उम्र के
इसी पड़ाव पर
जिंदगी पूछने लगी मुझसे,
सच-सच बता
मुझे आखिर तूने कितना जिया
जिंदगी जब
मांगने लगे,
हर किये-धरे का
ऐसे हिसाब
मै जानता हूं
सुख गुम होता है
दुख तो खैर बेहिसाब
मांगने लगे,
हर किये-धरे का
ऐसे हिसाब
मै जानता हूं
सुख गुम होता है
दुख तो खैर बेहिसाब
अब
तू तो ये न पूछ मुझसे
कि दिल्ली आकर क्या किया
सचमुच यारो,
जीने की आदत छूट गई,
मरने का सलीका सीख लिया।
तू तो ये न पूछ मुझसे
कि दिल्ली आकर क्या किया
सचमुच यारो,
जीने की आदत छूट गई,
मरने का सलीका सीख लिया।
10 comments:
सबका यही हाल है बंधू..दिल्ली हो या कोई ओर शहर....
"merne ka sleekha seekh liya"
"very touching and appreciable poetry"
Regards
bahut badhiya...marne ka saleeka seekh lena bhi bahut badi baat hai.
यह हिसाब तो कभी खत्म नही होता :) अच्छी ,सच्ची लगी यह
मै सोच रही हू अब तक मैने ही ज़िन्दगी से सवाल किए है, अगर ज़िन्दगी ने कभी मुझसे भी ये सवाल कर लिआ तो 2-4 चीज़े गिनाकर....
वैसे दिल्ली बेचारी का इससे कोइ लेना देना नही. मै तो यही की हू और जानती हू दिल्ली ने कुछ नही किया है. सब हमारा और हमे बाधने वाली paristithiyon का है..
जीने की आदत छूट गई,
मरने का सलीका सीख लिया..
खुब..
अच्छा है मित्र ...अच्छा लिखा है ...बधाई
बहुत उम्दा, बहुत बढिया.
अापकी किवता वाकई ममॆस्पशीॆ है। बुहत िदनों बाद अनुराग को पुराने फामॆ में देख रहा हूं। वक्त िमले तो मेरी दहलीज पर भी अाइये।
अलग तरह की रचना लेकिन बहुत खूब!
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