पहले भी उसे
कई बार देखा है
कभी रामनामी बेचते
तो कभी तुलसी सुखाते
पर शायद उसे नहीं मालूम
कि पेट की खातिर
ऐसा कुछ भी करना
बेटी की दलाली करने से
ज़्यादा ख़तरनाक है।
चंद टुच्चे भी उसके साथ हैं
हर का अपना स्वार्थ है।
अपना समाज है।
लाठी के बल पर
बची हुई उसकी नाक है।
कुंद दिमाग का
वह ऐसा पगला है
कि लुच्चों की पंक्ति में
सबसे अगला है
जब भी बातें हुई हैं उससे
मेरे हाथ अकड़ने लगे हैं
अपनी असमर्थता
अपनी सीमा को जान कर
कि बाप, मां, भाई, बहन
कुल जमा पूंजी यही है मेरे पास
हां, सिर्फ़ यही चार
और अपने आक्रोश का गला
घोंट देता हूं हरबार।
मैं देख रहा हूं
कि मेरा निशाना चूक रहा है।
मैं जान रहा हूं
कि इन स्थितियों में
मेरा गुस्सा सिर्फ़ नपुंसक है।
वह किसी आग को
पैदा नहीं कर सकता
और न ही किसी बर्फ़ को
गला सकता है
एकमात्र यही वजह है
कि मैं घबरा रहा हूं
इस आशंका से पीड़ित होकर
कि वह मुझे हिला सकता है।
मैं देख रहा हूं
तुम सबों की आंखों में
कि उसकी आंखों में
जो सूअर का बाल दिखता था
वह तुम्हारी आंखों में
क्यों है।
संभव है
उस शहरी-गंवार के पक्ष में
तुम कई तर्क ढूंढ़ सकते हो।
लेकिन आखिरी सच यही है
कि आदमी की बनावट का हर चेहरा
आदमी नहीं होता।
और जानवर होने के लिए
पूंछ का होना जरूरी नहीं।
सुनो,
बरसाती नाले से
हमारा शहर तबाह हो
इससे पहले चलो
उसकी दिशा हम मोड़ दें।
जरूरत पड़े तो
हर कमीने की टांगें तोड़ दें।
वह जब भी
किसी संगीन मुद्दे पर
कुछ कहता है
उसके होठ बजबजाते हैं
उसके शब्दों से लार टपकती है
और मेरा जी चाहता है
कि अपने दोस्तों से कहूं
कि उठाओ पत्थर
और दिखाओ उसकी ललाट पर
एक बड़ा-सा गूमड़।
सचमुच, अपनी शालीनता से
कोफ़्त होने लगी है
जबकि मैं
पूरे मिजाज़ में हूं
कि उसके सिर का इस्तेमाल
तबले की तरह करूं
और उसके साथ जो तबलची हैं
उनमें खलबली है
कि एक बिच्छू
कहां से चढ़ आया
जबकि सेज मखमली है।
अब जाकर
किसी भी फूहड़ भाषण पर
मेज़ थपथपाने का सिलसिला रुका है
मुझे लगता है
कि उसकी ज़िंदगी ठीक इसी तरह रुकी है।
मेरी निगाहें देख रही हैं
कि यह आदमी तो कतई नहीं है
आधा तीतर है - आधा बटेर है
तुम्हें भ्रम हो सकता है
कि यह गदहा
शेर है।
यही तो समय का फेर है
तुम्हारी आंखें
मोतियाबिंद का शिकार हुई हैं
तुम नहीं पहचान पा रहे हो
कि कौन दुश्मन है
और कौन दोस्त
और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी,
अफसोस भी करोगे
जब तुम्हें पता चलेगा
कि दुश्मनों के साथ मिलकर
तुम खाते रहे इंसानियत का गोश्त।
बिल्कुल सच है
कि वह बददिमाग
हमारा सिर बन चुका है
और हमें
हमारे ख़िलाफ ही भड़का रहा है।
Wednesday, January 23, 2008
एक भद्र नागरिक का आत्मनिवेदन
(प्रसारित/प्रकाशित)
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 2:37 AM
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3 comments:
touching poetry. Yaar, yeh kavita-en hain ya koi jadoo? Sachmuch jadoo sa kar dia hai...keep it up. Excellent blog...
a great poetry on me
thanks a lot
शानदार कविता है। मज़ा आया।
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