ओ साथी,
अपने भीतर जब अंधेरा बढ़ता है
वह अहं, राग और द्वेष का
किला गढ़ता है।
सच मानें
यही तो जड़ता है।
फिर भीतर ही भीतर
सारा कुछ सड़ता है
और आदमी
धीरे-धीरे मरता है।
हां साथी, इससे पहले
कि संवेदनाओं से लबरेज हमारा चेहरा
किसी भीड़ में गुम हो जाये,
और व्यवस्था को बदलने के लिए निकला जुलूस
किसी शवयात्रा में तब्दील हो
अपने भीतर
आस्था का दीया जलाएं।
इसकी टिमटिमाती लौ
खत्म कर देती है सारी आशंकाएं
हां साथी,
स्वीकार करें दीपावली पर
हमारी शुभाशंसाएं ।
Thodi si Bewafai....
4 years ago
6 comments:
Bahut sundar sabd chitran. Deepavali ke deepakon ka prakash aapke jeevan path ko aalokit karta rahe aur aapke lekhan ka margdarshan karta rahe, yahi shubh kamnayen.
प्रेरणाप्रद कविता !
आपको व आपके परिवार को भी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ।
घुघूती बासूती
कम शब्दों में बड़ी गहरी बात कह गये अनुराग भाई। उजाले की दुनिया रचना और संवेदनाओं में आस्था बचाये रखना बेहद जरूरी है। इस यकीन को सलाम। दीपावली की शुभकामनाएं।
`मिट्टी के दीये की थरथराती लौ को हिफाजत की दरकार है`
बहुत खूब........बेहद खूबसूरत कविता....अरसे बाद आप नजर आये ....एक दिये को लेकर.....
सुंदर और प्रेरनादायी कविता.. बहुत सुंदर लिखा आपने अनुराग जी
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खो देना चहती हूँ तुम्हें..
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