लिखने को कविता
तो यकीन मानो
अब तुम्हारी याद नहीं आती।
क्योंकि
कभी ऐसा नहीं चाहा था
कि लिखूं कविता
और उसमें तुम न हो।
मेरी हर कविता में
तुम्हारा ज़िक्र होना था
कि मेरी दुनिया तुम थी।
हालांकि जानता हूं
कि ज़िंदगी का अर्थ
सिर्फ़ तुम नहीं हो।
सही है कि हरबार
बदलती रहीं तारीखें
बीतते गये दिन
मौत जीते आदमियों को देख
बेमानी होती गयी प्रेम कविता।
बेमानी होती गयी प्रेम कविता।
तहजीब की आड़ में
छुरे का इस्तेमाल होता रहा।
मशीनी ज़िंदगी में
भूल गया मैं
चिड़ियों का चहचहाना।
अब भी
सुनता हूं रोज
दंगे-फसादों में जल रहे
शहर को।
तो ऐसे में
मेरी कविताओं में
तुम्हारा ज़िक्र कैसे हो?
(प्रसारित/प्रकाशित)
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