जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Sunday, January 26, 2014

इतना भी बुरा नहीं यह वक्त, जितना सब कोसते हैं

इतना भी बुरा नहीं यह वक्त, जितना सब कोसते हैं
कल की कल देखेंगे, हम तो बस आज की सोचते हैं

बेफिक्र होकर तू सपने पाल, भर ले अपनी उड़ान पूरी
अपनी जिद पर अड़े हम, शायद कुछ ज्यादा सोचते हैं

दिल्ली में तो रोशनी है, पर गांव का है मेरे बुरा हाल
कैसे छोड़ आए बूढ़े बाबा को, रात-दिन हम सोचते हैं

चमचमाती सड़कों से भली अक्सर लगती हैं पगडंडियां
थोड़े पैसे जुट जाएं तो टिकट कटाने की हम सोचते हैं

पहाड़ों-सी रात गुजरी, गुजर गया जो था गया-गुजरा
चलिए अब संभलने की राह ढूंढें, आप क्या सोचते हैं

बड़े शहर में दर्द बड़ा है, बेफिक्र होकर तुम लौटो गांव
मिलकर दुख साझा करेंगे, यहां हमसब ऐसा सोचते हैं

Friday, January 24, 2014

खूबसूरत शहर की यह अजब बात है

खूबसूरत शहर की यह अजब बात है
संभलो यारो, कदम-दर-कदम घात है।

मेरे दिए खून से बची जिसकी जिंदगी
वही मुझसे पूछता है, तेरी क्या जात है।

खुद ही सबको लड़नी है अपनी लड़ाई
किसका भरोसा, अब किसका साथ है।

तू सिर्फ अपना काम किए चला चल
मत सोच जिंदगी शह या कि मात है।

मेरी हिम्मत का राज अब तू भी सुन
मेरी पीठ पर यारो, अपना ही हाथ है।

Thursday, January 23, 2014

दिल की बात कहो जब, बंद किवाड़ समझते हैं

दिल की बात कहो जब, बंद किवाड़ समझते हैं
अजब अहमक हैं वो, तिल को ताड़ समझते हैं

कितनी बार कहा कि खुली हवा में घूम आएं
घर में बैठे हैं और घर को तिहाड़ समझते हैं

तकलीफें तो हैं, पर मन है अब भी हरा-भरा
उनसे क्या कहूं जो मुझको उजाड़ समझते हैं

यह उसका असर नहीं, आपमें बसा वह डर है
कि उसके मिमियाने को भी दहाड़ समझते हैं

डूबने से डरता था, पर जब उतरा तो डूबकर तैरा
इंसानी तमीज देखो कि राई को पहाड़ समझते हैं

Tuesday, January 21, 2014

मन की बात बोलना कोई मर्ज नहीं

मन की बात बोलना कोई मर्ज नहीं
मुझसे कुछ भी बोलो, कोई हर्ज नहीं

सीधेपन पर मेरे तुम मत करो शक
घटनाएं याद हैं, नाम कोई दर्ज नहीं

हां यह सही है कि मैं जिद्दी हूं बहुत
उतारूंगा सारे, रखूंगा कोई कर्ज नहीं

जरूरी नहीं कि तुम रखो मेरा ख्याल
लगे जो मजबूरी, वह कोई फर्ज नहीं

अनगढ़ रास्तों पर मैंने चलना सीखा
पर अपनायी अब तक कोई तर्ज नहीं

ला दे मुझको तू अपनी सारी उदासी
कि यह हक है मेरा, कोई अर्ज नहीं

Monday, January 20, 2014

गले मिल कर जो दबा देते हैं गला
जरा सोचो कैसे करेंगे आपका भला।

जाने का उसके नहीं कोई अफसोस
माहौल रहेगा खुशनुमा, शैतान टला।

छांछ भी पीता है वह फूंक-फूंककर
अब सतर्क है बहुत, दूध का जला।

अब भी मुझे प्यारे हैं सारे दोस्त
यह बात है जुदा कि सबने छला।

इतना तल्ख न हो, ऐसा खौफ न पाल
कि खुशियां भी दिखने लगें तुम्हें बला।

तू हंसता है तो लगता है बेहद अच्छा
देख जलाने वालों का दिल अब जला।

अपनी बेगुनाही बड़ी देर तक समझाई
अब जो समझना है समझ, मैं चला।

दूसरों का दोष क्यों ढोता है दिल पर
देख, कहा मेरा मान, खुद को न गला।

शिकवा किसी से, न शिकायत कोई
यारो! सीख गया मैं, जीने की कला।

खुद की सांसों से जब लिहाफ गरम होता है
पस्त पड़ती है ठंड, शरीर नरम होता है।

अजब शहर है दिल्ली, रौनक देखो यहां की
जिससे भी मिलो, सगे होने का भरम होता है।

अजब हाल है, शक होने लगा है खुद पर भी
क्योंकि अब तो हर मर्द में एक हरम होता है।

वह संस्कार गुम हो गया है हर घर से कहीं
शायद जानवरों में वह अब शरम बोता है।

राम-कृष्ण, नानक, पैगंबर, ईसा सब चुप हैं
उनके भक्तों के इस देश में अब धरम रोता है।

Monday, January 6, 2014

मां माने सम्मान

यह कोई नयी बात नहीं
यह सब जानते हैं
कि मां माने आश्वस्ति
मैंने यह तब जाना था अपने छुटपन में ही
जब बहुत कुछ नहीं था हमारे पास
पर थी मेरी एक मां
जिसके आंचल में मेरी हर परेशानी
और जरूरत का हल भरा होता था

कुछ और बरस बाद
जब मेरे भीतर पलने लगे थे सपने
पसरने लगे थे कई-कई शौक, जिन्हें पूरा करने में
मां की झोली झुंझला जाती थी
पर पता नहीं कहां से पूरी हो जाती थीं मेरी तमाम फरमाइशें
तब मैंने जाना कि मां माने सिर्फ आश्वस्ति नहीं
बल्कि धीरज, सुख, संतोष और त्याग भी

यह भी सब जानते थे पर मैं नहीं
कि मां का लिखा ‘अपने लिए’
नहीं था सिर्फ अपने लिए, वह था सबके लिए
यह भी तब जाना, जब मेरे सिर पर बिछने वाली चांदनी
नियति की आग के हवाले हो गई
तब से मेरे भीतर की ‘चांदनी आग है’
और मैं जान चुका हूं कि मां माने आग

वह करती रही ‘घर की तलाश में यात्रा’
और बुन गई एक प्यारा सा घर
बसा गई उसमें ढेर सारा प्यार
समर्पण के रेशे, रिश्तों का संसार
इसके लिए बेशक उसने बहुत कुछ सहा
आंसू सुखाए, पसीना बहा
चुप रह कर कह गई ‘जो अनकहा रहा’
तब मैंने जाना कि मां माने
घर, रिश्ता, समाज और संसार

और यह बात है 1994 के दिसंबर की
जब हमें छोड़ गई हमारी मां
सबने कहा कवयित्री शैलप्रिया चली गईं
तब मुझे भान हुआ कि मां माने सिर्फ मां नहीं
बल्कि एक कवयित्री का ठीहा, एक अस्तित्व यानी शैलप्रिया

और अब आज, जब बरसों बाद
मैंने खोल कर पलटे हैं मां के पन्ने
पन्नों से झरते दिखें है कई-कई लोग
उन्हें सादर याद करते हुए
तो लगा ‘शेष है अवशेष’ अपने पूरे संदर्भों के साथ
और तब एक नया अर्थ खुला
कि मां माने सिर्फ शैलप्रिया नहीं
बल्कि मां माने सम्मान।

Saturday, October 12, 2013

लोकनायक बनाम महानायक

अनुराग अन्वेषी
11 अक्टूबर की बिग पार्टी का हैंगओवर उतरा भी नहीं था कि बिग बी को जूनियर बी ने उठा दिया। एक बुड्ढा मिलने आया है आपसे। खुद को सत्तर का हीरो बता रहा है – जूनियर बी ने कहा था। बिग बी चौंके कि अरे, अभी तो रात में मिले थे दिलीप साहेब...फिर इतनी सुबह-सुबह क्यों आए भला। इस सवाल से जूझते हुए बिग बी ने तुरंत जूनियर को झाड़ लगाई, यह कोई तरीका है दिलीप साहेब के लिए ऐसा बोलने का? जूनियर बी ने कहा, अरे पापा। दिलीप अंकल को नहीं पहचानूंगा क्या। ये बुड्ढा अपना नाम जेपी बताता है।
अब चौंकने की बारी बिग बी की थी। दिमाग पर खूब जोर डाला कि ये जेपी कौन है? जब नहीं याद आया तो चल पड़े जलसा के आराध्या हॉल में, जहां जेपी को बैठाया गया था। पहचाना नहीं लेकिन कुशल कलाकार की तरह मुस्कुराते हुए पूछा, अरे आप! कैसे हैं? इतनी सुबह-सुबह इधर आना कैसे हुआ?
जेपी : शुक्र है कि तुमने मुझे पहचान लिया, तुम्हारे बेटे ने तो मुझे पहचाना भी नहीं।
बिग बी : अरे जनाब, ये नई पीढ़ी के बच्चे... खैर जाने दें, उनकी ओर से मैं क्षमाप्रार्थी हूं। और दरअसल क्षमाप्रार्थी तो मुझे ही होना चाहिए न कि इतनी समझ भी मैं उसमें पैदा नहीं कर सका जैसा मेरे पिता ने मेरे भीतर कर दिया था। अरे हां, आप बताएं, इधर कैसे आना हुआ।
जेपी  : जब मैं यहां के लिए चला था तो सोच रहा था कि कोई मुझे घुसने भी देगा भला? वो तो शुक्र है आपके उस बूढ़े गार्ड का। उसने मुझे पहचान लिया। राममेहर... हां यही नाम बताया था उसने। और देखिए उसकी श्रद्धा कि उसने मेरे पांव छुए। बताया कि 74 के छात्र आंदोलन में वह मेरे साथ था, बिहार के किसी छोटे इलाके के छात्रों की अगुवाई करता था।
बिग बी की आंखों में चमक आ गई, यह सोचकर कि बातों ही बातों में मैंने इन्हें पहचान लिया और इन्हें पता भी नहीं चलने दिया कि पहचान नहीं पाया था। उनकी आवाज में और अधिक मिठास घुल चुकी थी। कहा – अरे बाबूजी, भला आपको कौन नहीं पहचानेगा?  आखिर आप लोकनायक रहे हैं।
जेपी  :  यही तो मैं भी पूछने चला आया कि आखिर इस लोकनायक के जन्मदिन को भूल लोग सिर्फ महानायक के जन्मदिन में डूबे क्यों रहे?
बिग बी : मतलब? अरे हांsss, कल आपका भी तो जन्मदिन था।
जेपी : देखो, मुझे घुमा-फिरा कर पूछने की आदत न पहले थी, न अब है। कैसे मैनेज करते हो यह सब कि हर तरफ तुम्हारे ही जयकारे लगते हैं, तुम्हारी ही धूम मची होती है।
बिग बी : देखिए बाबूजी, उम्र में तो आप हमारे बाप लगते हो, मगर नाम हमारा भी है शहंशाह। मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता, पर सच है कि पैसा आज भी फेंकता हूं। बस्स, यहीं चल जाता है हमारा जादू कि सत्तर के दशक का लोकनायक भले लोगों को याद न रहे पर इकहत्तर का होकर भी महानायक याद रह जाता है।
जेपी : ...पर वह जो भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकी थी मैंने, जिस सुनहरे देश के सपने देखे थे मैंने, लड़ने का जो तरीका सिखाया था मैंने... संपूर्ण क्रांति...क्या वो सब के सब बेकार थे?
बिग बी :  ऐसे कमजोर न पड़ें बाबूजी। देखिए, आपके आदर्शों को हमने अपने जीवन में उतारा है। आपके खेमे से पैदा हुए नीतीश, लालू, सुशील मोदी... सब के सब तो आपके ही चेले हैं। सबकी मंजिल वही है – कांग्रेस की सत्ता उखाड़ फेंकना। हां, यह अलग बात है कि सबके रास्ते अलग-अलग हैं। कोई साथ रहकर जड़ में मट्ठा डालने का काम कर रहा है तो कोई बड़ी मछली का शिकार करने के तरीके से फांस को कभी ढील दे रहा है तो कभी खींच रहा है। सब अपनी बारी का धैर्य से इंतजार कर रहे हैं।
जेपी को गहरे सोच में डूबा देख बिग बी ने कहना जारी रखा – और मैं...मैं तो फिल्मों के जरिए आपकी संपूर्ण क्रांति को जगाए रखा हूं। मेरी फिल्मों में आप अपने सातों क्रांति का रस देख सकते हैं।
जेपी के चेहरे पर न हताशा दिख रही थी न क्षोभ। वह तटस्थ भाव से उठे और बाहर की ओर चल दिए। बिग बी ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने इशारे से उन्हें रोक दिया और सिर्फ इतना ही कहा  : मैं जानता हूं कि तुम जहां खड़े होते हो लाइन वहीं से शुरू हो जाती है, पर तुम्हारे पीछे खड़े लोगों को यह सोचने की जरूरत है कि आखिर वह लाइन जाती कहां है? इतना कहकर जेपी तेज कदमों से बाहर की ओर निकल गए।
मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। सपना देख रहा था। मेरी नींद तो टूट गई, पर सच बताना आपकी नींद कब टूटेगी?

Monday, August 19, 2013

मुट्ठी भर प्यार, हाशिए पर नफरत

प्यार क्या है
एक अदृश्य ताकत?
जो आपको खड़ा होने की हिम्मत देता है खिलाफ बह रही तमाम हवाओं के खिलाफ
जो आपको सिखाता है कि जीना है तो मरने के लिए रहो हरदम तैयार
और आप मेमने को खाने पर अड़े भूखे शेर से भी लड़ने को हो जाते हैं खड़े
जब तक यह अदृश्य ताकत आपके भीतर बहती है
तेज से तेज बहाव वाली नदी, बड़े से बड़ा समुद्र और ऊंचे से ऊंचा पहाड़
आपको अपने कदमों पर लोटता नजर आता है
आप डंके की चोट पर कहते हैं कि अभी सूरज को नहीं दूंगा डूबने

प्यार क्या है
एक अदृश्य बेड़ी?
जो अनुकूल बहती हवाओं में भी सूंघती फिरती है तरह-तरह की आशंकाएं
जो पिंजरे में रहने की देती है हरदम नसीहत और उड़ने से रोकती है आपको खुले आकाश में,
और तब आप अपने वटवृक्ष होने की संभावनाओं को लतर के पौधे में बदल देते हैं
जब तक यह अदृश्य बेड़ी बांधे होती है आपके पांव
आप सिर्फ जीना चाहते हैं, जीने के लिए भूल जाते हैं मरने का दांव
और फिर हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि छोटी नाली लगती है विकराल नदी,
राई भी नजर आते हैं पहाड़
डंके की चोट पर कहना तो दूर, आप घुटने के बल रेंगने को होते हैं मजबूर

नफरत क्या है
अदृश्य चारदीवारी?
जो आपको देती है अपनी बनाई मान्यताओं के साथ जीने की इजाजत।
जो आपके हक में उठाती है लाठी और श्रेष्ठतम बताती है आपकी कदकाठी।
जो हांकती है आपको आस्था की लाठी से और बुनती है आत्ममुग्धता का मकड़जाल
जिससे बाहर आते ही आपको अपना अस्तित्व खाक होता नजर आता है
जब तक घिरे होते हैं आप इस चारदीवारी से
नई रोशनी आपको गैरवाजिब हस्तक्षेप लगती है
और आप पूरी ताकत झोंक देते हैं
कि कोई बाहर की रोशनी आकर आपके अंधेरे को रोशन न कर सके।
क्योंकि आपको अंधेरा पसंद है,
दरअसल यही अंधेरा नफरत की निगाह में उसका उजाला है।

नफरत क्या है
अंधा प्यार?
जो आपसे सही या गलत की पहचान दुराग्रही आंखों से करवाता है।
जो सम्मान की रक्षा के नाम पर सम्मान का गला घोंट देने से भी नहीं करता गुरेज।
और आपको पता भी नहीं चलता कि कब आप इंसानियत के कस्बे से निकल हैवानियत के जंगल में अपना ठौर बना चुके हैं
जब तक डूबे होते हैं आप इस अंधे प्यार में
आदिम उसूल और बासी विचारों का लबादा आपको लगता है सबसे प्यारा
और आप उसे जायज ठहराने के लिए दूसरों पर लादने तक की कोशिश करते हैं
ऐसे में जब कोई आपके पैबंदों को दिखाने की ईमानदार कोशिश करता है
वह दुनिया, देश और समाज का सबसे बेईमान और खतरनाक आदमी लगता है

इस तरह अगर देखें तो एक सच यह भी दिखता है
कि ऐसे किसी भी एक तत्व से जीने का भ्रम बनाया जा सकता हो भले
जीवन रचा नहीं जा सकता
यही वजह है कि जो लोग करते हैं नफरत से नफरत और प्यार से प्यार
या फिर जो प्यार से करते हैं नफरत और नफरत से करते हैं प्यार
वे रच नहीं पाते कोई प्यारा सा, सुंदर-सलोना संसार
इसीलिए मैं पालना चाहता हूं अपने भीतर मुट्ठी भर प्यार
और अपने हाशिये पर रखना चाहता हूं थोड़ी सी नफरत
ताकि जिंदा रहे मेरे भीतर का इनसान
जो बसा सके प्यार से भरी-पूरी एक दुनिया।

Saturday, March 9, 2013

इस बहादुर बेटी पर देश कब ध्यान देगा?

रोम चानू शर्मिला पर अदालत ने आरोप तय कर दिया है और अब उन पर आत्महत्या की कोशिश का मुकदमा चलेगा। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने 4 नवंबर 2000 को अपना अनशन शुरू किया था, इस उम्मीद के साथ कि 1958 से अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, असम, नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में और 1990 से जम्मू-कश्मीर में लागू आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (एएफएसपीए) को हटवाने में वह महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर चल कर कामयाब होंगी। इरोम के इस अनशन के बीच केंद्र में एनडीए और यूपीए की सरकारें रहीं, पर किसी ने उनकी सुध नहीं ली। किसी ने उनसे उनकी मांगों पर बात करने की ईमानदार कोशिश नहीं की।

इरोम पर आरोप तय करते हुए जज ने कहा कि मैं आपका सम्मान करता हूं लेकिन देश का कानून आपको अपनी जिंदगी खत्म करने की अनुमति नहीं देता। ध्यान रहे कि इरोम ने बार-बार कहा है कि वह खुदकुशी करना नहीं चाहतीं। उनका प्रदर्शन अहिंसक है और एक आम आदमी की तरह जीवन वह भी जीना चाहती हैं। मुमकिन है कि जब आईपीसी की धारा 309 को स्वीकार किया गया होगा, दूर-दूर तक यह अंदेशा न रहा होगा कि कभी इसका इस्तेमाल शांतिपूर्वक जीवन जीने की लोकतांत्रिक मांग के खिलाफ भी करना पड़ सकता है। अपने ऊपर लगे आत्महत्या के इल्जाम से इनकार करते हुए और आरोप तय होने की प्रक्रिया के बीच इरोम ने यह भी भरोसा जताया कि सरकार उन्हें सुनेगी और एएफएसपीए हटाने की मांग मानेगी। इस पर अदालत ने कहा कि यह राजनीतिक प्रक्रिया है। पर सवाल उठता है कि यह कैसी राजनीतिक प्रक्रिया है जिसमें इरोम की बातों के लिए कोई जगह नहीं है?

दरअसल राजनीतिक नेतृत्व को वही मसले परेशान करते हैं जो सीधे-सीधे उसके हितों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यही वजह है कि जब अन्ना का अनशन शुरू होता है, तो सरकार बौखला जाती है। उसके मंत्री अपने-अपने मोर्चे पर जुट जाते हैं। यही हाल फिलहाल विपक्ष में बैठे लोगों का है जो केजरीवाल के पोल खोल का जवाब तोड़-फोड़ वाले अंदाज में देने लग जाते हैं। पर अपनी मांग पर दृढ़ता से अड़ी इरोम शर्मिला का 12 वर्षों से चला आ रहा अनशन इस पक्ष और विपक्ष को बेवजह और बेतुका लगता है जिस पर वे अपनी राय जताना भी जरूरी नहीं समझते।
 केंद्र सरकार ने इस बजट में निर्भया फंड की घोषणा की है। और राज्य सरकारों ने भी अपनी संवेदनशीलता साबित करने के लिए निर्भया के परिवार के हक में बहुत कुछ किया। निर्भया और इरोम के संघर्ष की तुलना एक झटके में बेमेल सी लग सकती है। पर इस तुलना से गुजरे बिना हम इरोम के संघर्ष को पूरी तरह नहीं समझ सकेंगे और उसे धारा 309 के चौखटे में कस कर देखने की चूक करते रहेंगे। निर्भया के साथ हुई वारदात की क्रूरता ने हम सब को आहत किया। महानगर में रहने वाले युवा यह सोचकर चिंतित हो गए कि इसी तरह हम भी रात आठ बजे शहर में घूमते हैं। अगर इस तरह की वारदात के खिलाफ आवाज नहीं उठाई गई, तो कल हममें से कोई भी ऐसे अपराधियों का शिकार हो सकता है। यही वजह है कि निर्भया के नाम पर महानगर के युवाओं ने आवाज बुलंद की। निर्भया कांड का पटाक्षेप आश्वासनों, आर्थिक मददों, कानून संशोधन का अध्यादेश और निर्भया फंड के रूप में सामने आया।

ठीक इसके उलट हमारे सिस्टम को इरोम नजर नहीं आती। इरोम का यह संघर्ष अपने लिए नहीं है बल्कि उनके इलाके के लोगों के लिए है जो बार-बार एएफएसपीए का शिकार हो रहे हैं। इरोम ने अपनी भूख हड़ताल तब की थी जब 2 नवंबर के दिन मणिपुर की राजधानी इंफाल के मालोम में असम राइफल्स के जवानों के हाथों 10 बेगुनाह लोग मारे गए थे। कहने का अर्थ यह नहीं कि इरोम की मांग पूरी तरह जायज है उसे आंख मूंदकर मान ही लेना चाहिए। लेकिन इस पर बात तो हो। इरोम की दृढ़ इच्छाशक्ति टूटे उससे पहले उसका सम्मान करते हुए सरकार को बातचीत का रास्ता निकालना चाहिए।

Wednesday, February 13, 2013

हम ओढ़ते हैं बोझ

जरूरी नहीं कि सारे सच कहे ही जाएं
या कि देखे जाएं
सच कहना नहीं चाहते तो न कहें
नहीं देखना चाहते, तो न देखें
पर ऐसा कुछ भी करने से
सच का चेहरा जरा भी नहीं बदलता

जो बदलाव होता है वह आप में होता है
कि आप जानते हैं कि सच आपने नहीं देखा
कि आप जानते हैं कि सच आपने नहीं सुना
कि आप जानते हैं कि सुन कर भी आपने अनसुना कर दिया
कि आप जानते हैं कि देख कर भी अनदेखा कर दिया
ऐसे में पुरजोर कोशिश करके आप खुद से मुंह चुराते फिरते हैं
क्योंकि आपको हर वक्त याद रहता है
कि आपने सच सुनने, बोलने, देखने, दिखाने में
झूठ के कौशल का सहारा लिया

सच है कि सच बोलने के लिए जितना हौसला चाहिए
सुनने के लिए भी उतना ही है जरूरी
और किसी सच को सहने के लिए तो उससे भी ज्यादा हौसले की जरूरत पड़ती है
तो फिर क्यों हम अक्सर
झूठ के अपने कौशल का सहारा ले
झूठी शान का तानाबाना रचते हैं अपने चारों तरफ
जबकि हमारे भीतर
झूठ बोले जाने के अहसास का सच
हमेशा सिर उठाए रहता है
ऐसे में हम अपनी ही निगाह में गड़े होते हैं
इस गड़े होने को जीवन भर सहते हैं
जबकि हम सब जानते हैं
कि सच सहने के लिए
सच बोलने से ज्यादा हौसले की दरकार पड़ती है।

Monday, February 11, 2013

बौड़म तर्क का तनाव बड़ा


दि
ल्ली में हुए गैंगरेप की सुनवाई कोर्ट में इन कैमरा चल रही है। मेरे पड़ोसी ने मुझसे पूछा – इस मामले में न्याय पाने के लिए जितना तीखा विरोध हुआ, उसे उतने ही जबर्दस्त तरीके से मीडिया में जगह भी मिली। पर जब अब मामला कोर्ट में है तो उसकी खबर उतने विस्तार से नहीं है, आखिर बात क्या है? यह इन कैमरा होता क्या है? क्या पूरी सुनवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग हो रही है, जिसे बाद में प्रसारित किया जाएगा?
मैंने उनसे बताया कि अरे नहीं, इन कैमरा सुनवाई में केस से सीधे जुड़े लोगों को ही कोर्ट में मौजूद रहने की इजाजत होती है। और रही बात मीडिया में खबर की तो निचली अदालत के जज का निर्देश है कि इस केस में कोर्ट में चली कार्यवाही का प्रकाशन या प्रसारण कोर्ट की इजाजत के बिना न किया जाए।
यह सुनते ही मेरे पड़ोसी के माथे पर बल पड़ गए। वह थोड़े परेशान से दिखने लगे। मैंने इसकी वजह पूछी तो कहने लगे- देखना जी, ये पांचों आरोपी केस से बरी कर दिये जाएंगे और छठा तो खैर अपनी किस्मत से नाबालिग निकला, उसका तो बचना तय है।
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि ऐसा भी नहीं है। इस केस पर सबकी निगाह है और न्यायपालिका पर सबको भरोसा है। उन्होंने तपाक से कहा कि मैं कब कह रहा हूं कि मुझे भरोसा नहीं। पर जेसिका लाल का केस याद है न, सभी आरोपी बाइज्जत बरी कर दिए गए थे। तो मैंने भी उन्हें ध्यान दिलाया कि निचली अदालत से बरी कर दिए गए थे, फिर उससे ऊपर के कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए आखिरकार मुजरिमों को सजा दिलवाई।
वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर उन्होंने कहा कि यह जो इन कैमरा का फंडा है, वह मुझे संदेह करने पर मजबूर कर रहा है। पता नहीं, अंदर क्या गुपचुप-गुपचुप खिचड़ी पक रही है। कई बार बड़ी अदालत के मुंह से सुन चुका हूं कि निचली अदालत के जजों को ट्रेनिंग की जरूरत है या कभी ये कि निचली अदालत को अपनी सीमा का ध्यान रखना चाहिए, फिर फुसफुसा कर कहे कि एक-आध बार तो इन जजों के भ्रष्टाचार की भी खबरें पढ़ता रहा हूं...। मैंने अपने पड़ोसी की बात बीच में ही काटी और उन्हें बताया कि यह सब तो ठीक है आपने सुना होगा। पर इस केस में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। सब तत्पर हैं, सजग हैं और अपराधियों को सजा होगी ही होगी।
इस बार उन्होंने धीर-गंभीर मुद्रा बनाई और अपनी उम्र व अनुभव का हवाला देते हुए कहा – अभी बच्चे हो। दुनिया तुमसे ज्यादा मैंने देखी है। मैं जानता हूं कि अदालत देख नहीं सकती। वह सिर्फ गवाहों और सबूतों के आधार पर ही फैसला देती है। देखा नहीं कभी क्या कि न्याय की जो देवी है उसकी आंखों पर पट्टी बंधी होती है।
उनके इन बेतुके तर्कों से मुझे चिढ़ होने लगी थी। झुंझला कर मैंने कहा – खूब देखी है और आपकी आंखों पर जो पट्टी बंधी है, उसे भी देख रहा हूं। अरे भई, अदालत हम इंसानों की तरह भावुक होकर फैसला देने लग जाए तो फिर कैसे न्याय होगा? तब तो चोर अपने घर चलाने का हवाला देकर अपनी चोरी को जस्टिफाई करेगा और अदालत भावुक होकर उसे बाइज्जत बरी करने लग जाएगी।
इस बार उन्होंने मुझे समझाने वाले अंदाज में चतुर वकील की तरह कहा, देखो मुझे पूरा भरोसा है कानून पर। पर डर है कि बचाव पक्ष के किसी बौड़म तर्क से सहमत होना अदालत की मजबूरी न बन जाए जैसा कि उस नाबालिग के मामले में हमारा कानून हमें बेबस दिख रहा है।
मैंने पूछा – अगर तर्क बौड़म हो, तो भला अदालत क्यों सहमत होगी उससे।
मेरे पड़ोसी ने इस बार सोदाहरण समझाया मुझे। मान लो, बचाव पक्ष ने कहा - मेरे मुवक्किलों ने कोई गंभीर गुनाह नहीं किया है जज साहब। इन्होंने तो देश और देशवासियों को जगाने का काम किया है। अगर इन्होंने इस वारदात को अंजाम न दिया होता तो आज ऐसे अपराध के मामले में नाबालिग की उम्रसीमा के निर्धारण की न तो समीक्षा होती और न ही महिलाओं के साथ हो रहे अपराध पर अंकुश लगाने के लिए देश के कानून को और सख्त व गंभीर बनाने की कवायद होती। इसीलिए मेरी गुजारिश है कि इन सभी के इस कृत्य को स्त्रीहित में किए गए अपराध के रूप में देखा जाए।
मैं सोच रहा ही रहा था कि पड़ोसी के इस तर्क का क्या जवाब दूं कि उन्होंने बात आगे बढ़ाई – देखो बच्चू, यह बात तार्किक तो है और अगर इसी आधार पर इन आरोपियों को छोटी-मोटी सजा हुई तो? यह सवाल उन्होंने मेरे सामने उछाल कर विजयी मुद्रा में अपनी कॉलर उठाई और चलते बने। उनके चेहरे से तनाव काफूर हो चुका था पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा और मन तनाव से बुरी तरह ऐंठ रहा था।