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Saturday, December 19, 2009

कौन कहता है कि 'पा' अमिताभ बच्चन की फिल्म है

पा
में न अमिताभ दिखते हैं, न उनकी एक्टिंग की ऊंचाई। दरअसल, उस करेक्टर में अभिनय की गुंजाइश ही नहीं थी। अमिताभ की एक्टिंग देखनी हो तो ब्लैक जैसी दर्जनों फिल्में हैं। इसलिए कहना पड़ता है कि यह फिल्म किसी एक्टर के लिए नहीं याद की जाएगी। कर्स्टन टिंबल और डोमिनिक के लाजवाब मेकअप और बाल्की के जबर्दस्त निर्देशन और सधी हुई स्क्रिप्ट के लिए याद की जाएगी।
मैं यह नहीं कतई नहीं कह रहा कि पा फिल्म बेकार है। पा फिल्म तो वाकई तारीफ पाने की हकदार है। पर इसलिए नहीं कि वह प्रोजेरिया से पीड़ित एक बच्चे की कहानी है, या इसलिए भी नहीं कि प्रोजेरिया से पीड़ित १२ साल के बच्चे औरो की भूमिका में बिग बी ने 'कमाल' कर दिया है। इसलिए तो कतई नहीं कि जूनियर बी ने बिग बी के पिता का रोल किया।

तारीफ इसलिए होनी चाहिए

- कि इंटरनैशनल मेकअप आर्टिस्ट कर्स्टन टिंबल और डोमिनिक ने अपने कौशल से अमिताभ बच्चन को बिग बी के करेक्टर से बाहर कर दिया है। यह एक बड़ी वजह है कि औरो की भूमिका में दर्शकों को अपने अमिताभ का चेहरा नहीं दिखता। रही सही कसर खुद बिग बी ने पूरी कर दी अपनी वाइस मॉड्यूलेशन से।
- कि ऐड एजेंसी के क्रिएटिव हेड रहे बाल कृष्णन (बाल्की) चूक गये। वह चाहते तो स्क्रिप्ट की डिमांड के तर्क के साथ विद्या बालन और अभिषेक के अंतरंग क्षणों की शूटिंग कर सकते थे। फिल्म के प्रोमो में इन दृश्यों को ठूंस कर दर्शकों का बड़ा हुजूम खींच सकते थे।
- कि बाल्की ने वाकई पा को भुनाने के लिए किसी सस्ते हथकंडे का इस्तेमाल न कर अपनी क्रिएटिविटी पर भरोसा किया।
- कि यह फिल्म सिर्फ औरो की कहानी नहीं है। यह विद्या के संघर्ष की कहानी है। अमोल आम्टे की महत्वाकांक्षा की भी कहानी है। मीडिया की नासमझी-नादानी की भी दास्तां है। तिसपर चारों कहानियां एक साथ चल रही हैं और ऊबने नहीं देतीं। स्क्रिप्ट की बुनावट इतनी सधी और कसी हुई कि इन कहानियों को आप एक-दूसरे से अलग नहीं कर सकते।
- कि निर्देशकीय पकड़ इतनी सख्त है कि फिल्म के करेक्टरों की तमाम मासूमियत आपके साथ चलने लगती है। आप उस अमोल आम्टे के लिए आक्रोश भी नहीं पाल पाते, जिसकी वजह से पैदा हुए तनाव का असर एक बच्चे की जिंदगी पर पड़ता है। यह असर इतना भयंकर है कि बच्चा पैदा हुआ तो अपने को प्रोजेरिया से घिरा पाया। फिल्म हॉल से निकलते ही औरो आपके जेहन में घूम रहा होता है, शेष करेक्टर महज औरो को बुन रहे होते हैं।

नहीं है इसमें बिग बी का चमत्कारिक अभिनय

कुछ फिल्में अपनी शानदार तकनीक की वजह से याद की जाती हैं, तो कुछ शानदार एक्टिंग की वजह से। किसी में स्क्रिप्ट जानदार होती है तो किसी में निर्देशन शानदार। तकनीकों का कमाल अब की हिंदी फिल्मों में दिखने लगा है। गाहे-बगाहे लीक से हटकर किया गया मेकअप भी पब्लिक का ध्यान खींचता रहा है। पर पा में जिस करेक्टर के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म घूमती है वह है औरो। इस औरो का मेकअप इतना सटीक है कि दर्शक उसके करेक्टर की खासियतों से बगैर संवाद जुड़ जाता है। किसी करेक्टर को जीवंत बनाने में एक्टिंग का बड़ा योगदान होता है। एक्टिंग के तीन खास पक्ष होते हैं - फेशिअल एक्स्प्रेशन, बॉडी लैंग्वेज और वाइस मोड्यूलेशन। फिल्म की बाकी तमाम चीजें एक्टिंग के इन तीन खास पॉइंट्स का साथ देती हैं। पा में औरो का मेकअप ऐसा है कि फेशियल एक्सप्रेशन की गुंजाइश किसी आर्टिस्ट के लिए बच नहीं पाती। रही बात बॉडी लैंग्वेज की, तो जाहिर है वह अपंग बच्चे जैसी ही होगी। यह काम किसी भी प्रफेशनल आर्टिस्ट के लिए जरा भी मुश्किल नहीं। हां, वाइस मॉड्यूलेशन में सामान्य सी गुंजाइश थी जिसे बिग बी ने आसानी से पूरा किया।
तो फिर ऐसी सामान्य-सी एक्टिंग के लिए बिग बी का ही सिलेक्शन क्यों हुआ? और हुआ भी तो बिग बी जैसे आर्टिस्ट ने इसे स्वीकार क्यों कर लिया?
दरअसल, बाल्की ऐड एजेंसी के हेड रहे हैं। उन्हें खूब पता है कि किसी प्रोडक्ट को बेचने के लिए ऐड कैसा होना चाहिए। पा जैसे प्रोडक्ट (जो लीक से हटकर है) का बाजार बनाना आसान नहीं था। इसे चर्चा में लाने के लिए बिग बी से बड़ा नाम दूसरा हो नहीं सकता था। विज्ञापन की आंखों ने यह भी देखा कि बिग बी की उम्र 70 के आसपास है और पा के औरो की 12 के आसपास। तो उम्र के इस कंट्रास्ट को भुनाया जा सकता है। प्रोडक्ट के बिकने के रास्ते में जो थोड़ी बहुत हिचक रही होगी उसे उन्होंने जूनियर बी को जोड़ कर दूर कर लिया। क्योंकि अब बाल्की के पास प्रचार के लिए करेक्टर और कलाकार का कंट्रास्ट तो था ही, बिग बी (बेटा) और जूनियर बी (बाप) के रोल की केमेस्ट्री भी थी। विज्ञापन की आंखों ने वाकई अपना असर दिखाया।
हर कलाकार की चाहत होती है कि वह खुद को डिफरेंट रंगों में देखे। औरो के असामान्य रंग में खुद को देखने की ख्वाहिश बिग बी की भी रही होगी - यह समझा जाये, तो यह समझ दोषपूर्ण नहीं। हां, यह जरूर है कि इसके अलावा भी कुछ कारण रहे होंगे जिन्होंने बिग बी को बाध्य किया होगा इस रोल को स्वीकार करने में।

विद्या का प्रेम, आम्टे का पलायन

पा में विद्या मेडिकल स्टूडेंट है। जीवन के किसी मोड़ पर उसकी मुलाकात अमोल आम्टे नाम के नौजवान से हो जाती है। बढ़ते भरोसे के साथ दोनों की मुलाकातें भी बढ़ती हैं। मुलाकातों के बढ़े अंतरंग कदम का पता उन्हें तब चलता है जब उनके सामने सिर्फ दो ही रास्ते बचते हैं - या तो शादी या अबॉर्शन।
आम्टे बेहद महत्वाकांक्षी करेक्टर है। भरोसे से लबरेज। उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण उसका करियर है। इस करियर के रास्ते में किसी भी 'लिजलिजी संवेदना' के लिए कोई जगह नहीं। ऐसे हर बैरियर को कुचलते और लताड़ते हुए उसे आगे बढ़ना है। एक बड़ा और जिम्मेवार नेता बन कर देश का भविष्य संवारना है। यही सीख वह विद्या को भी देता है। उसे याद दिलाता है कि अगर बच्चे-वच्चे के फेर में वह पड़ी तो उसके डॉक्टर बनने का ख्वाब अधूरा रह सकता है। बेहतर होगा अबॉर्शन करा ले।

दो स्त्रियों का हौसला

विद्या मजबूत इच्छाशक्ति वाली करेक्टर है। जो किया, उसपर कोई पश्चाताप नहीं। जो आएगा उसका सामना करना, उससे जूझना, उसे जीना विद्या को ज्यादा पसंद है। विद्या की मजबूती के पीछे उसकी मां का भी हौसला है, जो - हे भगवान, तूने ये क्या किया - जैसे किसी संवाद से कोसने की बजाए विद्या से पूछती हैं कि तुम्हें बच्चा चाहिए या नहीं? जब विद्या बच्चे को जन्म देने की अपनी इच्छा जताती है तो मां उसे गले लगा लेती हैं। वह घर और बच्चे की पूरी जिम्मेवारी इस कदर ओढ़ लेती हैं कि विद्या का करियर न डगमगाए। दोनों स्त्रियों के इस संघर्ष और दृढ़ता की कहानी कहता है विद्या का डॉक्टर बन जाना।
विद्या और अमोल आम्टे आज की पीढ़ी का प्रतिनिधि चरित्र हैं, जबकि विद्या की मां रहन-सहन से पारंपरिक होते हुए विचारों से आधुनिक महिला की प्रतिनिधि पात्र।

पत्रकारों की नादानी

फिल्म पा दिखलाती है कि आम्टे समझदार और ईमानदार युवा एमपी है। किसी करप्शन का वह साझीदार नहीं। वह समाज के वंचित वर्ग के लिए काम करना चाहता है, पर दलाल मार्का नेता राह का रोड़ा बनते हैं। इस कड़ी में कुछ पत्रकार भी हैं, जो अपनी नासमझी और नादानी से इस रोड़े को चट्टान में तब्दील करते हैं। वह ब्रेकिंग न्यूज की हड़बड़ी में कैसे न्यूज का मर्म तोड़ते करते हैं। सेंसेशनल बनाने के चक्कर में न्यूज को डिफरेंट शेप और सेंस देते हैं। अपनी सतही जानकारी और अधकचरी सूचनाओं से दर्शकों और पाठकों को गुमराह करने वाले पत्रकारों को आईना दिखाती है यह फिल्म।

आम्टे का पश्चाताप

फिल्म जब अंत के करीब पहुंचती है, तो अमोल आम्टे को पता चलता है कि औरो उसका बेटा है। हालांकि दोनों की मुलाकात से ही फिल्म शुरु हुई है। आम्टे एमपी बन चुका है। पर तब आम्टे के लिए औरो महज एक ऐसा बच्चा है जिसे प्रोजेरिया ने जकड़ रखा है। आम्टे के भीतर उस असामान्य बच्चे के लिए सिम्पैथी के भाव हैं। वह उसकी हर मुराद पूरी करना चाहता है। इसी क्रम में कई बार वह उसके नाज-नखरे भी सहता है। वैसे तो हर बच्चे का मन बहुत कोमल होता है, पर किसी बीमार बच्चे का मन हर किसी को कुछ ज्यादा ही कोमल लगने लगता है। ऐसा ही होता है आम्टे के साथ भी। उसके मन में औरो के लिए खास जगह बन जाती है। ऐसे में जब उसे पता चलता है कि औरो का वक्त अब खत्म होने वाला है, तो बेचैन सा वह भागा चला आता है उस हॉस्पिटल में जहां औरो एडमिट है। औरो के वॉर्ड में पहुंचते ही उसकी मुलाकात विद्या से होती है और आम्टे को पता चलता है कि औरो उसका बेटा है।
एमपी बन चुके आम्टे को अपनी चूक का अहसास होता है। जिसे उसने कभी लिजलिजी संवेदना समझा था, आज उस संवेदना को महसूस कर रोमांच से भर रहा है। इस बीच आम्टे और औरो के रिश्ते की बात उसके विरोधियों और मीडिया तक भी पहुंच जाती है। सब इसे अपने तरीके से भुनाने में जुट जाते हैं। पर आम्टे बगैर किसी लाग लपेट के इस सच को स्वीकार करता है। वह स्वीकार करता है कि उसने एक नाजुक मोड़ पर जो फैसला किया था, वह गलत था और अब वह अपनी गलती को सुधारना चाहता है।
फिल्म का यह दृश्य अपने संदेश की वजह से बहुत मजबूत बन पड़ा है। किसी भी चूक की आत्मस्वीकृति के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है। क्या वाकई यह हिम्मत हममें है?

औरो के पीछे भागती एक छोटी बच्ची

पूरी फिल्म में साथ के लिए औरो के पीछे भाग रही एक बच्ची दर्शकों का ध्यान अपनी ओर बार-बार खींचती है। फिल्म हॉल में बैठे दर्शकों को कभी यह बात गुदगुदाती है तो कभी मंद मुस्कान से घेर लेती है। पर फिल्म जब अपने अंत के करीब पहुंचती है तो पूरी फिल्म में बिना संवाद के मौजूद इस लड़की की उपस्थिति की सार्थकता नजर आती है। वह हॉस्पिटल में आई है बीमार औरो से मिलने। उसके हाथ में एक कागज है। वही कागज जो वह ऑरो को इससे पहले भी देना चाहती थी, मगर औरो के भाग जाने के कारण कभी दे न पाई। इस कागज में एक स्केच बना है। यह औरो की ही तस्वीर है। पर इसमें लकीरें नहीं हैं। पूरा स्केच तैयार है सॉरी के रोमन लेटर से। वह कहती है कि वह वाकई डर गई थी पहली बार औरो को देख कर। अनजाने में उसने औरो का उपहास उड़ाया था। पर उसने उस भूल को स्वीकारने की कई बार कोशिश की, पर औरो ने उसे यह वक्त कभी नहीं दिया। वह कहती है कि जीवन में जब कोई गलती हो जाए, तो उससे दूसरों को तो दुख होता ही है, पर गलती करने वाले को जब अपनी गलती का अहसास होता है तो उसे सामने वाले शख्स से ज्यादा पीड़ा होती है।
जीवन में अगर हम भी इसी तरह चीजों को समझने लगें तो कई ऐसे रिश्ते जो टूट चुके हैं, जुड़ते नजर आएंगे।

और अब औरो की बात

औरो। बारह साल का बच्चा। प्रोजेरिया से पीड़ित। बेहद संवेदनशील। बिल्कुल अपनी मां और नानी की तरह। स्कूल के बच्चों के बीच उसकी खास पहचान। अपनी थकान से कई बार हतप्रभ सा। कई बार क्षुब्ध सा। पर ऐसा नहीं कि उसका क्षोभ दूसरों पर उतार दे। उसे पता है कि उसे मसालेदार चीजें नहीं खानी। वह नहीं खाता। खिचड़ी खा कर संतोष कर लेता है। उसे मां ने बता दिया है कि उसका पिता एमपी अमोल आम्टे है। उसे यह भी पता है कि आम्टे को उसका ही राज नहीं पता। वह कई बार आम्टे से मिलता है, पर उसे नहीं बताता है। एकाध दफे बताने को होता है फिर अपनी ही बात को बालसुलभ चंचलता से ढंक लेता है। चंचलता के इस आवरण में छुपी उसकी गंभीरता दर्शकों को लुभाती है।

निर्देशन में खटकने वाली एक बात

औरो बहुत नाजुक है। इतना नाजुक कि वह पत्थरों पर बैठ नहीं सकता। क्रिकेट के मैदान में थोड़ा दौड़ जाये तो हॉस्पिटल पहुंच जाता है। पर वही औरो जब फील्ड में या मेट्रो ट्रेन में मंकी डांस करता है, तो उसका शरीर न तो थकता है, न उसे किसी सहारे की जरूरत पड़ती है। इन दो दृश्यों में औरों का शरीर अलग-अलग तरीके से बिहेव करता है। लगता है बाल्की यहां पर मंकी डांस करवाने के लोभ का संवरण नहीं कर पाये।

Monday, November 9, 2009

मी मंदबुद्धि मुंबईकर बोलतो आहे


रामदास कदम को एनडीटीवी पर बोलते सुना। शुक्र है उनका कि यहां वह हिंदी में बोल रहे थे। उसी हिंदी में जिसमें शपथ लेते समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी के साथ उन्होंने हाथापाई की। इसे कहते हैं दुकानदारी। मराठियों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए (यह बहस का अलग मुद्दा हो सकता है कि ऐसा करने से उनकी जगह मराठियों के बीच बनी या नहीं) मराठी भाषा का झंडा उठा लें और फिर देश और दुनिया के सामने अपनी बात रखने के लिए हिंदी में बात करें। वह कह रहे हैं कि भाषा के नाम पर अबू आजमी के साथ मारपीट कर उन्होंने 11 करोड़ मराठियों का सम्मान किया है। यह अलग बात है कि यह 11 करोड़ मराठी उनका कितना सम्मान करते हैं। रामदास कदम और उनकी पार्टी का मराठियों के बीच क्या सम्मान है यह देखना हो तो देख सकते हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों पर हुए चुनाव में राज की पार्टी एमएनएस के पास मात्र 13 सीटें आई हैं। इस पार्टी को समझना चाहिए कि अगर यही रवैया रहा तो अगले चुनाव में ये अपनी पार्टी का तीन तेरह कर लेंगे। बहरहाल, रामदास कदम की आज की हरकत ने मुझे अनामदास की एक पोस्ट की याद दिला दी। मी मंदबुद्धि मुंबईकर बोलतो आहे नाम की यह पोस्ट अनामदास ने अपने ब्लॉग 'अनामदास का चिट्ठा' में 2 फरवरी 2008 को लिखी थी। लगा मंदबुद्धि रामदास कदम की करतूत के बहाने अनामदास की यह पोस्ट एक बार फिर आप सबों के सामने रखी जाये।

-अनुराग अन्वेषी

'मैं

अकेला नहीं है, मेरे साथ 'ठोक रे' जी की सशक्त विचारधारा है, हमारे साथ तोड़फोड़कर है, काँचफोड़े है, माचिसमारे है, भाईतोड़े है. हमने बहुत अन्याय सहा है, अब नहीं सहेंगे, झुनका-भाखर आधा पेट खाके हम पहले ढोकला-थेपला वालों से लड़े, फिर इडली-सांभर वालों से, उसका बाद लिट्ठी-चोखा वालों से भी लड़ेंगे.
हमारे साथ शुरू से अन्याय हुआ है. अँगरेज़ों से भी पहले मुगलों के जमाने में कोल्हापुर-सोलापुर-ग्वालियर-इंदौर तक हमारा राज रहा है लेकिन हमें आज़ादी के बाद गुजरातियों के ताबे में ला दिया, मुंबई का चीफ़ मिनिस्टर वलसाड़ का गुजराती मूत्रपायी देसाई को बनाया, मराठवाड़ा में कोई मरद माणूस नहीं था मुख्यमंत्री बनने के लिए. कहने को स्टेट का नाम मुंबई था लेकिन आज़ादी के तेरह साल बाद तक हमने भाऊ की जगह भाई को, पाटील के बदले पटेल को झेला. 1960 में जाकर हमें अलग स्टेट मिला माझा महाराष्ट्र.
आमची मुंबई अब स्टेट से कैपिटल बना, ठोक रे साहब ने देखा कि मराठी मानूस कार्टून बन गया है वो कार्टून बनाना छोड़ दिया और बाघ छाप का लाकेट बनाया जो हमने अपना गला में लटकाया. पहले सब सापड़-उडुपी बंद करा दिया, हमारा इधर का नौकरी में कोई दामले नहीं, कांबले नहीं, तांबे नहीं, पुणतांबेकर नहीं, सब वरदराजन, अय्यर, पिल्लै, अयंगार...उनको गुस्सा ऐसे नहीं आया. जो 'सामना' नहीं पढ़ता उसको कइसा समझ आएगा इतना बड़ा साजीश?
साजीश तो बहुत हुआ मराठियों के खिलाफ, दाऊद,शकील और अबू सालेम भाई लोग सब मुसलमान है, शेयर मार्केट हमारा है लेकिन उधर सोपारीवाला-खोराकीवाला-चूड़ीवाला है, फिल्म इंडस्ट्री हमारा है लेकिन उधर भी खान-कपूर है, क्रिकेट खेलता है तेंदुलकर-कांबली मगर कप्तान बनता है अज़रुद्दीन-गंगोली, मराठी पार्टी बनाई उसमें भी रायगढ़ का नहीं, रोहतास का बिहारी भइया संजय निरूपम एमपी बन गया, तांबे-खरे-खोटे सब किधर जाएँगे? उनके पास भिड़े होने के सिवा उपाय क्या है बोलो.
बोलते हैं कि भइया लोग नहीं होंगे तो दूध नहीं मिलेगा, टैक्सी नहीं चलेगा, सब्ज़ी नहीं मिलेगा, मैं कहता हूँ झुग्गी नहीं रहेगा, कचरा नहीं रहेगा, बास नहीं रहेगा...हम म्हाडा वन बेडरूम फ्लेट में गाय बाँधेंगे, टैक्सी नहीं बेस्ट का बस में जाएँगे, अमिताभ बच्चन नहीं श्रेयस तलपड़े का सिनेमा देखेंगे...
इन्हीं मराठी विरोधी प्रवृत्तियों और लोकशाही विरोधी पत्रकारों से निबटने के लिए हमारे ठोक रे साहब ने शिवाजी की प्रेरणा से सेना बनाई. हमारी सरकार बनी लेकिन दुर्भाग्य है कि बालासाहेब का भतीजा उनके बेटे जैसा दिखता है और बेटा किसी और के जैसा...इस पर भी हमारे दुश्मन ठोक रे साहेब का चरित्रहनन करते हैं.
उन्होंने देश का कितना काम किया, भारत-पाकिस्तान मैच का विरोध किया, कितना फ़िल्म का मातुश्री में स्पेशल स्क्रीनिंग कराके राष्ट्रविरोधी सीन कटवा दिया, कितनी मराठी मुल्गियों को रोल दिला दिया.
घर की बात है, मैं बाहर नहीं बोल सकता लेकिन उद्धव ठंडा है, इसीलिए ठोक रे साहब ने अपना ट्रेनिंग,आशीर्वाद और पार्टी का कमान राज को दिया था लेकिन घर का झगड़ा में उद्धव ने ठोक रे साहब को ठग लिया. राज ने सिद्धांत वही रखा है जो ठोक रे साहेब से सीखा है, बोलने का लोकशाही-करने का ठोकशाही. ठोक रे साहब को आज तक किसी ने नहीं ठोका, राज का राज नहीं है तो क्या हुआ एक दिन ज़रूर आएगा, तब तक उसका राज हमारे दिल पर है".
इतना कहकर मनोज तिवारी के घर से आ रहा मंदबुद्धि मुंबईकर भोजपुरी के दूसरे स्टार रविकिशन के घर की ओर रवाना हो गया है.
मेरा इतना ही कहना है कि मंदबुद्धि मुंबईकर कम ही मिलते हैं, ठीक वैसे ही जैसे वाघमारे ने कभी बाघ नहीं मारा होता, पोटदुखे के पेट में दर्द शायद ही होता है और हर पांचपुते से पाँच बेटे हों यह ज़रूरी नहीं है. मराठियों का जेनरलाइज़ेशन करने का इरादा बहुत ख़तरनाक है, उसके बारे में सोचना भी पाप है, इरादा सिर्फ़ उन मुंबईकरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का है जिनकी भावनाएँ निर्मल नहीं हैं.
शिव सेना और उसके मानस पुत्र महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से सहानुभूति न रखने वाले सभी मराठियों से क्षमा याचना सहित, ख़ास तौर पर जिनके सरनेम का यहाँ इस्तेमाल हुआ है, सिर्फ़ प्रांतवादी मानसिकता का उपहास करने के लिए. राज ठाकरे का समर्थक होने के लिए मराठी होना ज़रूरी नहीं है, आप जहाँ हैं वहाँ राज ठाकरे टाइप लोगों को टाइट रखें वर्ना आप भी पाप के भागी होंगे.

Tuesday, November 3, 2009

घर की याद

भवानी प्रसाद मिश्र ने यह कविता जेल में लिखी थी। चूंकि वह भी देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे, लिहाजा, कुछ वक्त के लिए अंग्रेजों ने उन्हें भी जेल में कैद कर लिया था। जब वह जेल में थे बारिश का मौसम था। तेज बारिश हो रही थी। घर की याद उन्हें बेतरह आ रही थी। तो उस वक्त उन्होंने घर को याद कर जो लिखा, वह हमारे सामने 'घर की याद' कविता के रूप में सामने आई। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं की एक बड़ी खासियत है उसमें इस्तेमाल सहज-सरस शब्द। जितने आसान शब्द उतनी ही नायाब अभिव्यक्ति। काश! ऐसी अभिव्यक्ति का सलीका हमारे पास भी होता...






आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,

अब सबेरा हो गया है,
कब सबेरा हो गया है,
ठीक से मैंने न जाना,
बहुत सो कर सिर्फ़ माना -

क्योंकि बादल की अँधेरी,
है अभी तक भी घनेरी,
अभी तक चुपचाप है सब,
रात वाली छाप है सब,

गिर रहा पानी झरा-झर,
हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सरसर,
काँपते हैं प्राण थर-थर,

बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,
घर खुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर!

आज का दिन-दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,

घर कि घर में सब जुड़े हैं,
सब कि इतने कब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ बिन-पढी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी,
माँ कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुख नहीं फ़िर,

माँ कि जिसकी स्नेह धारा,
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना नही आता,
जो कि उसका पत्र पाता।

और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक घिर रहा है,
पिताजी भोले औ' बहादुर,
वज्र-सा भुज, नवनीत-सा उर,

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलायें,

मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,
काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ कर के,
दंड दो सौ साठ करके,
खूब मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,

अब कि नीचे आए होंगे,
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनको पड़े होंगे।

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
रो पड़े होंगे बराबर,
पाँचवें का नाम लेकर,

पाँचवां मैं हूँ अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा,
पिताजी कहते रहे हैं,
प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उनपर सुहागा,
बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा,
आँख में किस लिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,

वह तुम्हारा मन समझ कर,
और अपनापन समझ कर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,
इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेंगे और बच्चे,

पिताजी ने कहा होगा,
हाय, कितना सहा होगा,
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ।

गिर रहा है आज पानी,
याद आता है भवानी,
उसे थी बरसात प्यारी,
रात दिन कि झड़ी झारी।

खुले सिर नंगे बदन वह,
घूमता फिरता मगन वह,
बड़े बाड़े में कि जाता,
बीज लौकी का लगाता,

तुझे बतलाता कि बेला,
ने फलानी फूल झेला,
तू कि उसके साथ जाती,
आज इससे याद आती,

मैं न रोऊँगा - कहा होगा,
और फ़िर पानी बहा होगा,
दृश्य उसके बाद का रे,
पाँचवें कि याद का रे,

भाई पागल, बहिन पागल,
और अम्मा ठीक बादल,
और भौजी और सरला,
सहज पानी, सहज तरला,

शर्म से रो भी न पाएँ,
खूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा,

अभी पानी थम गया है,
मन निहायत नम गया है,
एक-से बादल जमे हैं,
गगन-भर फैले रमे हैं,

ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरनें झुकें-झाकें,
लग रहे हैं वे मुझे यों,
माँ कि आँगन लीप दें ज्यों,

गगन-आँगन कि लुनाई,
दिशा के मन में समाई,
दश-दिशा चुपचाप हैं रे,
स्वस्थता कि छाप हैं रे,

झाड़ आँखें बंद करके,
साँस सुस्थिर मंद करके,
हिले बिना चुपके खड़े हैं,
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,

एक पंछी बोलता है,
घाव उर के खोलता है,
आदमी के उर बिचारे,
किसलिए इतनी तृषा रे,

तू ज़रा-सा दुःख कितना,
सह सकेगा क्या कि इतना,
और इस पर बस नहीं है,
बस बिना कुछ रस नहीं है,

हवा आई उड़ चला तू,
लहर आई मुड़ चला तू,
लगा झटका टूट बैठा,
गिरा नीचे फूट बैठा,

तू कि प्रिय से दूर होकर,
बह चला रे पूर होकर,
दुःख भर क्या पास तेरे,
अश्रु सिंचित हास तेरे,

पिताजी का वेश मुझको,
दे रहा है क्लेश मुझको,
देह एक पहाड़ जैसे,
मन कि बड़ का झाड़ जैसे,

एक पत्ता टूट जाए,
बस कि धरा फूट जाए,
एक हलकी चोट लग ले,
दूध कि नदी उमग ले,

एक टहनी कम न होले,
कम कहाँ कि ख़म न होले,
ध्यान कितना फिक्र कितनी,
डाल जितनी, जड़ें उतनी।

इस तरह का हाल उनका,
इस तरह का ख्याल उनका,
हवा, उनको धीर देना,
यह नहीं जी चीर देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें,

मैं मजे में हूँ सही है,
घर नही हूँ बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,

किंतु उनसे यह न कहना,
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,

काम करता हूँ कि कहना,
नाम करता हूँ कि कहना,
चाहते हैं लोग कहना,
मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,
वजन सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुःख डटकर ठेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं,
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे बरसें,
पाँचवें को वे तरसें।

Tuesday, October 27, 2009

अश्लील कौन : मकबूल फिदा हुसैन, बिहारी लाल, प्रेमचंद या कि हम


मैं
ने कई बार कई जगहों पर पढ़ा और सुना है कि मकबूल फिदा हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं की कई अश्लील पेंटिंग बनाई थी। इसी कड़ी में सरस्वती की तस्वीर भी थी। गर एम. एफ. हुसैन का विरोध इसी मुद्दे पर हिंदू कर रहे हैं तो मुझे लगता है कि मकबूल फिदा हुसैन वाकई हिंदू जनमानस को बहुत करीब से समझते हैं। क्योंकि सिर्फ इसी बात को मुद्दा बना कर विरोध करने वालों के भीतर बसी सरस्वती वाकई नंगी है, वरना उन्हें यह समझ होती कि चंद लकीरों से उकेरी गई कोई नंगी तस्वीर मां सरस्वती की कैसे हो सकती है?

मां सरस्वती के जिस रूप को हम और आप बचपन से जानते रहे हैं वह तो धवल वस्त्रों में लिपटी हुई हंसवाहिनी और वीणावादिनी वाली मुद्रा है। उनके चेहरे पर गरिमामयी मुस्कान है, ओज है...और पता नहीं क्या-क्या। यानी, उक्त गुणों में से कोई भी एक गुण जिस तस्वीर में हमें न दिखे, वह मां सरस्वती की तस्वीर हो नहीं सकती, भले ही कोई लाख चीख-चीख कर क्यों न बोले। क्या आप किसी ऐसी तस्वीर को मां सरस्वती की तस्वीर के रूप में स्वीकार करना चाहेंगे जो हंस के बदले कौवे पर बैठी हो? जाहिर है नहीं। तो फिर बगैर कपड़े वाली तस्वीर में आपको मां सरस्वती कहां से दिख गई?

कहना यह चाहता हूं कि भले ही हुसैन ने उस तस्वीर पर लिख दिया हो सरस्वती, पर वह आपकी 'मां सरस्वती' नहीं है। फर्ज कीजिए सरस्वती की जगह उसने लाली लिखा होता, तब भी क्या आप इसी तरह विऱोध करते? या फिर काली लिखा होता तो क्या करते? क्योंकि यह तो कड़वा सच है कि कपड़ों के संग तो काली की कोई तस्वीर अभी तक नहीं दिखी। हां, हर तस्वीर में कलाकार यह कमाल जरूर दिखाता है कि मुंडमालाओं से उनके अंग विशेष लगभग ढक जाते हैं।

आपके इस विरोध के क्रम में आपको एक घाटा यह जरूर हुआ कि आप हुसैन की एक लाजवाब पेंटिंग को निहारने से चूक गए। उनके सधे ब्रश स्ट्रोक्स और कलर कॉम्बिनेशन की तारीफ करने का अवसर आपके हाथ से फिसल गया। इतना ही नहीं विरोध के दौरान आपने अपनी एनर्जी जाया की। यही एनर्जी अगर बचा कर रखी जाये, अपने आक्रोश को अगर आप तरतीब देना सीख जायें तो शायद इस समाज में हर दिन उतर रहे किसी काली, किसी दुर्गा, किसी सरस्वती, किसी लक्ष्मी, किसी राधा, किसी सीता, किसी द्रौपदी के वस्त्र की रक्षा कर सकेंगे।

इस तरह, उनकी बनाई तस्वीर अश्लील नहीं थी। मकबूल जैसे कलाकार को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई जैसी श्रेणी में बांटना, मुस्लिम होने के नाम पर उनका विरोध करना और उनकी बनाई किसी न्यूड स्त्री की तस्वीर में मां सरस्वती का रूप देखना वाकई अश्लील है।

शब्दों से भी तस्वीर बनाई जाती है। रीतिकाल के कवियों ने नायक और नायिका के कार्य-व्यापारों का वर्णन पूरे मनोयोग से किया है। उनकी रचनाएं हिंदी साहित्य के कोर्स का हिस्सा तो हैं ही, हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका स्थान बहुत ऊंचा भी है। पर इस देश में यह भी मुमकिन है कि अचानक कोई स्वयंभू आलोचक पैदा हो जाये और कहे कि ये रीतिकालीन कवि तो बेहद कमबख्त थे। बड़ा ही अश्लील साहित्य रचते थे।

ये लोकतांत्रिक देश है। धूमिल ने लिखा था - मेरे देश का प्रजातंत्र / मालगोदाम में लटकी बाल्टी की तरह है / जिस पर लिखा होता है आग / और भरा होता है / बालू और पानी / ...। तो इस देश के लोकतंत्र ने धूमिल की इन पंक्तियों को खारिज करते हुए बताया कि बालू और पानी नहीं भरा होता है, हममें आग ही भरा है। यह लीजिए जिस प्रेमचंद को आप सम्मान देते हैं, उसे तो लिखने का भी शऊर नहीं था। जाति-विशेष के लिए असम्मानजनक टिप्पणी लिखने का दुस्साहस किया था उसने, सो देखिए उसकी किताबों का हश्र। कैसे धू-धू करके आग में जल रही हैं।

मित्रो, बताएं आप कि प्रेमचंद का लिखना अश्लील था या उनकी किताबों को जलाना या फिर जलती किताबों को देख कर भी हमारा चुप बैठना?

Wednesday, October 7, 2009

मुंहबोली बहन से रिश्ता अवैध है?

आज से नवभारत टाइम्स डॉट कॉम ने अपनी वेबसाइट पर ब्लॉग की शुरुआत कर दी है। कुल 12 ब्लॉगर्स हैं फिलहाल। जाहिर है यह संख्या बढ़ेगी। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक या कह लें कि तमाम तरह के मुद्दों पर वहां चर्चा होगी। मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स डॉट कॉम पर आया है।

-अनुराग अन्वेषी



लां की पत्नी फलां के साथ भाग गई या फलां के पति का फलां से अवैध संबंध है - ऐसी बातें हम और आप अक्सर सुनते आए हैं। कई बार तो इसे अफवाह कहकर हम लोग लाइटली लेते हैं, पर कई बार ऐसी बातों पर हुआ रिऐक्शन सारी हदें पार कर जाता है। कुछ की जान जाती है, कुछ घायल होते हैं। बाद में पूरा प्रकरण जब मीडिया में आता है तो उसे अवैध संबंधों के खिलाफ उपजे आक्रोश की परिणति के तौर पर लोग स्वीकार कर लेते हैं।

पर अक्सर मेरे मन में एक सवाल कुलबुलाता है कि क्या कोई संबंध अवैध भी हो सकता है। दरअसल, संबंध तो अच्छे और बुरे होते हैं। अवैध तो उसे हमारा स्टेटमेंट करार देता है। यानी, जिन रिश्तों का हम पुरजोर विरोध करना चाहते हैं, जिन रिश्तों का बनना और बने रहना हमें कुबूल नहीं होता उनके लिए विशेषण के तौर पर अवैध शब्द का इस्तेमाल हम कर लेते हैं। अपनी नफरत और नापसंद को व्यक्त करने वाला कोई शब्द तलाशने की बजाए हम उस रिश्ते को खारिज करने की कोशिश करते हैं। उसे सामाजिक संदर्भ में इलीगल घोषित कर देते हैं। गौर से देखें तो 'अवैध' शब्द हमारे नफरत के एक्स्प्रेशन को नहीं रखता, बल्कि हमारे द्वारा जारी किए गए फतवे को रखता है। यह अलग बात है कि सामाजिक ठेकेदारों द्वारा घोषित इस फतवे को हम फतवे की तरह नहीं समझते बल्कि उसका सामाजिक संदर्भ तलाशते हुए जस्टिफाई करते हैं। क्योंकि अवैध करार देने के फतवे के बारे में 'निठल्ला चिंतन' करने का वक्त भेड़चाल में शामिल लोगों के पास बेहद कम होता है।

ऐसे शब्द का इस्तेमाल करने वालों का विरोध जताने के लिए क्या मुझे यह कहना चाहिए कि अवैध शब्द का इस्तेमाल वे अवैध तरीके से कर रहे हैं? मेरी निगाह में इस शब्द का इस्तेमाल मुझे इस संदर्भ में नहीं करना चाहिए।

क्या किसी ऐसे रिश्ते को हमें 'वैध' कहना चाहिए जिसमें पति-पत्नी दोनों साथ तो रहते हों, पर जब भी साथ चलते हों एक-दूसरे का पैर कुचलते हों, लड़खड़ा कर बार-बार गिरते हों और हर बार घायल होकर फिर खड़े होते हों, साथ चलने के लिए नहीं, लड़ने के लिए? या उस रिश्ते को 'वैध' कहना चाहिए जहां परस्पर दो अजनबियों के बीच पहचान बनती है, फिर वह बढ़ती है, एक-दूसरे का सुख-दुख समझती है, साझा करती है, तमाम दुख और तकलीफ के बीच साझे सुख की तलाश करती है?

जब रिश्तों की बात चल निकली है तो यह जरूर बताएं कि रिश्तों को 'अवैध' घोषित करने का आपका पैमाना क्या है? क्या वंश परंपरा के खांचे में जिन रिश्तों को देखते-सुनते आए हैं, या समाज के पारंपरिक ढांचे में जिन रिश्तों को जीते आए हैं, सिर्फ वही 'वैध' हैं? उससे इतर सारे रिश्ते 'अवैध'? वाकई, अगर आपका पैमाना यही है, तो कहना चाहूंगा कि अपने भीतर की इस जड़ता को जितनी जल्द हो सके तोड़ डालें। बंधु! रिश्तों की दुनिया बहुत बड़ी और बहुत जटिल है। इसका बहाव आपके छोटे-मोटे फतवे नहीं रोक सकते। किसी रिश्ते को यूं खारिज भी नहीं कर सकते आप।

क्या अब तक किसी ऐसे बाप के खिलाफ आवाज बुलंद करने की कोशिश की है आपने, जिसने 'वैध' बेटी के साथ बलात्कार किया? या किसी ऐसे 'वैध' भाई, मामा, चाचा... की गर्दन पकड़ी है आपने, जिसने अपनी करतूत से अपनी 'वैध' बहन, भगिनी, भतीजी... को डर और घृणा के जंगल में पहुंचा दिया? क्या ऐसे नामाकूलों के रिश्ते वाकई 'वैध' हैं? क्या ऐसे लोग रिश्ते का एक कतरा भी पहचानते हैं? आए दिन वंश परंपरा और सामाजिक खांचे को तोड़ने वाली खबरें आपके 'वैध रिश्तों' की पोल खोलती हैं। फिर भी आप वैध और अवैध के पचड़े से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

इस 'अवैध' का पैमाना तलाशने में एक संदेह और सिर उठा रहा है। दो अलग-अलग वर्ण, समुदाय या देश के लड़का और लड़की एक-दूसरे के परिचित हो जाएं और एक-दूसरे को भाई-बहन मानें, तो आपकी निगाह में यह भी 'अवैध रिश्ता' होगा। होना ही चाहिए, क्योंकि इन दोनों के रिश्ते में न तो कोई एक वंश परंपरा है, न कोई समाज परंपरा। तब तो फिर इस अर्थ में तमाम मुंहबोली बहनों और मुंहबोले भाइयों के रिश्ते 'अवैध' हैं?

उम्मीद है यहां पर आपका जवाब 'ना' होगा। और इस 'ना' के पीछे तर्क होगा कि भाई-बहन के रिश्ते पवित्र होते हैं, इस रिश्ते में सेक्स की कोई जगह नहीं होती। यानी, ले-देकर फिर आप अपने उसी मर्दवादी नजरिए के साथ खड़े हो गए, जहां वैध-अवैध रिश्तों को परिभाषित कर रहा है गैर स्त्री-पुरुष से बना शारीरिक संबंध।

जरा सोचें, एक स्त्री या पुरुष का शारीरिक संबंध दूसरे पुरुष या स्त्री से क्यों बन जाता है। इसकी पड़ताल के लिए हमें सामाजिक ढांचे की ओर लौटना होगा। इस समाज में हर शख्स एक साथ कई-कई भूमिकाओं में जीता है। स्त्री है, तो वह किसी की मां होगी, किसी की बेटी, किसी की बहू, किसी की सास, किसी की पत्नी, किसी की बहन, किसी की दोस्त किसी की दुश्मन भी....। इसी तरह पुरुष भी कई भूमिकाओं को जीता है। कई भूमिकाओं की जरूरत क्यों पड़ जाती है? इसीलिए तो कि मन और तन की तमाम परतों की अलग-अलग जरूरतें हैं। इन जरूरतों को किसी एक भूमिका में रहते हुए किसी एक चरित्र के साथ पूरा नहीं किया जा सकता।

जीवन में सेक्स की पूर्ति उतनी ही अनिवार्य है जितना जिंदा रहने के लिए सांस लेना। पैदा हुआ बच्चा जब मां का दूध पीता है तो उसका एक हाथ अपनी मां की छाती पर होता है। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, ऐसा करने से बच्चे के भीतर सहज रूप से (पर अचेतन में) बह रही सेक्स की भूख शांत होती है। बच्चे के अंगूठा पीने को मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि ऐसा होने की वजह 'कामक्षुधा की पूर्ति' है।

जब यह काम तत्व हमारे जीवन में बचपन से रचा-बसा है, तो इसकी आधी-अधूरी पूर्ति किसी भी शख्स को भटका सकती है। आपका तर्क हो सकता है कि ऐसा नहीं है वर्ना भटकने वालों की भीड़ दिखती रहती। मैं भी सहमत हूं आपकी बात से। पर यह भी देखें कि भटकने वालों की बड़ी जमात तो नहीं है इस देश में, पर न भटकने की वजह से तरह-तरह के अवसादों से घिरे लोगों की जमात तो है ही अपने सामने। हां, भटकने वालों का परसेंटेज कम है। पर इन 'कम लोगों' के भटक जाने का दोषी आखिर है कौन? जाहिर तौर पर उनका पार्टनर। अगर उसने अपने बेचैन और अतृप्त पार्टनर का ख्याल रखा होता तो भटकने की नौबत तो नहीं ही आती, आपको अवैध का फतवा भी जारी नहीं करना पड़ता। यहां पर एक सवाल और - फिर भटकने वाला दोषी कैसे हुआ? जाहिर है यहां मैं अब भी आपके खिलाफ और 'अवैध' संबंध वालों के पक्ष में खड़ा हूं। यह बहुत सहज-स्वाभाविक धारा है, इसे समझने की कोशिश करें, फतवे जारी कर रोकने की नहीं।

चलते-चलते बचपन में सुनी एक बात आपसे शेयर करता चलूं। एक छींक का मतलब होता है - शुभ। दूसरी छींक का अशुभ, तीसरी छींक घोर अशुभ। चौथी-पांचवीं-छठी-सातवीं-आठवीं छींक लगातार आए तो शुभ-अशुभ के फेर से निकल आएं और तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें क्योंकि ये जुकाम होने के संकेत हैं। कहने का मतलब यह कि किसी के एक-दो से अगर किसी के शारीरिक संबंध बन भी गए हों, तो उसे नजरअंदाज करें, पर अगर ऐसे संबंधों की संख्या तीन, चार, पांच, दस होने लगे, तो मेरी गुजारिश है; कृपया मेरे तर्कों को नजरअंदाज कर मान लें कि यह गंभीर केमिकल लोचा है, जिसे हम व्यभीचार के रूप में जानते हैं।

Friday, August 28, 2009

अब विवेक की कविता उड़ा ली गई

विवेक ने एक बेहद खूबसूरत कविता लिखी है। यह कविता उसने हरियाणा से लौटने के बाद लिखी थी। शीर्षक है - कत्ल से पहले बहनें, बहनों के कत्ल के बाद। उसके ब्लॉग 'थोड़ा सा इंसान' पर 27 जुलाई की पोस्ट है यह। बेशक संवेदना को झकझोर कर रख देने वाली कविता है। आप भी सुनें। पर सिर्फ सुने ही नहीं, बल्कि यह भी सोचें कि यह जो भाई नाम का जीव है वह बहनों के कत्ल से पहले भी मर्द है और बहनों के कत्ल के बाद भी मर्द है, आखिर क्यों? कैसे बदले यह स्थिति, कैसे बदले उसका मर्दवादी सोच?

Tuesday, July 28, 2009

उसका सुख मेरे सुख से बड़ा कैसे?

यह है मणिराम। हिंदी में एमए पास का दावा करनेवाले इस रिक्शेवाले से मेरी मुलाकात तकरीबन 10 दिन पहले हुई थी। पिछले शनिवार को नवभारत टाइम्स के कॉलम 'आंखों देखी' में इसे जगह मिली। हालांकि आज जब मैं इसे अपने ब्लॉग पर पब्लिश कर रहा हूं, तीखी धूप को कल रात हुई बारिश बहा ले गई है। पर मणिराम से मिलने के बाद जो कसक पैदा हुई मन में उसका तीखापन अब भी बरकरार है।

-अनुराग अन्वेषी



ती
खी धूप है। दफ्तर जाने के लिए सोसाइटी से बाहर निकला हूं। रिक्शावाला पूछता है - कहां जाना है? मैंने चुटकी ली, जाना तो है बहुत दूर, कहां पहुंचा सकते हो? रिक्शावाला हाजिरजवाब निकला, कहता है जिन्हें मंजिल का पता होता है, वह दूसरों के सहारे के बगैर ही पहुंचते हैं। मुझे अच्छी लगी उसकी हाजिरजवाबी। बात जारी रखता हूं। पूछता हूं कि गर्मी का क्या हाल है? तपाक से कहता है, लोग पिघल रहे हैं, भगवान नहीं। मन ही मन चौंकता हूं, पर उसके सामने जाहिर नहीं होने देता। थोड़ी चुप्पी बन गई। फिर मैंने उससे पूछा, सिगरेट जलाना है, माचिस है तुम्हारे पास? छूटते ही उसने कहा, जलाते हो सिगरेट, जलते हो आप, क्यों साब? कैसा है यह हिसाब?

अब मुझे लगा कि उससे उसका परिचय तो पूछ ही लूं। उसने बताया मध्यप्रदेश का रहने वाला है वह। नाम है मणिराम। हिंदी में एमए कर रखा है उसने। पर कोई रोजगार नहीं मिला, तो अपने एक परिचित के साथ चला आया गाजियाबाद के वसुंधरा में। मैट्रिक तक पढ़ी उसकी पत्नी दूसरों के घरों में बर्तन-बासन, झाड़ू-पोंछा करती है। वह खुद रिक्शा चलाता है। दोनों मिलकर महीने में तकरीबन 5000 रुपये कमा लेते हैं।

उसके पढ़े-लिखे होने की बात सुन लेने के बाद इस व्यवस्था के प्रति मन इतना खट्टा हो जाता है कि मेरे पास कहने को कुछ नहीं रह जाता। बावजूद, जबर्दस्ती बातचीत जारी रखता हूं। किस दौर की कविता तुम्हें ज्यादा पसंद है, मैं पूछता हूं मणिराम से। पर सच है कि मैं उसका परिचय सुनने के बाद अपने से जिरह करने लग गया हूं। मैं भी हिंदी में एमए पास हूं। सोचता हूं वह पढ़ाई-लिखाई में जितना भी गया गुजरा होगा तो भी कई ऐसे लोगों से बेहतर होगा जो आज उसका दस गुणा कमा रहे हैं। पर मणिराम अपनी स्थिति से संतुष्ट है। उसे जिंदगी से शिकायत नहीं। एक तरफ मेरे जैसे लोग हैं जो शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठे हैं। जरा सी कोई बात हुई नहीं कि काट खाने को दौड़ेंगे। मैं पसीने से तरबतर हो चुका हूं। जेब से रुमाल निकालता हूं चेहरा पोंछने के लिए और मणिराम इस भरी दोपहर में पूरे इत्मीनान के साथ रिक्शा खींच रहा है। जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां सुनाता हुआ - हिमाद्री तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्वला, स्वतंत्रता पुकारती, अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो-बढ़े चलो... साब जी मंडी आ गयी। यहीं मेरी तंद्रा टूटती है। रिक्शे से उतर कर मणिराम को पैसे देता हूं। ऑटो वाला मेरे इशारे पर रुक चुका है। ऑटो में बैठ कर जा रहा हूं, पर मुझे लगता है कि मैं अब भी रुका हूं मणिराम के पास, अपनी खुशियां, अपनी संतुष्टि तलाशता हुआ। लगता है, एमए बहुत दूर की बात है, मैंने तो अभी जिंदगी की पहली कक्षा की भी पढ़ाई नहीं की।

Tuesday, June 30, 2009

दफ्तर में करने को कुछ नहीं, ये है न !

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Tuesday, June 2, 2009

सात सुरों की धुन (पापा का ब्लॉग)

साथियो, आज से मेरे पापा ने भी ब्लॉगिंग शुरू कर दी। ब्लॉग का नाम रखा है सात सुरों की धुन। उनका इरादा है कि इस ब्लॉग पर वह अपनी कविता, गीत और गजल पोस्ट किया करेंगे। लेख, कहानी, आलोचना या समीक्षा के लिए एक दूसरा ब्लॉग वह तैयार कर रहे हैं। उसका नाम दिया है उन्होंने - जो अनकहा रहा।
तो फिर आप देखें उनका पहला ब्लॉग - सात सुरों की धुन

Wednesday, May 27, 2009

आप भी देखें मेरी दुर्दशा


रमणजीत के हर इलस्ट्रेशन में एक नई चमक दिखती है, एक नया आयाम दिखता है। उन्होंने मेरे आग्रह पर यह इलस्ट्रेशन तैयार किया। और सच कहूं तो इस इलस्ट्रेशन को देखने के बाद मेरा परिचय मेरे चेहरे की कुछ लकीरों से हुआ। कितना रोमांचक होता है अपने चेहरे को दूसरे के ब्रश से जानना! वाकई, रमणजीत बढ़िया कलाकार हैं।

Thursday, May 7, 2009

मत करें दान, करें मतदान

गीदड़ कहता शेर से
नया जमाना देख
एक वोट तेरा पड़ा
मेरा भी है एक

पता नहीं किसकी पंक्तियां हैं यह। पर यह सच है कि वह जमाना लद गया जब शेर जैसे लोग बाकी तमाम लोगों को गीदड़ सरीखा समझते थे। अपनी गीदड़ भभकियों से सबको डराते फिरते थे। साथियो, लोकतंत्र का यह पर्व इस बार हमारे लिए शर्मनाक हादसा न बने, इसके लिए बेहद जरूरी है कि हम अपनी खोल से बाहर निकलें। विचार करें, अंधों की जमात में बैठे किस काने राजा को वोट देना है। ऐसे ही बदलेंगी स्थितियां। आज अंधों में काना राजा दिख रहे हैं कल कानें राजाओं के बीच आंख वाले सेवक दिखलायी देंगे। इस बदल रही व्यवस्था को पूरी तरह हम और आप ही बदल सकते हैं इसलिए वाकई यह जरूरी है कि तमाम जरूरी काम को हाशिये पर रख इस जरूरी महापर्व में हम शरीक हों। अंत में कहना सिर्फ इतना है कि मत करें दान, करें मतदान।

Wednesday, May 6, 2009

संकोच में फंस गया हूं

नमिता जोशी मेरी अच्छी दोस्त हैं। उन्होंने मुझे एक मेल किया और जिद ठान ली कि इसे मैं पोस्ट के रूप में अपने ब्लॉग पर डालूं। संकोच के साथ मैं उनकी इस जिद भरी गुजारिश पूरी कर रहा हूं।

-अनुराग


आज आप सब लोग जिरह के सरताज अनुराग अन्वेषी जी को जन्मदिन की शुभकामनाये दे सकते हैं. आज ही के दिन इस कलाकार ने इस धरती पर कदम रखा था. शब्दों के जादूगर अनुराग को मेरी ओर से happy Birthday .. इसके साथ ही आज के दिन आप सब यह भी बताये की अनुराग जी के बारे में आप क्या सोचते हैं...
-namita

Sunday, May 3, 2009

आगरा हो या दिल्ली : हालात हर जगह एक से हैं

नमिता शुक्ला को दिल्ली आए हुए अब साल भर होने जा रहा है। स्वभाव से वह निर्भीक हैं और पेशे से पत्रकार। वह मानती हैं कि डर नाम का भाव हम सबों के भीतर बसा होता है। और कोई भी छोटी-सी घटना उस डर को उभार सकती है। तकरीबन दो साल पहले आगरा के एक अखबार से बतौर क्राइम रिपोर्टर उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की थी। वहां वह फोटोग्राफर की भूमिका भी निभाती थीं। आगरा का एक संस्मरण वह यहां शेयर कर रही हैं।

-अनुराग अन्वेषी

बा

त दो साल पहले की है, मैंने आगरा में नौकरी ज्वॉइन की थी। रहने का ठौर मिला था मौसी के पास। मेरे घर के लोग भी इतमिनान में थे कि चलो, बेटी अपनी मौसी के घर में रह रही है। मौसी का घर सिकंदरा में था जबकि मेरा ऑफिस संजय प्लेस में। दिन भर की नौकरी बजा कर रात तकरीबन 8 बजे घर लौटती थी अपनी एक्टिवा बाइक से। सब कुछ सामान्य चल रहा था। एक रोज मुझे ऑफिस से निकलने में थोडी देर हो गयी। तकरीबन 8:30 बजे मैं घर के लिए निकली। सिकंदरा हाइवे से होते हुए घर जा रही थी।

थोडी देर बाद ही मुझे लगा कि कोई गाड़ी मेरा पीछा कर रही है। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मेरा शक सही निकला। एक टाटा सूमो में बैठे कुछ लोग मेरा पीछा कर रहे थे। मैंने अपनी एक्टिवा की स्पीड बढ़ा दी। इसके साथ ही टाटा सूमो की भी स्पीड बढ़ गयी। अनिष्ट की आशंका से पलक झपकते ही मेरा मन बुरी तरह घबरा गया। बगैर विचारे मेरी गाड़ी की स्पीट 70-80 होने लगी। पर यह काफी नहीं थी। सूमोसवार मेरी बगल में पहुंच चुके थे। उसमें से कुछ लड़के सिर बाहर निकालकर चिल्लाने लगे। उस वक्त मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। लेकिन शायद मुसीबत सामने होती है तो हिम्मत अपने आप ही आ जाती है। मैंने गाड़ी की स्पीड और बढा दी। अपनी अब तक की लाइफ में सबसे तेज़ गाड़ी उसी दिन चलायी थी। सिकंदरा आने से कुछ पहले ही रास्ते में पंछी पेठे कि दुकान पड़ती है। मैंने देखा वहां काफी लोग खड़े हैं, दुकान पर अच्छी खासी भीड़ थी। वहां मैंने अपनी गाड़ी रोक दी। दुकान पर भीड़ देख सूमो वाले आगे निकल गये।

हिम्मत नहीं हो रही थी पर मैंने घर जाने के लिए शॉर्टकट रास्ते का इस्तेमाल किया। सकुशल घर पहुँचते ही सबसे पहले छत पर गयी और खूब रोई। मुझे उस वक्त घर के एक-एक लोग बेहद याद आए। उस दिन मुझे अहसास हुआ कि समाज चाहे कितना भी प्रगतिशील क्यों न हो जाए, हम लड़कियां कई बंधनों में जकड़ी हैं। असुरक्षा का टोप पहन हमें इस आजाद समाज में रहना है...

Thursday, April 30, 2009

ब्लॉगर साथियो से अपील

साथियो,
अभिनीत मेरा भांजा है। उम्र से महज 12 साल, पर बुद्धि से 21 साल वालों बड़ा। पटना में रहता है। सेवेंथ का स्टूडेंट है। बगैर किसी की मदद के उसने बना लिया है अपना ब्लॉग। खास बात यह कि उसे ब्लॉग बनाने की प्रेरणा मिली अपनी मां को ब्लॉगिंग करते देख, जो पेशे से डॉक्टर हैं। कहना पड़ेगा एक बार फिर कि वाकई किसी बच्चे की पहली शिक्षिका मां ही होती है। एक बाल मन का ब्लॉग कैसा होता है - देखना हो तो एक बार जरूर देखें : गिरह
मेरी गुजारिश है कि गिरह पर जाकर अपनी राय से अभिनीत को जरूर अवगत कराएं। जाहिर है इससे उसका हौसला बढ़ेगा।

Tuesday, April 21, 2009

मां की गोद का जादू

आज पता नहीं क्यों, सुबह से ही मन काफी अशांत था। बचपन की तमाम यादें सिरहाने आकर बैठ गयी थीं। उन दिनों में लौटने को जी मचल-मचल जा रहा था। पर यह मुमकिन न था। इन सब के बीच मां बेतरह याद आती रही। जाहिर है मेरी बेचैनी दुनी हो गई। क्या करता, अपनी पुरानी कविताएं पढ़ने लगा। इसी बीच मां को याद कर लिखी कविता मेरे सामने आ गई। हालांकि वह कविता इस ब्लॉग पर काफी पहले डाल चुका हूं, पर एक बार फिर से इसे दूसरे रूप में आपके सामने रखने की चाह हुई।


दिल्ली इज नॉट सेफ फॉर गर्ल्स


डर सिर्फ स्त्रियों को ही नहीं लगता, डरते पुरुष भी हैं इस माहौल में। आने वाले दिनों में इस ब्लॉग पर पुरुषों के भी ऐसे अनुभव आपको पढ़ने को मिलेंगे। फिलहाल कात्यायनी उप्रेती ने अपना यह अनुभव हम सबों के लिए लिख भेजा है। वह दिल्ली में रहकर पत्रकारिता कर रही हैं :

-अनुराग अन्वेषी

दि

दिल्ली इज नॉट सेफ फॉर गर्ल्स'। राजधानी में लड़कियों की सेफ्टी पर जब भी बात उठती है, इसी लाइन से शुरू होकर इसी पर खत्म होती है। लड़कियों से पूछा जाए, तो शायद हर लड़की किसी न किसी ऐसी घटना से गुजरी है, जिसे हमारा कानून 'क्राइम' कहता है। खुद की बात करूं, तो जब भी इस इश्यू पर सोचती हूं, तो मुझे मेरे और दोस्तों-परिचितों के कई अनुभव याद आते हैं। वे अनुभव जो बार-बार कहते हैं कि इस समाज का बड़ा हिस्सा आज भी लड़कियों को ऑब्जेक्ट मानता है।

अभी कुछ दिनों पहले की तो बात है। मेरा ऑफ डे था और इंडियन हैबिटैट सेंटर में शाम 7 बजे से एक प्रोग्राम। जाने का मन था लेकिन दिमाग ने सवाल किया - लौटने में प्रॉब्लम तो नहीं होगी? मन ने कहा - चल यार...। दिन में मां से फोन पर बात हुई, तो प्रोग्राम की बात निकल गई। वह फट से बोली - रहने दे, रात हो जाएगी... वैसे भी दिल्ली सेफ नहीं। खैर, मैं चली गई। प्रोग्राम और लोगों से मुलाकातें अच्छी लगीं। लेकिन मेरी नजरें रह-रहकर घड़ी देखने लग जाती थी। रात 8:30 बजे मैं मेन रोड पर थी। सड़क पर अभी लोग दिख रहे थे। तीन ऑटो दिखे, मजबूरी का फायदा उठाने के लिए तैयार, अपने दोगुने दामों के साथ। मैंने बस से जाना तय किया। कुछ कदम आगे रोड के किनारे एक गाड़ी के सामने खड़े 32-33 साल के शख्स से पूछा - एक्स्क्यूज मी, सामने जो स्टैंड है वहां से साउथ एक्स के लिए बस मिलेगी? आदमी ने एक चीप स्माइल पास की और बोला - कितने पैसे दोगी मैडम, मैं अपनी ही गाड़ी में छोड़ दूंगा। देखने से वह गाड़ी का ड्राइवर लगा। मेरे भीतर गुस्सा और डर ने फौरन सिर उठाया। उसकी बेशर्म मुस्कान बरकरार थी और वह जवाब के इंतजार में था। उसके चेहरे के भाव देखकर मेरे डर को ओवरटेक करता हुआ गुस्सा मेरे पास आ गया, जिसने हिम्मत जनरेट कर दी और मैंने कहा - अभी 100 नंबर पर फोन करूंगी, पुलिस की गाड़ी फ्री में घर छोड़ेगी। यह सुनते ही फट से वह दूसरी गाडिय़ों के पीछे होते हुए ओझल हो गया। एक मिनट बाद मैं स्टैंड में थी और दो मिनट बाद एक ठसी बस में। बस में चढ़ते ही मैंने अपने जेंडर की तलाश की। दो दिखीं तो चैन मिला। घर पहुंचते ही सही सलामत घर पहुंचने की खबर मां को दी।

ऐसे छोटे-छोटे मामले तो हम लड़कियां तकरीबन हर रोज झेलती हैं। कई बार सोचती हूं कि चलो अच्छा है, इसी बहाने कुछ बुरे लोगों को डराने का गुर तो सीख हैं हम। पर इसी के साथ दूसरा ख्याल आता है कि ये छोटे मामले ही कई बार बड़े बन जाते हैं। सड़क छाप मजनुओं को डराने की कोशिश कई बार किसी बड़ी मुसीबत खड़ी कर देती है। जाहिर है इस शहर में हर लड़की अंधेरे में तो क्या, उजाले में भी खुद को सेफ नहीं मानती। लड़कियां हैरान, परेशान, सावधान हैं। उनके लिए शाम को अकेले निकलना, ऑटो लेना, दिन में भी सुनसान सड़क में जाना जैसी तमाम चीजों के आगे 'अवॉइड करें' जोड़ दिया जाता है। लेकिन अवॉइड करना क्या सही सॉल्यूशन है? इससे तो वे दुनिया के कई पहलुओं से महरूम हो जाएंगी। आखिर हम अपने इस लापरवाह सिस्टम के लूपहोल्स को कैसे भर सकते हैं? लड़कियों की सिक्युरिटी को लेकर बना हर नियम-कानून इम्प्लिमेंटेशन मांगता है। इन नियम-कानून को इंम्प्लिमेंट करवाने वाले जब तक एक्टिव नहीं होंगे और जब तक इन्हें तोडऩे वालों को तुरंत सजा नहीं मिलेगी, तब तक लड़कियां अवॉइड करेंगी। फिर चाहे वह शाम को घर से निकलना हो या बस में लगने वाले अननैचरल धक्का। और जब भी वे इस दुनिया में अपने सपनों को पाने के लिए बाहर निकलेंगी, समाज के ये सभ्य पुरुष उन्हें घेरेंगे और इस शहर को 'दिल्ली इज नॉट सेफ फॉर गर्ल्स' का दर्द सहना पड़ेगा।

Friday, April 17, 2009

मैंने रंजू की कविता चुराई

आज मैंने रंजना भाटिया की कविता चुरा ली। वह कविता जो उन्होंने अपने ...वें जन्मदिन (उम्र नहीं बतायी जाती) पर लिखी थी। उनकी ही कविता उन्हें जन्मदिन पर गिफ्ट कर रहा हूं।

Wednesday, April 15, 2009

हुस्न हाजिर है

हुस्न हाजिर है मुहब्बत की सजा पाने को। पर ये पंक्तियां सुनकर सजा देने के लिए बढ़े पांव जड़ हो जाते हैं। मुझे लगता है... अरे कहां मैं अपनी बात सुनाने में लग गया ! मेरे लगने को मारें गोली, आपको क्या लगता है यह जरूर बताएं...


Monday, April 13, 2009

हां, लगता है मुझे डर

सोनिया वर्मा

मैं
अगस्त 2006 में कानपुर से दिल्ली आई थी। मेरे जैसी न जाने कितनी लड़कियां अपने छोटे से शहर से देश की राजधानी में बेहतर करियर बनाने का सपना संजोए आई होंगी, लेकिन यहां आने के बाद वे भी इस बड़े शहर की कुछ कड़वी सचाइयों से वाकिफ हुई होंगी। यहां शाम होते ही रास्ते में अकेली चल रही लडक़ी का मन न जाने कितनी आशंकाओं से घिर जाता है। मैं डरपोक नहीं, लेकिन हर रोज अखबार में छपी घटनाओं, न्यूज चैनलों में घंटों चलने वाली खबरों ने मेरा मन शंकाओं से जरूर भर दिया है।

अचानक कोई आता दिखा। मेरी धडक़न बढ़ गई। दरवाजा बंद करने को तेजी से उठी तो देखा सामने से प्यून आ रहा था। उसे देखते ही सांस में सांस आई। मैंने उसे जोर से डांटा कि तुम्हें यहां काम करने के पैसे मिलते हैं, बाहर घूमने के नहीं। उसने कुछ जवाब नहीं दिया लेकिन मैं जानती थी कि मैं उसे डांटकर मैंने अपना डरा चेहरा छुपाने की कोशिश की थी।


मन में बढ़ती जा रही असुरक्षा की भावना का नतीजा ही है कि रात तो दूर दिन के उजाले में भी किसी जगह पर अकेली रह जाऊं तो मन में न जाने कितने बुरे ख्याल आ जाते हैं। ऐसा ही कुछ उस रोज हुआ। मास कम्यूनिकेशन में पोस्ट ग्रैजुएशन डिप्लोमा कोर्स करने के बाद एक प्रॉडक्शन हाउस जाइन किया था। मैं न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में रहती थी और ऑफिस कालकाजी में था, सो आने- जाने में ज्यादा समय नहीं लगता था। उस सुबह करीब आठ बजे अपने ऑफिस के लिए निकली। सुबह की ठंडी हवा प्यारी लग रही थी, अपने ख्यालों में डूबी ऑफिस के पास पहुंच चुकी थी। तभी मेरी नजर ऑफिस के मेन गेट से कुछ कदमों की दूरी पर खड़े दो लोगों पर पड़ी। लड़िकियों को यह सब भी पढ़ाया नहीं जाता, वे तो बड़े होते हुए लोगों की नजरों और उनके छूने की कोशिशों से बचते हुए अपने आप अच्छे और बुरे में फर्क करना सीख लेती हैं। सो मैं भी समझ चुकी थी कि दोनों युवक भले इरादे नहीं रखते थे। मैं तेजी से ऑफिस की ओर बढ़ी। सामने देखा तो शटर बंद था। मैं परेशान होती उससे पहले प्यून आता दिखाई दिया। उसने शटर खोला और मैं अंदर दाखिल हो गई। ऑफिस बेसमेंट में था, उस पर मेरा केबिन एकदम आखिर में। मैंने केबिन में पहुंचर लंबी सांस ली। क्योंकि शनिवार था इसलिए बाकी साथी कुछ लेट आने वाले थे। अचानक मन में ख्याल आया कि इस वक्त इलाके में न तो ज्यादा चहल-पहल है और न ही साथ के ऑफिस खुले हैं। ऐसे में अगर दो बदमाश दिख रहे लोग यहां घुस आए तो मेरी तो चीख तक बाहर नहीं जा पाएगी। ये सोचते ही मैं झट से फ्रंट ऑफिस में आ गई। यहां आई तो देखा प्यून न जाने कहां गायब हो गया था।

मैंने नजरें सामने के शीशे पर टिका दीं, जहां से आने-जाने वाले साफ दिख सकते थे। दिल जोर से धडक़ रहा था। मुझे पसीना आ गया। न जाने कितनी खबरें याद आ गईं। पहले सोचा ऑफिस का दरवाजा अंदर से बंद कर लूं, फिर सोचा ऐसे बात-बात पर घबरा जाना बेवकूफी है। कुछ देर बाद तो सब आ ही जाएंगे और फिर यह वही ऑफिस है जहां रोजाना घंटों गुजारती हूं। डरने जैसी कोई बात नहीं, लेकिन डर दूर नहीं हुआ। अचानक कोई आता दिखा। मेरी धडक़न बढ़ गई। दरवाजा बंद करने को तेजी से उठी तो देखा सामने से प्यून आ रहा था। उसे देखते ही सांस में सांस आई। मैंने उसे जोर से डांटा कि तुम्हें यहां काम करने के पैसे मिलते हैं, बाहर घूमने के नहीं। उसने कुछ जवाब नहीं दिया लेकिन मैं जानती थी कि मैं उसे डांटकर मैंने अपना डरा चेहरा छुपाने की कोशिश की थी। अपने ऑफिस में कुछ घंटे जल्दी पहुंच जाना किसी मुसीबत की वजह नहीं है। लेकिन हादसों को ऐसे ही कुछ मिनटों की दरकार होती है।

Tuesday, April 7, 2009

दिल्ली में डरा-सहमा मन- 2

डर एक मनोभाव है, बेहद स्वाभाविक मनोभाव। पर जब यह दूसरे मनोभावों पर हावी होने लगे, तो बात चिंताजनक होने लगती है। लड़कियों का मन बेहद कोमल होता है, बल्कि कहना यह चाहिए कि मन के दो रूप हैं - कोमल और कठोर। कोमल मनोभाव स्त्री मनोभाव है और कठोर, पुरुष मनोभाव। जरूरी नहीं कि यह कठोर तत्व पुरुष शरीर में ही मौजूद हो और कोमल तत्व स्त्री शरीर में। जाहिर है कहना यह चाहता हूं कि दिल्ली हो या मुंबई, रांची हो या करांची - हर तरफ यह कोमल मन डरा सहमा है। फिलहाल, पेश है दीपा पवार का एक संस्मरण। वह पेशे से पत्रकार हैं। :

-अनुराग अन्वेषी


खबार पढ़ने की जब लत लग रही थी, मेरा सबसे ज्यादा ध्यान क्राइम की खबरों पर जाता था। लूट, चोरी और छेड़खानी जैसी छोटी खबर भी मुझे बहुत बड़ी लगती थी। उन दिनों भी अखबार रेप, अपहरण, छेड़छाड़, लूट और हत्या की खबरों से अंटे रहते थे। इन खबरों को पढ़ने के बाद इनसानी रिश्ते मुझे बकवास की तरह लगने लगते। सारा शहर मुझे जानवर सरीखा लगने लगता। फिर जब मन खबरों से बाहर आता, मैं खुद से जिरह करती। कई बार लगता था कि ये स्त्रियां खुद को इतना कमजोर क्यों मानती हैं? डटकर मुकाबला क्यों नहीं कर सकतीं? आखिर बस जैसी सार्वजनिक जगह में कोई कैसे किसी को छेड़कर बच निकलेगा? जरा-सा शोर मचाने की हिम्मत तो महिलाओं में होनी ही चाहिए, फिर देखें वे कि कैसे इन मजनुओं का कचूमर निकालती है पब्लिक। पर धीरे-धीरे ये खबरें मेरे लिए आम होती गईं। अपनी ओर ध्यान भी नहीं खींच पाती थीं वे, पढ़ने के लिए बाध्य करना तो दूर की बात। एक तरह से मान बैठी कि डरपोक स्त्रियों की नियति है यह।

वक्त बीतता रहा और ऐसी खबरों को जीवन के हाशिये पर छोड़ती चली। अचानक एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि मेरे भीतर मर चुका डर अचानक अपना सिर उठा बैठा। मैं ब्लूलाइन बस में बैठकर सीपी जा रही थी। दिन का वक़्त था। फिर भी बस में बहुत कम मुसाफिर थे। ड्राइवर, कंडक्टर और उनके एक साथी के आलावा कुल 5-6 लोग। बसों में आना-जाना सामान्य सी बात थी मेरे लिए। जब मैं बस में बगैर किसी साथी के होती हूं तो अक्सर किसी न किसी विषय पर सोचती रहती हूं। उस दिन भी किसी टॉपिक पर खुद से विचार-विमर्श कर रही थी। अचनाक मैंने महसूस किया कि बस के कंडक्टर ने अपने साथी को कुछ इशारा किया। कंडक्टर ठीक मेरे आगे वाली सीट पर बैठा था। मुझे लगा कंडक्टर का यह इशारा कुछ मुझसे जुड़ा है। यह सब कुछ सोच ही रही थी कि अगले पल उसका साथी जो दूसरी तरफ बैठा था, उसने मेरी ओर देखा फिर कंडक्टर की ओर देख कर उसे उसने ओके का इशारा किया। मेरी चेतना जो तभी से मुझसे बहस करती चल रही थी, वह इस पल भर के इशारों पर आकर केंद्रित हो गई। कंडक्टर और उसके साथी का इशारा मुझे बेहद भद्दा और डरावना लगा। अब बस का ड्राइवर भी मुझे घूरने लगा था। मैं बस में आगे ही बैठी थी, इसलिए मुझे यह भी ध्यान नहीं था कि बस में अब कितने मुसाफिर बैठे हैं। मुझे लगा कि कहीं बस में मैं अकेली तो नहीं बच गई हूं? बेहद तनाव में आ चुकी थी मैं। ड्राइवर, कंडक्टर और उसके साथी आपस में फूहड़ हंसी-मजाक कर रहे थे। इस बीच मैंने उनसे अपनी आंखें चुरा बस में बैठे यात्रियों की संख्या का जायजा लिया। थोड़ी राहत मिली। बमुश्किल 5 लोग बैठे थे। सवारियों में एक लड़की को देखकर जान में जान आयी। मैंने उसी वक़्त फैसला किया कि जहां यह लड़की उतरेगी मैं भी वहीं उतर जाऊंगी। मुझे बारहखंबा रोड जाना था। पर उनके इशारों और फूहड़ हंसी-मजाक ने मुझे इतना चिंतित कर दिया था कि मैं तिलक ब्रिज पर ही उस लड़की के साथ उतर गयी। उसके बाद मैंने डीटीसी की भरी हुई बस से आगे का सफर तय किया।

इस छोटी-सी घटना के बाद घर लौटकर मैंने अपने डर का विश्लेषण किया।

मैं क्यों डरी, मेरे पास तो मोबाइल फोन है। किसी अयाचित स्थिति में मैं 100 नंबर डायल कर पुलिस को बुला सकती थी।

- दरअसल, कई खबरें पढ़ चुकी हूं ऐसी कि मदद के लिए 100 नंबर पर कॉल करते रहे पीड़ित और पुलिस मौके पर पहुंची डेढ़-दो घंटे बाद।

ठीक है कि 100 नंबर का भरोसा बहुत मजबूत नहीं है। पर खुद पर तो भरोसा है न, इतना आतंकित होने की जरूरत क्या थी?

- खबरें बताती हैं कि दिनदहाड़े हत्या हुई, पर आश्चर्य, किसी को नहीं दिखता हत्यारा। न पकड़ पाते हैं, न उसके खिलाफ गवाही देते हैं। मेरी मदद को कौन आता?

रही बात आतंकित होने की, तो स्त्री होने का अहसास, उसकी मजबूरियां, उसकी सीमाएं जो घुट्टी के तौर छुटपन से ही पिलाई जाती हैं, उसी का नतीजा था मेरा डर। यह अलग बात है कि मैंने अपनी इच्छा शक्ति से, अपने साथियों की हौसलाआफजाई से और अपनी समझदारी से उस डर को मार दिया था, पर उसे अपने से बाहर नहीं कर पाई थी। और जैसे ही मैं थोड़ी कमजोर पड़ी कि वह डर सिर उठाकर सामने आ खड़ा हुआ। पर मुझे खुशी है कि मैं अतिविश्वास की शिकार नहीं, मैंने बिल्कुल सही फैसला किया तिलक ब्रिज पर उतरने का। आपका क्या ख्याल है?

Saturday, April 4, 2009

दिल्ली में डरी-सहमी लड़कियां

नौकरीपेशा लड़कियों के करेक्टर पर दबी जुबान चर्चा हमेशा होती रही है, अगर नौकरी की अनिवार्य शर्त हो नाइट शिफ्ट, तब तो चर्चा ज्यादा रंगीन हो जाया करती है। पर इन नौकरीपेशा लड़कियों की परेशानियों की चर्चा को यह समाज हमेशा हाशिये पर रख कर चला है। देश की राजधानी में नाइट शिफ्ट में काम करने वाली ऐसी ही दो लड़कियों की हत्या अभी हाल के महीने में हुई है, यह अलग बात है कि दोनों हत्याकांड के अभियुक्त पकड़े जा चुके हैं। इन हत्याओं के बाद इस महानगर की लड़कियों के भीतर कैसा डर घर कर गया है - यह सवाल भी मीडिया में अपनी जगह बनाता रहा। मीडिया में स्पेस की कमी है, इसलिए वहां विस्तार से ऐसे मुद्दों पर बात नहीं होती। पर ब्लॉग में यह चर्चा की जा सकती है। आज एक ऐसी ही लड़की की बात इस ब्लॉग पर रख रहा हूं, जो पेशे से पत्रकार हैं। पर इन दो हत्याकांड के बाद उनका विश्वास भी एक रात डगमगा गया, जब बारिश हो रही सड़क पर उन्होंने खुद को अकेला पाया। परिचय और नाम जानबूझ कर नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मकसद शख्स को सामने लाना नहीं, बल्कि आशंका और उस डर को सामने लाना है जो इस राजधानी की आबोहवा से बना है :

-अनुराग अन्वेषी


हां,

यह सही है कि अब मैं उस डर से उबर चुकी हूं। पर वह बीस-पच्चीस मिनट का अकेलापन मुझे ताउम्र याद रहेगा। इस घटना से पहले मैं नहीं जानती थी कि डर कहते किसे हैं। पर उस पच्चीस मिनट ने सिखाया कि अकेली लड़की कैसे डरती होगी किसी सुनसान सड़क पर बांह पसारे पेड़ों की छाया से। दिल्ली के मिजाज का कोई भरोसा नहीं, कब वह झुलसा देने वाली गर्मी बरसाने लगे और कब, शुरू हो रही गर्मी पर बारिश की फुहार छोड़ दे।

अभी चंद रोज पहले की ही तो बात है। जिगीषा मर्डर केस सुर्खियों में रहा था। ऑफिस हो या घर - हर तरफ इस केस की ही चर्चा थी। नाइट शिफ्ट ड्यूटी का डर। लड़की होने का डर। इन चर्चाओं में मैंने भी हिस्सा लिया था लेकिन तब तक किसी डर को कभी महसूस नहीं किया था और ही वह मुझे छू पाया था कभी। यहां तक कि जिगीषा हत्याकांड के बाद जब कामकाजी लड़कियॊं की सेफ्टी पर स्टॊरी लिखने के लिए कहा गया, तब मैंने अपने बॉस से पूछा कि फिर उसी पुराने राग को अलापने से कोई लाभ होगा? उन्होंने कहा कि तुम एक्सपर्ट्स से ये बात करो कि सोल्युशन क्या है। तब मैंने पूछा था कि क्राइम क्या सिर्फ लड़कियॊं के ही साथ हो रहा है। अगर नहीं तो फिर क्यों ये सब बार-बार लिखकर लोगों को डराएं। इस पर उन्होंने समझाया कि नहीं, क्राइम हर किसी के साथ हो रहा है लेकिन लड़कियों को सॉफ्ट टारगेट मान कर बदमाश उन पर आसानी से हमला कर देते हैं। मैं उनकी बात से कनविंस नहीं हुई थी, पर हां, स्टोरी जरूर लिख दी।

लेकिन उस शाम प्रोग्राम खत्म होने के बाद होटल अशोक से 8:30 बजे जब बाहर निकली, हल्की बारिश हो रही थी। इस इलाके में सन्नाटा पसरने लगा था। पर खुद पर इतना भरोसा था कि सड़क पर निकल आई। सोचा कि बारिश रुकने का इंतजार करने से बेहतर होगा कि ऑटो लेकर ऑफिस पहुंच जाऊं। ऑटो के चक्कर में सड़क पर आगे बढ़ती गई। अब तक बारिश तेज हो चुकी थी, अंधेरा और आंधी भी बारिश का साथ दे रहे थे। दूर-दूर तक सड़क पर सन्नाटा पसरा था। अंधेरा ऐसा कि परिचित जगह भी अनजान लगने लगे। मुझे यह अंदाजा भी नहीं लग रहा था कि मैं सही सड़क पर चल रही हूं या गलत। पंद्रह मिनट तक तो मेरे दिमाग में सिर्फ जल्दी ऑटॊ मिलने का ख्याल था, लेकिन खराब मौसम की वजह से ऑटॊवाले भी आते-जाते नहीं दिख रहे थे। जो एक-दो दिखे, उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। अब तक मैं काफी आगे निकल आई थी। सड़क के अंधेरे को कभी कभार चीर दे रही थीं गुजरने वाली बड़ी गाड़ियों की मुंह चिढ़ाती लाइटें। ऐसे में अब मुझे घबराहट होने लगी थी।

घबराहट इस कदर बढ़ गई कि घर के लोग याद आने लगे। मीडिया में पसरे जोखिमों की वजह से यह नौकरी करने की पापा की सलाह याद आने लगी। जॉब छोड़कर पढ़ाई पूरी कर लेने की भाई की नसीहत बुरी नहीं लगी इस वक्त। और बॉस की बात कानों में गूंजने लगी कि लड़कियों को बदमाश सॉफ्ट टारगेट समझते हैं। सब कुछ दिमाग में घूमने लगा और समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं। उस वक्त मैं जरूरत से ज्यादा चौकन्नी हो गई थी। पेड़ों के बीच से तेज हवा के गुजरने से आती सांय-सांय की आवाज मेरे भीतर और घबराहट पैदा करने लगी। बांह पसारे खड़े लंबे पेड़ दैत्य की तरह लगने लगे। कोई गाड़ी दूर से आती दिखती, तो सांसें थम जाती। अपने आत्मविश्वास को बनाए रख मैं अब भी आगे बड़ी जा रही थी पर पता नहीं क्यों मुझे रोना रहा था। अपने को समझाने की कॊशिश कर रही थी कि मैं रिपॊर्टर हूं, मुझे ऎसे डरना नहीं चाहिए। लेकिन फिर ख़याल आता - आखिर हूं तॊ लड़की ही। जर्नलिस्ट सौम्या का चेहरा आंखों के सामने से गुजर जाता। डिवाइडर से टकरा कर रुकी उसकी कार दिखने लगी। जिगीषा का नाम ध्यान आते ही मेरे घबराहट दोगुनी हो गई। उस डर के साथ गुस्सा भी बहुत रहा था घरवालॊं की बात मानने के लिए अपने आप पर। और लड़कियां सॉफ्ट टारगेट हॊती हैं यह जानते हुए ऑफिस से रात में अकेले रिपोर्टिंग के लिए भेजने के फैसले पर। अचानक दिमाग में आया कि बहुत हॊ गई ये नॊकरी अब और नहीं। फिर मैंने बॉस को फोन लगाया। अपनी हालत बताई। बॉस ने तुरंत ही एक कलिग को मेरा लोकेशन बता निकलने का आदेश दिया और फिर लगातार मेरे से फोन संपर्क में रहे।

यह ठीक है कि अब मैं उस रोज के डर से उबर चुकी हूं। और यह मैं खूब अच्छी तरह से जानती हूं कि रिपोर्टिंग के ऐसे अवसर आते ही रहेंगे और मैं जाती भी रहूंगी। पर इस शहर की व्यवस्था से उपजे सवाल का कोई जवाब मैं ढूंढ़ नहीं पा रही हूं कि देश की राजधानी में अगर लड़कियां इस कदर डर का शिकार बनी हैं, तो देश के दूसरे हिस्सों का क्या हाल होगा?