जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Thursday, September 30, 2010

जलेबी और चाकू

किसी गर्म, कुरमुरी, जायकेदार जलेबी को मुंह में रखने
और उसे गप कर जाने से पहले
उसकी खुशबू और उसके रस का पूरा आनंद लेने के बीच
क्या आपने ध्यान दिया है
कि हमारी भाषा
कैसे-कैसे बेख़बर अत्याचार करती है?
अगर किसी को आप जलेबी जैसा सीधा कहते हैं
तो ये उसके टेढ़ेपन पर व्यंग्य भरी टिप्पणी होती है
जबकि सच्चाई यह है
कि अपने रूपाकार को छोड़कर - जिसमें उसका
अपना कोई हाथ नहीं है - वह वाकई सीधी होती है।
पहले रस को अपने भीतर घुलने देती है
और फिर बड़ी आसानी से
मुंह के भीतर घुल जाती है
जो थोड़ा बहुत कुरमुरापन रहता है, वह उसका जायका ही बढ़ाता है।
कभी चाव से जलेबी खाते हुए
और कभी दिल्लगी में दूसरों से अपने जलेबी जैसा सीधा होने की तोहमत सुनते हुए
अक्सर मुझे लगता है
कि वह भाषा भी कितनी सतही होती है
जो बाहरी रूप देखकर
किसी के सीधे या टेढे होने का ऐसा नतीजा तय कर देती है जो घिस-घिस कर मुहावरे में बदल जाता है।
लेकिन यह नादानी है या सयानापन है?
कि लोग जलेबी को टेढा बताते हैं।
यह जानते हुए कि वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती
आम तौर पर बाकी पकवानों की तरह हाजमा भी ख़राब नहीं कर सकती।

अगर सिर्फ आकार-प्रकार से तय होना हो
कौन सीधा है, कौन टेढ़ा
तो सीधा-सपाट चाकू कहीं ज्यादा मासूम लगेगा जो
सीधे बदन में धंस सकता है
और जलेबी बेचारी टेढ़ी लगेगी
जो टूट-टूट कर हमारे मुंह में घुलती रहती है।
लेकिन जलेबी और चाकू का यह संयोग
सिर्फ सीधे-टेढ़े के फर्क को बताने के लिए नहीं चुना है
यह याद दिलाने के लिए भी रखा है कि
जलेबी मुंह में ही घुलेगी, चाकू से नहीं कटेगी
और गर चाकू से जलेबी काटना चाहें
तो फिर किसी और को काटने के पहले
चाकू को चाटने की इच्छा पैदा होगी।
यानी चाकू जलेबी को नहीं बदल सकता
जलेबी चाकू को बदल सकती है
हालांकि यह बेतरतीब लगने वाला तर्क
इस तथ्य की उपेक्षा के लिए नहीं बना है
कि जलेबी हो या चाकू - दोनों का अपना एक चरित्र है
जिसे हमें पहचानना चाहिए
और कोशिश करनी चाहिए
कि हमारा रिश्ता चाकू से कम, जलेबी से ज्यादा बने।
लेकिन कमबख्त यह जो भाषा है
और यह जो दुनिया है
वह जलेबी को टेढ़ेपन के साथ देखती है, उसका मजाक बनाती है
और
सीधे सपाट चाकू के आगे कुछ सहम जाती है।

(जी चाहता है यह झूठ सबसे कहूं कि यह कविता मैंने लिखी है। भले लोगों को पता हो कि यह प्रियदर्शन की कविता है और उसके भरोसा ब्लॉग से चुराई गई है।)

Sunday, April 11, 2010

आइए, छलें खुद को

मोह जब हो भंग, तो आदमी खुद को ठगा सा महसूस करता है। उसे लगता है कि वह अब तक खुद को छल रहा था। वैसे खुद को छलने वाले लोग भी होते हैं, आत्ममुग्ध, आत्मरति के शिकार। पर जब वाकई दूसरों के हाथों छले जाएं, तो उनकी पीड़ा मुखर हो जाती है। पीड़ा के ऐसे क्षणों में आखिर आदमी क्या करे, कहां जाए, किससे कहे...। जाहिर है कहीं जाने की जरूरत नहीं। आइए एक गीत सुनें...

Wednesday, March 24, 2010

पत्नी की गैरमौजूदगी और मेरा ओछापन

अनिता, अनुनय और मान्या के बिना शुरू के दो दिन तो मैंने खूब चैन से गुजारे। लगा कि 17 मार्च की खुशियां बरकरार हैं। अगर स्वर्ग होता होगा तो शायद उसका सुख यही है। पर तीसरे दिन से ही मेरा भ्रम टूटने लगा। मुझे मेरा घर अचानक पराया लगने लगा। दफ्तर से लौटता तो यहां का सूनापन मुझे काटने को दौड़ता। डर कर मैं अपने कमरे में मैं सिकुड़ जाता। समझ नहीं पा रहा था कि यह प्यारा सा घर मुझे मकान की तरह क्यों लगने लगा? मेरा स्वर्ग अचानक नर्क में कैसे तब्दील हो गया?

जो लोग पत्रकारिता के पेशे में हैं उनके घर लौटने का वक्त बेहद अटपटा होता है। मेरा भी है। देर रात लौटता था, अनिता और बच्चे तब तक सो चुके होते थे। मैं बस चुपचाप उनके कमरे में झांक आता। उन्हें सोया देख (कभी कभार जगा पाकर) बेहद सुकून मिलता। इस सुकून का अहसास तब कभी नहीं हुआ या कहें कि मेरी कमजोर संवेदनाओं ने उन्हें कभी महसूस नहीं किया। इस दफे उनकी अनुपस्थिति में वह अंतर मुझे पता चला। रात घर लौटने के बाद जब मुझे उनका कमरा खाली दिखता तो वह खालीपन मेरे भीतर भी बजने लगता। वाकई मैं बेचैन हो जाता। घर में उन तीनों का न होना मुझे बेहद खटकने लगा।

अनिता के जाने के बाद शुरू की दो रातें मैंने या तो टीवी देखते हुए बिताईं या कुछ पढ़ते हुए। अगली सुबह मैं काफी देर से जगा। देर से जगने का कोई अफसोस नहीं था क्योंकि मैं तो अपनी आजादी में डूबा था। पर धीरे-धीरे मुझे बात समझ में आई कि जिसे मैं आजादी समझ रहा था वह वाकई मेरे सिस्टम का डैमेज हो जाना था। ठीक वैसे ही जैसे जब शरीर का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा साथ छोड़ने लगता है तो आपका शरीर आपके वश में नहीं होता। वह तेजी से काम करता है, पर कब कौन सा काम वह करे इस पर न तो आपका वश चलता है न ही आपको अहसास होता है कि वह आपके मुताबिक नहीं चल रहा।

घर में पत्नी और बच्चों के होने से कितना फर्क पड़ जाता है माहौल में। कभी आप बच्चों से खेलते हैं, कभी समझाते हैं और कभी उन्हें डांटते भी हैं। ठीक उसी तरह पत्नी से तमाम तरह की बातें आप शेयर करते हैं - कभी दफ्तर का तनाव, तो कभी किसी सब्जेक्ट पर विचार-विमर्श। और इन स्थितियों के बाद आपका मुकम्मल चरित्र बन कर उभरता है। आप अपने व्यक्तित्व के अधूरेपन को पत्नी और बच्चों के साथ होकर ही पूरा कर पाते हैं।

अभी ध्यान जा रहा है कि इतने वर्षों से मैंने तो अनिता से खुद को शेयर किया। अक्सर अपनी बातें उनसे कीं। पर क्या कभी अनिता की बातें मैंने सुनीं? पत्रकारिता या समाज को लेकर जो सवाल मुझे मथते हैं, क्या वह अनिता को नहीं मथते होंगे? मैं कैसे भूल गया कि उसके भीतर भी पत्रकार बनने की ख्वाहिश थी। इकोनॉमिक्स में एमए और बैचलर ऑफ जर्नलिजम कर लेने के बाद उसे भी अपने करियर की चिंता थी। पर शादी के बाद उसने पूरी दृढ़ता से कहा था कि मैं घर संभालूंगी। आखिर उसने अपने करियर को तिलांजलि दी तो किसके लिए? जाहिर है इस परिवार के लिए। मुझे मुखिया की तरह स्वीकार किया - क्या यह उसकी कमजोरी थी? आज मेरा मानना है कि यह उसकी दृढ़ता थी। दृढ़ता इस अर्थ में कि जो हल्के होते हैं वही उड़ते हैं, जो अपनी धुन के पक्के होते हैं उन्हें अपने फैसलों पर टिके रहना आता है।

और ऐसी नायाब साथी से मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की उसके भीतर की हलचल। उफ्, यह मेरा कौन सा ओछा रूप है? मेरा यह रूप मुझ से छुपा कैसे रहा? मेरे इस ओछेपन को अनिता कितने सहज भाव से स्वीकार करती रही। मैं समय-समय पर उसपर गरजता रहा और वह लगातार त्याग और समर्पण के साथ मुझ पर बरसती रही। क्या त्याग करना सिर्फ औरतों के हिस्से है? यह काम मर्द प्रकृति में क्यों नहीं?

मेरी छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान अनिता कुछ वैसे ही रखती रही है जैसे अपने बच्चों का। इन सात दिनों ने मुझे जीवन के कई पहलुओं से रू-ब-रू कराया है। मेरे ही छुपे हुए कई रूपों को मेरे सामने रखा है। अनिता के बारे में सोचने की नई दृष्टि दी है। मेरे भीतर बसे बेशर्म मर्द को शर्मिंदा किया है। अब तो बस इंतजार है कि अनिता लौटे तो उसे बताऊं कि मैं तुम्हारा पति नहीं बल्कि तुम्हारा साथी हूं। ऐसा साथी जो सिर्फ 'मैं' की भाषा नहीं बोलेगा, वह 'हम' की भाषा बोलेगा। हां अनिता, यह घर मेरा नहीं, हमारा है। हमारा यह घर तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहा है। रियली आई लव यू।

Thursday, March 18, 2010

खुशियां हैं बरकरार

सुबह 5 बजे सोने गया और अब 10:30 बजे सो कर उठा हूं। कोई शोरगुल नहीं। खूब गहरी नींद आई। सोकर उठा तो मोबाइल में 18 मिस्ड कॉल दिखी। चार बार मेमसाब (मेरी श्रीमती जी) ने फोन किया था। बाकि 14 साथी-संगतियों की कॉल थी। सोचा था इन सात दिनों में पुराने बचे कई काम निबटा लूंगा। कुछ लेख लिखने थे, जिनके तगादे काफी तेज हो गए हैं। बातें जेहन में हैं पर मन आसमां में उड़ रहा है। कैसे लिखूं? लिखने की इच्छा नहीं हो रही। बस इन दिनों वही कर रहा हूं जो इच्छा होती है। लेख लिखने की इच्छा नहीं है तो लिखूंगा भी नहीं। बाकी दिनों में तो यह सोच कर कर लिया करता था कि चलो करियर के रास्ते में कहीं ये चीजें सपोर्टिव होती हैं। पर इन दिनों जब सोचता हूं करियर की बात तो मन से फूटती है आवाज - यार काहे को लफड़ा मोल ले रहा है। चल मस्ती कर। बस फिर क्या? हंसी-ठिठोली। कभी टीवी पर खबरें देख लीं तो कभी चैनल बदल-बदल कर फिल्में। ज्यादा इच्छा हुई तो मनपसंद सीडी निकाली, गाने सुन लिए या फिल्म देख ली।

Wednesday, March 17, 2010

आजादी की पहली सुबह

पिछले कई दिनों से इस सत्रह मार्च का मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था। रोज जीटॉक के स्टेटस मेसेज में इस दिन के इंतजार में मेसेज बदल रहा था। संगी-साथी पूछ रहे थे कि क्या मामला है। मैं क्या बताता उन्हें। डरा मैं भी था कि श्रीमती जी ने कहीं टिकट कैंसल करा दिया तो? बहरहाल, श्रीमती जी सोलह मार्च की शाम मायके गईं। चैन के सात दिन गुजारूंगा। जब से दिल्ली आया। घर में अकेला रहने को तरस गया। इस बार जब से टिकट कटा, दिन काटने मुश्किल हो गए थे। सत्रह तारीख का बेसब्री से इंतजार करता रहा। सोलह की शाम उन्हें ट्रेन में बैठा, दफ्तर आया। वीकली ऑफ होने के बावजूद किसी और दिन दफ्तर आना थकान पैदा कर देता था। पर सोलह को ऐसा कुछ नहीं हुआ। बिल्कुल तरोताजा रहा। घर आया और देर तक इस खुशी को महसूस करता रहा। इन सात दिनों में कोशिश होगी कि अपने इन खूबसूरत दिनों का ब्यौरा यहां पेश करता रहूं। फिलहाल तो ब्लॉगिंग की भी इच्छा नहीं हो रही है। यह तो पहले भी करता रहा। इसके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी। हां चलता हूं टीवी देखूंगा। आज मुझे कौन रोकेगा भला। :-)

Sunday, February 14, 2010

हांफती हुई पीढ़ी का वैलंटाइंस डे

प्यारी बेटा,

कैसी है तू? पढ़ाई-लिखाई का क्या हाल है? समय का इक्वल डिस्ट्रिब्यूशन किया है न? देख बेटा, पढ़ाई के साथ मस्ती भी बेहद जरूरी है। जितनी ईमानदारी से पढ़ती है उतनी ईमानदारी के साथ मस्ती भी कर। किसी एक चीज पर पिले रहने से मुकाम तो हासिल कर लेगी, पर पर्सनैलिटी नहीं। इसलिए जरूरी है बेटा कि मस्ती और पढ़ाई दोनों साथ-साथ हों। जिस फील्ड को जब जैसी जरूरत हो, उसे उतना ही वक्त दो।

जानती है बेटा, अभी रात के २ बज रहे हैं। दरअसल, मैं रात में देर से लौटा हूं। तेरी ममा ने बताया कि तेरे से लंबी चैट हुई उनकी। सुना कि सैटरडे को तेरा शेड्यूल बहुत टाइट था। बेहद थकी हुई थी तू। क्यों इतना स्ट्रेन लेती है रे, एकाध क्लास मिस ही कर जाती तो क्या आफत आ रही थी? पगली।

मुझे पता है कि संडे की सुबह तू देर से उठेगी। उठेगी और लैपटॉप से चिपक कर मेल चेक करेगी। इसीलिए अभी इस खत को मेल कर दूंगा। अरे बेटा! कल तो वैलंटाइन्स डे है। बता-बता, क्या प्लानिंग है तेरी? अभी तक किसी ने मेरी बेटी को प्रपोज किया या नहीं… या मेरी बेटी ने किसी को...?

याद है तुझे... जब तू नर्सरी या प्रेप में थी... तू बेहद परेशान रहती थी कि तेरे चेहरे का कलर ब्राउन क्यों है? क्या तुझे आज भी तेरा ब्राउन कलर परेशान करता है? ना, बेटा ना। ब्राउन कलर हो या वाइट - अगर चेहरे पर ताजगी न हो, उत्साह का कोई रंग वहां न हो, तो वह चेहरा बेजान लगता है। और तू तो शुरू से हर मामले में उत्साही रही है। चाहे काम मुश्किल हो या आसान, छोटा हो या बड़ा – तू उसे लगन से करती रही है। तेरे भीतर यह जो गुण है न – बेशक इसे तूने अपनी ममा से लिया है – यह तुझे भीड़ में भी एक पहचान देता है, तुझे बिल्कुल डिफरेंट लुक देता है।
बेटा, तू अब बड़ी हो चली है। तुझमें संवेदना जितनी गहरी है, विचार उतने ही गंभीर।

इसीलिए तेरे सामने मैं सिर्फ स्थितियां रखा करता हूं, फैसले का अधिकार तुम्हारा होता है। पर बेटा, एक बात ध्यान रखना कि कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जिन्हें जब चाहो बदल सकती हो और कुछ ऐसे - जिनके साथ जीने की आदत डालनी पड़ती है। इसे यूं समझ कि जिंदगी गर एक रेलवे स्टेशन है, तो कुछ फैसले इस स्टेशन की दूकाने हैं, जिनके बदलने से स्टेशन का रूप बदलता है, प्रकृति नहीं। पर जब रेलवे ट्रैक की जगह मेट्रो, ट्राम या मोनो रेल की ट्रैक बिछा दी जाए तो रेलवे स्टेशन की प्रकृति बदल जाएगी। इसीलिए ये फैसले ऐसे नहीं होते कि जब चाहा बदल लिया। ऐसे फैसले करने से पहले खूब सोच-विचार करना पड़ता है। अपने को आजमाना पड़ता है। यस या नो के तर्कों को परखना पड़ता है। जीवनसाथी चुनने का फैसला भी ऐसा ही फैसला होता है।

बेटा, कोई इनसान सौ फीसदी सही नहीं होता। सही और गलत की परिभाषा भी नितांत निजी हो सकती है। पर कुछ ऐसे मानक भी हैं जो हमें हमारे समाज से मिले हैं। उसी समाज से, जिसे हमने रचा है। इस बदलते दौर में जब समाज का व्यवहार तेजी से बदला तो इसके मानक भी बदले। पर हमारी पीढ़ी पुराने मानकों को पकड़ कर लटकी है, तुम नए मानकों के साथ उमंग में डूबी झूल रही हो। पीढ़ियों की इस खाई को पाटना बेहद जरूरी है। जानती हो, यह खाई हर दौर में बनती है। जब मैं यूथ था, तब भी मैंने यह खाई देखी थी। मेरे पापा जब यूथ रहे होंगे तो उन्होंने भी ऐसी खाई देखी होगी, मेरे पापा के पापा ने भी...। और हर बार बूढ़ी होती हुई पीढ़ी को हांफते हुए ही सही पर दौड़ना पड़ा होगा। नए बन रहे मानकों के रास्ते के कंकड़-पत्थर चुनने पड़े होंगे। यही तो प्रकृति है, यही तो नेचर है।
बेटा, रील लाइफ हर यूथ को बेहद लुभाती है। वहां की रंगीनियां, वहां के लुभावने पल, वहां की मस्ती खींचती है। उन तीन घंटों में वह भूल जाता है अपनी रीयल लाइफ की दुश्वारियां, वे तकलीफें - जो मध्यवर्गीय परिवारों की पहचान बनती गई हैं। और फिर रील लाइफ के जादूघर से बाहर निकलते ही अचेतन में बस चुके नायक-नायिका उसे मुंह चिढ़ाते हैं। उनकी सम्पन्नता तो वह ईमानदार तरीके से छू नहीं पाता, पर उनका दैहिक प्रेम यूथ के जलते मन और तन को भड़काता है। जब कभी अवसर मिले वह तन-मन को साधने की जुगत में लग जाता है। भावावेश में साथ जीने-मरने की कसमें खाता है। रिश्ते की सामाजिक स्वीकृति की बाध्यता उसे शादी तक पहुंचाती है। पर बहुत जल्द ही अचेतन के नायक-नायिका की छवि टूटती है। जीवन की जरूरतों के सामने भावनाएं आहत होने लगती हैं। जितनी तेजी से जुड़े थे, उतनी ही तेजी से बिखरने लगते हैं। बेटा, इस बिखराव की वजहें तो कई हैं पर उन वजहों पर हम फिर कभी बात करेंगे।

फिलहाल तू जा बेटा, तैयार हो। अपने दोस्तों के साथ एंजॉय कर आज का दिन। और हां, जब लौटकर आना तो मुझे कॉल करना (अगर तू थकी न रहे तो), मैं ऑनलाइन हो जाऊंगा। वैसे भी संडे है। मैटिनी शो लेकर जाऊंगा तेरी ममा को, पर तेरे लौटने से पहले लौट आऊंगा।
तेरा पापा

Saturday, January 23, 2010

क्या यही है न्यूज चैनलों का सच?

लेक्ट्रॉनिक मीडिया दूर से जितना लुभावना लगता है उसका सच उतना ही भयानक है। मेरी एक बेहद करीबी मित्र जो दिल्ली के एक न्यूज चैनल में काम करती थी। पर वहां उसे अपने बॉस के अप्रोच ने इस कदर डरा दिया कि उसने नौकरी छोड़ दी। उसने कसम खाई कि वह कभी किसी इलेक्ट्रॉनिक चैनल में काम नहीं करेगी। हालांकि उसके नौकरी छोड़ देने का समर्थन मैं कभी नहीं करूंगी पर उसके साथ हुए घटनाक्रमों को संकेत में जरूर आपसे शेयर करूंगी। इस शेयरिंग की मंशा महज इतनी है कि आप ऐसे बॉसों के बारे में एक राय बना सकें कि कभी ऐसे लोगों से सामना हो जाए तो आपको क्या करना है। बहरहाल यहां उन सारी घटनाओं को रखने के लिए मैं अपनी मित्र की पहचान छुपाते हुए उसे श्रेष्ठा नाम दे रही हूं। श्रेष्ठा ने अखबार की नौकरी से करियर की शुरुआत की थी। दो साल वहां काम करने के बाद उसने टीवी चैनल में काम करने का मन बनाया। एक छोटे से न्यूज़ चैनल में उसे रिपोर्टर की जॉब मिल गयी। न्यूज चैनल में जॉब मिलते ही उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।

काम शुरू करने के कुछ दिन बाद ही उसने किसी बड़े चैनल में जाने का सपना देखना शुरू कर दिया और अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए उसने बेतरह मेहनत की। दिन है या रात, सुबह है या शाम जब जरूरत हो फील्ड में जाने को तैयार रहती थी श्रेष्ठा। वहां काम करते हुए उसने जाना, सुना कि चैनल में काम करने वाली कुछ लड़कियां अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए किस हद तक समझौता करने तैयार हो जाती हैं। ऐसे किस्सों से उसे कई बार आश्चर्य होता। वह खुद से सवाल करती कि ये लड़कियां अपने काम के बल पर क्यों आगे नहीं बढ़ना चाहतीं? ऐसी बातें सुनकर श्रेष्ठा का मन बहुत बार ख़राब होता रहा। तब उसने खुद से वादा किया कि इसी चैनल में काम करके वह अपने काम के दम पर आगे बढ़ेगी। वह मुकाम पाने के लिए किसी बॉस से कभी कोई ऐसा समझौता नहीं करेगी, जो खुद की निगाहों में उसे गिरा दे। उसी दिन उसने ब्लैंक डेट का एक रिजिग्नेशन लेटर तैयार किया और अक्सर उसे अपने पास रखने लगी।

उसकी नौकरी को महज़ पांच महीने बीते थे कि एक रोज एक सीनियर अधिकारी ने श्रेष्ठा को अपने केबिन में बुलाया। श्रेष्ठा के दिमाग में पता नहीं क्या आया कि उसने पर्स से निकाल कर अपने रिजिग्नेशन लेटर को जींस पैंट की जेब के हवाले कर लिया। अंदर पहुंचते ही सीनियर ने श्रेष्ठा को बैठने के लिए कहा। श्रेष्ठा का मन आशंकित था। कई सवाल आ-जा रहे थे। आखिर ऐसा क्या हो गया उससे कि सर ने केबिन में बुला लिया? कुछ पल की ख़ामोशी के बाद सीनियर ने श्रेष्ठा के काम की तारीफ़ की पर पता नहीं क्यों श्रेष्ठा को तारीफ का वह अंदाज नहीं जंचा। केबिन में सफोकेशन का अहसास उसे हुआ। उसका मन बेचैन हो रहा था और वह बाहर जाना चाहती थी। अचानक उसके सर ने उससे पूछा - तुम अपने काम के प्रति कितना सीरियस हो? श्रेष्ठा ने तुरंत जवाब दिया - बहुत ज्यादा। पर सर के अगले सवाल ने श्रेष्ठा के पैरों तले की ज़मीन खिसका दी। सर ने पूछा - क्या तुम अपने प्रमोशन के लिए मेरे फार्महाउस पर चलोगी? सवाल सुनकर हतप्रभ थी श्रेष्ठा। नथुने फड़कने लगे। चेहरे पर छाई रहने वाली स्निग्ध मुस्कुराहट की जगह ले ली नफरत ने। उसे लगा अगर कुछ पल वह वहां और खड़ी रह गई तो कोई बड़ा बवाल हो जाएगा। हो सकता है श्रेष्ठा खुद पर काबू न रख सके और कोई वजनी चीज उसके सिर पर मार दे। उसने जेब से हाथ बाहर निकाला। गुस्से में कांप रहे थे हाथ। पर हाथ में थमा पत्र देखते ही पूरी हिम्मत आ गई। उसने अपना रिजिग्नेशन लेटर उसकी टेबल पर फेंका और बाहर आ गई। अपने टेबल से अपना सामान उठाया और बिना किसी से कुछ कहे ऑफिस से निकल गयी। अगले दिन ऑफिस से उसके लिए फ़ोन आने शुरू हो गए, किसी को उसने रिसीव नहीं किया... पर वहां की एक सीनियर मैम के फोन को श्रेष्टा ने रिसीव कर लिया। उन से बात हुई। श्रेष्ठा ने सारी बातें मैम को बताईं,यह सोचकर कि शायद वह एक लड़की के मनोभाव समझ सकें। पर अफसोस महिला होकर भी उन्होंने उस इंसान (?) का पक्ष लिया जिसने श्रेष्ठा को प्रमोशन देने के पीछे शर्त रखी कि फार्महाउस चलो।

सर के केबिन में गुजरे इस मिनट के वक्त ने श्रेष्ठा के पूरे विश्वास को हिला दिया है। इतनी बार इस यातना की चर्चा वह मुझसे कर चुकी है कि केबिन का हर पल मुझे दिखने-सा लगा है। उस यातना को सिर्फ श्रेष्ठा ने नहीं जिया, उसकी मित्र होने के नाते मैंने भी जिया है। सबसे तकलीफदेह बात यह लगी कि श्रेष्ठा को यह लगने लगा है कि चैनल में जो भी लड़कियां ऊंचे पद पर पहुंच गई हैं उन्होंने जरूर अपने किसी सीनियर से समझौता किया होगा। वर्ना वह मैम क्यों नहीं उसकी बात समझतीं? क्यों वह उस राक्षस का पक्ष लेतीं। मैं कहना चाहती हूं श्रेष्ठा से कि सारे लोग तुम्हारे उस बॉस जैसे नहीं होते और न ही चैनल की सारी लड़कियां समझौते करके आगे बढ़ती हैं। पर अभी श्रेष्ठा के भीतर भरोसा जगाने में वक्त लगेगा मुझे। तब तक के लिए मैं भी उसके लिए संदिग्ध हूं, और आप तो खैर हैं ही...

यह टिप्पणी नमिता शुक्ला की है, जो उन्होंने ईमेल के जरिए मुझ तक पहुंचाई । दुआ करें कि वह वक्त लौट आए जब हम और आप किसी श्रेष्ठा की निगाह में संदिग्ध होने को अभिशप्त न हों।
- अनुराग अन्वेषी