, 2008
बंद घड़ी के कांटे
(प्रसारित/प्रकाशित)
पेशकश :
अनुराग अन्वेषी
at
11:14 PM
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1 comment:
achi lagi kavita
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