ओ दिसंबरी शाम।
बीता हुआ कोई क्षण
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ओ साथी,
अपने भीतर जब अंधेरा बढ़ता है
वह अहं, राग और द्वेष का
किला गढ़ता है।
सच मानें
यही तो जड़ता है।
फिर भीतर ही भीतर
सारा कुछ सड़ता है
और आदमी
धीरे-धीरे मरता है।
हां साथी, इससे पहले
कि संवेदनाओं से लबरेज हमारा चेहरा
किसी भीड़ में गुम हो जाये,
और व्यवस्था को बदलने के लिए निकला जुलूस
किसी शवयात्रा में तब्दील हो
अपने भीतर
आस्था का दीया जलाएं।
इसकी टिमटिमाती लौ
खत्म कर देती है सारी आशंकाएं
हां साथी,
स्वीकार करें दीपावली पर
हमारी शुभाशंसाएं ।
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अनुराग अन्वेषी
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Labels: अंधेरा, कविता, दीपावली, शुभकामनाएं
हल्ले पर आकांक्षा की कविता पढ़ी। उस तथाकथित ईश्वर के बारे में जिसे आज अगर याद किया जाता है तो शहर दंगाग्रस्त हो जाता है। जिसकी सारी सत्ता धर्म के ठीकेदारों ने बुनी है। ये ठीकेदार हर कौम में मौजूद हैं। और इसी सर्वशक्तिमान के बल पर इनकी दुकानदारी चल रही है। खैर, दुकानदारी का चलना और धर्मों की यह विकृति - ये तो अलग से बहस का मुद्दा हैं।
बहरहाल, सोचना चाहता हूं कि इस ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का राज कहां छुपा है। लगता है जैसे यह आस्था बरसों पहले से हमारी रगो में दौड़ रही है। तब से, जब हमारे पूर्वज जंगलों में रहा करते थे। (हालांकि रहते तो हम आज भी जंगल में ही हैं)। तो जब वह जंगल में रहते होंगे, जाहिर तौर पर उनका जीवन उसी जंगल पर निर्भर था। वह जंगल जिससे उन्हें भोजन मिलता था, जिसके आश्रय में वह रहते थे। श्रद्धा से भर उठा होगा उनका मन उसकी शक्ति देखकर। वह उसकी इज्जत करने लगे होंगे। उन्हें लगने लगा होगा इन पेड़-पौधों, झरने-पहाड़ों से बेहतर और श्रेष्ठ दूसरा कुछ तो हो ही नहीं सकता। वह नतमस्तक हुए होंगे। जीवन सुख-शांति से गुजर रहा होगा। तभी जंगल में आग लगी। (यह आग वैसे नहीं लगी होगी जैसे आज अचानक पैसेंजर ट्रेन में लग जाती है या कोई कस्बा और शहर अचानक जलने लग जाता है)। बहरहाल जंगल में आग लगी और हमारे पूर्वजों ने देखा जंगल को धू-धू कर जलते हुए। वह जंगल जो उन्हें जिंदगी देता था अभी अपनी जिंदगी बचा पाने में नाकाम था। आग जलाए जा रही थी जंगल को। सिहर गए होंगे हमारे पूर्वज। डरे होंगे। डरकर नतमस्तक हुए होंगे। डरे-डरे भागते फिरे होंगे। तभी मौसम बदला। बरसात शुरू हुई। आग को उन्होंने मरते देखा। लगा, इस आग पर तो काबू पा लेती है बारिश। यह बारिश तो आग से भी ज्यादा शक्तिशाली है। पूजा होगा उन्होंने उस बारिश को। इस तरह कई-कई और परिघटनाएं हुईं होंगी और हमारे पूर्वज कई-कई बार नतमस्तक हुए होंगे ऐसे सर्वशक्तिमानों के प्रति।
खिले-खिले, पर घुटे-घुटे
तने-तने, पर झुके-झुके
मिले हुए, पर कटे-कटे
ये कैसे लोग हैं मेरे यारो
साफ-साफ, पर धुआं-धुआं
भेड़चाल और हुआं-हुआं
हंसी-हंसी में जलाभुना
यह कैसा वक्त है मेरे यारो
बहुत-बहुत, पर जरा-जरा
डरा-डरा, पर हरा-भरा
जगा-जगा, पर मरा-मरा
यह कैसा रूप है मेरे यारो
प्यार-प्यार में मारो-काटो
रौद्र रूप भी और तलवे चाटो
तारीफ के बजाए डांटो-डांटो
यह कैसा शख्स है मेरे यारो
चापलूसी में है सना-सना
जगह-जगह है, घना-घना
तू कर इसे अब मना-मना
यही है वक्त का तकाजा यारो
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मेरे छुटपन के एक साथी ने अपने अब तक के जीवन में महज एक शेर लिखा है। पर यह शेर मेरे भीतर अब भी शोर मचाता है।
आंखों में रहकर चले जाने वाले
निकले हैं आंसू तुझे ढूंढ़ने को।
उन आंसुओं की आवाज आप भी सुनें। उनसे बनती धार आप भी महसूसें।
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Labels: कविता, गुस्सा, चुप्पी, प्रियदर्शन, ब्लॉग
मीत भाई की नकल कर खुशी हुई। मैंने दूसरों का इस तरह का ब्लॉग नहीं देखा है। मीत की नकल कर ही कोशिश की एक पोस्ट करने की। अविनाश से रास्ता पूछा। उसने तरीका बताया। और एक नई पोस्ट इस तरह। इन दोनों का आभार।
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Labels: कॉलम, नवभारत टाइम्स, बाइट, ब्लॉग, ब्लॉग बाइट, रविवार, संडे
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जा है कि मैं भी नीरो, तुम भी नीरो, हम सब नीरो। हमारे पास हमारी डफली है अपना राग है। हम गाएंगे। हमें कौन रोक सकता है। यह लोकतांत्रिक देश है। यहां किसी को कोई भी नहीं रोक सकता। हम बिकेंगे, तुम रोकने वाले कौन? हम खरीदार हैं, खरीदेंगे। तुम रोकने वाले कौन?
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12:33 PM
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12:06 AM
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सुनते थे खामोशी शोर से घबराती है
खामोशी ही शोर मचाए, ये तो हद है
सचमुच, ब्लॉग पर खुद की इतने दिनों की लंबी चुप्पी मेरे भीतर गहरा शोर मचाने लगी। आज वह शोर जोर मार रहा है।

प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - बर्ड हाउस बनाएं। घर की दैनिकचर्या भले गड़बड़ा गई, पर बिटिया रानी बर्ड हाउस देख कर फूली नहीं समाई। मां-बाप की मेहनत कामयाब हुई
मेरी छोटी-सी समझ में यह बात नहीं अंट पा रही कि ऐसे प्रोजेक्ट वर्क से बच्चे में कौन-सा टैलेंट पैदा करना चाहता है स्कूल। सबसे दुखद पहलू, स्कूल से संपर्क करें तो सलाह मिलेगी कि कहां टेंशन पाल रहे हैं, फलां दूकान वाले को कहें, वह पता बता देगा कि इस सीजन में कौन-कौन लोग प्रोजेक्ट वर्क तैयार कर देंगे, बहुत मामूली पैसा लेकर।
गौर से देखें, तो लापरवाही हमारी है। हम अच्छी शिक्षा की उम्मीद में बच्चों का एडमिशन जहां करवाते हैं, उसके बारे में यह पता नहीं करते कि उस स्कूल का मिशन क्या है। इन दिनों मैंने महसूस किया कि जिस तरह से पत्रकारिता में तामझाम बढ़ता गया, उसका स्तर उतना ही गिरता गया। ठीक वैसे ही, स्कूलों ने तामझाम बढ़ाया और पठन-पाठन की जीवंतता कमजोर पड़ती गई। मशीनी और बनावटी शिक्षा बच्चों को तकनीकी रूप से जितना समृद्ध कर दे, उनके भीतर पल रहे इन्सान को उतना ही आहत करती है। महसूस करता हूं कि आज के स्कूलों से मिल रही शिक्षा बच्चों की सहजता पर हमला कर रही है। और वहां से हासिल असहजता ही उनकी सहजता बनती जा रही है।
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7:14 PM
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अनुराग अन्वेषी
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11:25 PM
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है, उनकी भी राय यही है कि सोशल वैल्यू सिस्टम में गिरावट आ रही है, समाज का नैतिक तानाबाना बिखर रहा है, क्योंकि लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं। वे अपनी सुख-सुविधा के आगे किसी चीज की कीमत नहीं समझते, लिहाजा हर तरह के अपराध बढ़ रहे हैं, यहां तक कि पवित्र रिश्तों की इज्जत भी बची नहीं रही।
आज चोखेर बाली पर सुरेश जी का 'दहल' जाना पढ़ा और दूसरों को 'दहलाने की उनकी कोशिश' भी देखी। सुरेश जी कितने संवेदनशील हैं इस बात का पता इससे ही चल जाता है कि उन्होंने इतनी भयंकर वारदात को महज 'घटना' माना है। आपने लिखा है 'यह नारी अशिक्षित नहीं है. उसने अंग्रेजी में एम् ऐ किया है. ' सुरेश जी, शिक्षित होने का संबंध जो लोग डिग्रियों से तौलते हैं, मुझे उनके शिक्षित होने पर संदेह होने लगता है। आपको ढेर सारे ऐसे लोगों के उदाहरण अपने समाज में मिल जाएंगे, जिन्होंने स्कूल-कॉलेज का चेहरा तक नहीं देखा, पर उनकी शालीनता और उनके संस्कार के सामने डिग्रीधारी भी बौने नजर आने लगते हैं।
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अनुराग अन्वेषी
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9:48 PM
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अनुराग अन्वेषी
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12:26 AM
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शिराओं में
खून की गति
कम हो तो ज़रूरी नहीं
कि आदमी उदास, हताश या निराश है।
कई क्षण ऐसे होते हैं
जहां वक़्त रुक जाता है,
शिराओं में खून जम जाता है,
और ज़िंदगी
हसीन लगने लगती है।
तल्ख अनुभवों को
ताक पर रख
अगर वक़्त को महसूसा जाये
तो सचमुच
वक़्त भी धड़कता है
और इस वक़्त की नब्ज
हमारे हाथों में है
जिसकी नक्काशी
न जाने कितने संदर्भों को
जन्म देती है
जहां पल-पल अहसास होता है
कि हम ज़िंदा हैं।
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अनुराग अन्वेषी
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3:19 PM
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ओ पिता,
तुम बहुत गंदे हो
तुम मेरे साथ नहीं खेलते।
खेलने के लिए कहता हूं
तो डांट कर मुंह फेर लेते हो।
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अनुराग अन्वेषी
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3:46 PM
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उनके इंतजार में जाने कब से खड़ा हूं उसी मोड़ पर
अब है उन्हें ही रंज, जो गये थे खुद मुझे छोड़ कर
सही वक्त नहीं यह किसी से शिकवा-शिकायत का
देख, मातम मना रहे हैं लोग, अब रिश्ते तोड़ कर
गर तू चाहता है जीतना अब भी, हारी हुई यह जंग
फिर छोड़ दे ये रोना-धोना, अब दुश्मनों से होड़ कर
बहुत मुश्किल नहीं है मेरे भाई, झुकेंगे ये कसाई
तू शुरू तो कर अपनी चाल, सारी शक्ति जोड़ कर
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अनुराग अन्वेषी
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11:20 AM
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सरों से सहयोग की भी अपेक्षा करता है। उसे अपना दुख सबमें नज़र आता है और सबका दुख ख़ुद में महसूस करता है। पर जैसे ही उसकी स्थिति मजबूत होती है, वह अपनी पुरानी ज़िंदगी भूल जाना चाहता है। निरीह और लाचार तमाम लोग उसे अब बोझ लगने लगते हैं। तो पढ़ें इस एसएमएस को जो मनुष्य के त्याग और स्वार्थ की पराकाष्ठा को दिखला रहा है :
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अनुराग अन्वेषी
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12:24 PM
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स्त्री पर पुरुष का हक जैसी धारणाएं स्त्री को भयमुक्त होकर खुली हवा में जीने नहीं देतीं। खुली हवा में जीने का मतलब यह कतई नहीं होता कि जब चाहा, जिसके साथ चाहा हमबिस्तर हो लिये। यह तो एक तरह की यौन उच्छृंखलता होगी। खुली हवा में सांस लेने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि स्त्री मान ले और समाज स्वीकार ले कि जिस तरह पुरुष निडर और निःसंकोच होकर कहीं भी घूम सकता है, स्त्री भी घूम सकती है। लूट की वारदातें अपनी जगह पर हैं। लूटनेवाला तो कभी भी और कुछ भी लूट सकता है, तो क्या इस डर से स्त्री अपना कार्यक्षेत्र सीमित कर ले?
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12:56 AM
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बलात्कार की वारदात मुंबई की लोकल ट्रेन में हो या मरीन ड्राइव की किसी पुलिस चौकी पर, दिल्ली की सड़कों पर रात में दौड़ती कार में हो या फिर किसी छोटे से शहर के किसी हिस्से में; वह जब भी सुर्खियों में आती है, सबके भीतर डर छोड़ जाती है। ऐसी खबरों के बाद यह समाज पुलिस की निष्क्रियता पर मर्सिया गाता है और सुरक्षा व्यवस्था को जम कर कोसता है। इसके साथ ही वह ऐसी वारदातों के होने की वजह तलाशता है। अक्सर सन्नाटा, परिचित, रिश्तेदार या फिर बदले की (दुः) भावना वजह बनते हैं। अकेली क्यों गई थी, किसी को साथ क्यों नहीं ले गई... पता नहीं कितने सवाल नाचते रहते हैं, पर कोई सही जवाब नहीं मिल पाता। और आखिरकार हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं। अपनी दुनिया में मस्त। दरअसल, ये सवाल और ये चिंताएं महज तात्कालिक हैं, जो उभरते-डूबते रहते हैं। बलात्कार से जुड़ी असल समस्या इससे कहीं ज़्यादा गहरी है।
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अनुराग अन्वेषी
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12:58 PM
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विरोध की एक भाषा
मुझे भी आती है
पर सिर उठाने से पहले
मुझे बार-बार समझाती है
और मैं, 
जो हाथ में थाम
ज़बान का खंजर
उठ खड़ा हुआ था
अभी-अभी अचानक
मिमियाता हुआ-सा
घुस जाता हूं अपने खोल में
रूह कांप जाती है
और कांप जाता है पंजर
हर तरफ दिखता है
सिर्फ़ उजाड़ और बंजर।
सोचा था,
मेरी आवाज़ पर जुटेंगे लोग
पर देखो
गिद्धों की टोली में
मैं अकेला
और निरीह खड़ा हूं
खड़ा भी कहां
सिर्फ़ पड़ा हूं
सड़ा हूं, सड़ा हूं और सचमुच सड़ा हूं
पर अपनी बात पर
अब भी अड़ा हूं
कि थके-हारे लोग
आज नहीं तो कल
जुटेंगे
हमें तोड़ने की चाह रखनेवाले
ख़ुद टूटेंगे
अपनी इसी आस्था के कारण
उनकी छाती में मैं
कील-सा गड़ा हूं
मुझे समझाने वाली भाषा के लिए
मैं चिकना घड़ा हूं
महसूस करता हूं
कि किसी भी साजिश के ख़िलाफ
वाकई मैं बड़ा हूं
देखो यारो, देखो
एक बार फिर मैं
पूरी ढिठाई के साथ खड़ा हूं।
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अनुराग अन्वेषी
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11:28 AM
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अनुराग अन्वेषी
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10:22 AM
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अनुराग अन्वेषी
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8:46 PM
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अनुराग अन्वेषी
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1:13 AM
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आप लोहे की कार का आनंद लेते हो
मेरे पास लोहे की बंदूक है
मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो
लोहा जब पिघलता है
तो भाप नहीं निकलती
जब कुठाली उठाने वालों के दिल से
भाप निकलती है
तो पिघल जाता है
पिघले हुए लोहे को
किसी भी आकार में
ढाला जा सकता है
कुठाली में देश की तकदीर ढली होती है
यह मेरी बंदूक
आपके बैंकों के सेफ;
और पहाड़ों को उल्टाने वाली मशीनें,
सब लोहे के हैं।
शहर से उजाड़ तक हर फ़र्क
बहिन से वेश्या तक हर अहसास
मालिक से मुलाजिम तक हर रिश्ता,
बिल से कानून तक हर सफ़र,
शोषणतंत्र से इंकलाब तक हर इतिहास,
जंगल, कोठरियों व झोपड़ियों से पूछताछ तक हर मुक़ाम
सब लोहे के हैं।
लोहे ने बड़ी देर इंतज़ार किया है
कि लोहे पर निर्भर लोग
लोहे की पंत्तियां खाकर
ख़ुदकुशी करना छोड़ दें
मशीनों में फंसकर फूस की तरह उड़नेवाले
लावारिसों की बीवियां
लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास
कपड़े तक भी ख़ुद उतारने के लिए मजबूर न हों।
लेकिन आख़िर लोहे को
पिस्तौलों, बंदूकों और बमों की
शक्ल लेनी पड़ी है
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
(लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।
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अनुराग अन्वेषी
at
2:12 PM
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यह हैं पाश। अवतार सिंह संधू 'पाश'। आज से बीस साल पहले (23 मार्च 1988 को) खालिस्तानी आतंकवादियों ने इनकी हत्या कर दी थी। इस पंजाबी कवि का अपराध (?) यही था कि यह इस जंगलतंत्र के जाल में फंसी सारी चिड़ियों को लू-शुन की तरह समझाना चाह रहे थे। चिड़ियों को भी इनकी बात समझ आने लगी थी। और वे एकजुट होकर बंदूकवाले हाथों पर हमला करने ही वाली थीं कि किसिम-किसिम के चिड़ियों का हितैषी मारा गया। उस वक्त पाश महज 37 बरस के थे।
पेशकश :
अनुराग अन्वेषी
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9:37 PM
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फागुन के नशे में BLOG का कोई दूसरा अर्थ नहीं दिख रहा साथियो। हां, कुछ रोज़ पहले तक यह मुझे और मेरे जैसे कई साथियों को ब्यूटिफुल लिटरेचर ऑन गूगल का अर्थ भी देता रहा है। ऐसा नहीं कि यह अर्थ ख़त्म हो गया है। पर फिलहाल, जब होली सिर चढ़कर बोलने को तैयार हो तो मन का थोड़ा भटक जाना स्वाभाविक है। यही सोचकर भटकने दिया इस मन को और एक बीत चुके प्रकरण पर थोड़ी चुटकी ली है। क्षमायाचना सहित पेश है 'बुरा न मानो होली है' :
इलेक्ट्रॉनिक कलम हाथ में थाम लेने से कोई अगुवा या मठाधीश नहीं बन जाता। स्वयंभू मठाधीश तो हम हो सकते हैं, पर स्वीकृत नहीं। इसके लिए नायकों वाले गुण भी दिखने चाहिए।
कलम से गर्दन नहीं टूटती। यह अहसास होने के बाद अपनी करनी पर गर्दन झुक जरूर जाती है। और एक सच तो यह कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, बोलते हैं वही हमारा चेहरा दूसरों के सामने बनाता है/बिगाड़ता है। किसी ने लिखा है :
और अंत में फिर वही धारणा...
पेशकश :
अनुराग अन्वेषी
at
8:51 AM
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