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Friday, February 8, 2008

मां को समर्पित पांच कविताएं

ये मेरी मां है। शैलप्रिया। 1 दिसंबर 1994 की रात दिल्ली में ही कैंसर से लड़ते हुए मां की मौत हुई थी। उस वक़्त मैं रांची में था। पापा, भइया और छोटी बहन - तीनों मां के पास थे। मैं रांची में अपनी बूढ़ी दादी के पास उनकी देखभाल कर रहा था। हम चारों - पापा (विद्याभूषण), पराग भइया (प्रियदर्शन) और छोटी बहन रेमी (अनामिका) - के अलावा सिर्फ़ डॉक्टरों को ही पता था कि मां को कैंसर ने जकड़ रखा है। नवंबर 94 के आखिरी सप्ताह में आकाशवाणी (रांची) से कविताओं की रिकॉर्डिंग के लिए मुझे अनुबंध पत्र मिला। ये कविताएं उसी दौरान लिखी गयी थीं। संभवतः इनका प्रसारण 9 दिसंबर को होना था। पर मां की मौत के बाद उनके जन्मदिन (11 दिसंबर) को इनका प्रसारण हुआ। मां की कविताओं के दो संकलन 'अपने लिए' और 'चांदनी आग है' उनके जीवन काल में ही आ चुके थे। मौत के बाद तीन किताबें और आईं - घर की तलाश में यात्रा, जो अनकहा रहा और शेष है अवशेष । इसी बीच प्रसंग का 'शैलप्रिया स्मृति अंक' भी आ चुका था।
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परिवेश : एक
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ओ मां,
तुम्हें याद होगा
कि बादलों की गड़गड़ाहट से घबराकर मैं
हमेशा सिमट जाया करता था
तुम्हारी गोद में।
और यहीं सिमटे हुए
बहुत बार
कई-कई लड़ाइयां लड़ी हैं मैंने
और कई बार पीट चुका हूं
उस राक्षस को भी
जो तुम्हारी कहानियों की परियों को
सताया करता था।

संभव है,
तुम्हें याद न हो
पर मैंने तुम्हें बताया था
कि एक रात मैं अचानक
कृष्ण बन गया
और मेरे हाथों
कंस की हत्या हो गयी।

सचमुच मां,
अब समझता हूं
वह तुम्हारी गोद का जादू था
कि मैं निःशंक होकर
बैठे-बैठे लड़ लिया करता था
अपनी तमाम काल्पिनक दुःश्चिंताओं से
अपने को तमाम लोककथाओं का
नायक समझता हुआ
धीरे-धीरे बड़ा होता गया
तुम्हारी कहानियों के नायकों के
सारे पोल खुलते गये
उनके खल पात्रों को
जीवन में कई बार देखा।

हां मां,
उम्र की इस यात्रा से
गुज़रते हुए
चीज़ों को बहुत क़रीब से देखा है
बातें बहुत साफ हुई हैं
अब मैं
अपने बच्चों को
तुम्हारी कहानी सुनाता हूं
कि कैसे पैसे के अभाव में तुम
घुलती रही ताउम्र
इस जंगलतंत्र में
विवश हुए लोग हैं
इन वर्षों में
बहुत जटिल होती गयी है ज़िंदगी
समूचे मानदंड बदल चुके हैं
अमन और शांति
दूर के ढोल हैं
नेताओं के बोल हैं
आदमी की क़ीमत
मिट्टी के मोल है।
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परिवेश : दो
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ओ मां,
बचपन से तुम्हें
अपने पास देखता रहा
और फैलता गया मैं
समूचे आकाश में।
फिर रास्ते के पहाड़
राई बन गये
और मैं
राई से पहाड़।

तुमने कहा
नियति नहीं है पहले से तय।
और सचमुच
लड़ता गया मैं
अपनी तमाम वर्जनाओं से
दुश्चिंताओं के घेर से बाहर आकर
मैंने तय की अपनी नियति
और बुनता गया ढेरों सपने।

लेकिन अब भी
अकेले में अक्सर
एक आदमकद सच्चाई
दबोचती है मुझे
सवालों के कटघरे में
बींध जाते हैं
मेरे तमाम विचार
कि दूसरों के भोग का अवशेष
मैं झेलूं कब तक?
प्रश्नों की सीमा में बंधा आदमी
हमेशा आदमी नहीं रह जाता
पर तय है
कि रेगिस्तान में
मृगमरीचिका का संबल
जीवन देता है कई-कई बार।
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परिवेश : तीन
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जब सवालों से
छीजने लगता है मन
व्यवस्थाएं होने लगती हैं
उलट-पलट
धूल-गर्द और गर्म हवाओं को भी
फांकते हुए
नहीं मिल पाता है
जीने का कोई सही अर्थ
तो फैलने लगता है
अवश विद्रोह।

नींद खुलते ही
हर रोज़ देखता हूं
बिस्तर पर दर्द से लेटी मां।
रसोईघर से जूझती
बूढ़ी दादी।
और पिता के ललाट पर
परेशानियों की लकीरें।

नहीं देख पाया कभी
कि सुबह की शुरुआत हुई हो
मां की हंसी से।
इसीलिए भी
चंद लम्हें
आंखें बंद किये पड़े रहता हूं दोस्तो
कि शायद कभी
कल्पनाओं में आ जाये
पिता का हंसता चेहरा
और मां की वेदनारहित हंसी।
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परिवेश : चार
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बातें सीमित हैं
चंद पारिभाषिक शब्दों से
बताता चलता हूं
तुम्हारी पीड़ा।
कि तुम
सूने आकाश को ताकती हो सिर्फ़
कि तुम्हें कविताएं
बेमानी लगने लगी हैं
लेखों में तुम्हारी कोई रुचि नहीं रही
कि हम सब
तुम्हारी परेशानियों में
घुल रहे हैं।

पापा की पेशानी
भाई का चेहरा
और छोटी की आंखें
नहीं देख पाता अब।
सिर्फ़ चाहता हूं
कि तुम्हारी ताज़गी लौट आये
तो लिखूं एक लंबी कविता
अजनबी होते शब्दों को
फिर प्यार करूं।

ओ मां,
कैसे हो जाती हैं
स्थितियां इतनी अनियंत्रित
कि कोई सही शब्द नहीं सूझता?
कि शब्दों के बाज़ार में?
सही शब्द नहीं मिलते?
कि दिनचर्या बंध जाती है?
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परिवेश : पांच
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जीवन के संदर्भ में
अपने ख़याली दर्शन पर
कई-कई बार आत्ममुग्ध हुआ हूं मैं।

अपने ज्ञान की शेखी बघारता
न जाने कितनी बार
मैंने मौत को लताड़ा है।
स्वजन के मृत्युदंश से आहत
कई लोगों को
बड़ी आसानी से
समझाया/बहलाया/फुसलाया है।

लेकिन आज स्थितियां बदल गईं
ज़िंदगी और मौत से
रस्साकसी करते अपनी मां को देख।
जबकि जानता हूं
कि एक दिन
छोड़ जाना हैं हमें
सारा कुछ
बन जाना है इतिहास
फिर कभी कोई पलटेगा
हमारी कतरनों को
और तार-तार होकर
निकलेगी हमारी कविता।
सचमुच, कतरनों की हिफ़ाज़त के लिए
चिंतित हूं मैं।
(प्रसारित)

7 comments:

अमिताभ मीत said...

अच्छी कवितायें. कुछ बातें याद रह गयीं.

Unknown said...

बहुत जगह बहुत बेबस सा एक बच्चा दिखता है....जिसे माँ की गोदी की अभी भी जरूरत है...कि वह जूझ सके उन सबसे जिससे वह हार रहा है।
पसंद आई।

कंचन सिंह चौहान said...

आँखें नम करने वाली रचनाएं..... आपको महसूस किया जा सकता है इनमें...!

रश्मि शर्मा said...

achi kavita

रश्मि शर्मा said...

man ko chooti hai kavitaye

sanjay krishna said...

maa ki yad bahut aati hai na

Ek ziddi dhun said...

yo.n ye aapki nizi kavitayen hain par achhi nizi kavita ki khasiyat yahee hoti hai ki vah mahaj nizi hi nahhi rah jaati.. aap ek yaatna se gujre, use mahsoos kiya ja sakta hai aur tamam chintayen ek samuhik masla bhi hai...baad ke tukde aur bhi zyada achhe lage