जरूरी नहीं कि सारे सच कहे ही जाएं
या कि देखे जाएं
सच कहना नहीं चाहते तो न कहें
नहीं देखना चाहते, तो न देखें
पर ऐसा कुछ भी करने से
सच का चेहरा जरा भी नहीं बदलता
जो बदलाव होता है वह आप में होता है
कि आप जानते हैं कि सच आपने नहीं देखा
कि आप जानते हैं कि सच आपने नहीं सुना
कि आप जानते हैं कि सुन कर भी आपने अनसुना
कर दिया
कि आप जानते हैं कि देख कर भी अनदेखा कर
दिया
ऐसे में पुरजोर कोशिश करके आप खुद से मुंह
चुराते फिरते हैं
क्योंकि आपको हर वक्त याद रहता है
कि आपने सच सुनने, बोलने, देखने, दिखाने
में
झूठ के कौशल का सहारा लिया
सच है कि सच बोलने के लिए जितना हौसला चाहिए
सुनने के लिए भी उतना ही है जरूरी
और किसी सच को सहने के लिए तो उससे भी ज्यादा
हौसले की जरूरत पड़ती है
तो फिर क्यों हम अक्सर
झूठ के अपने कौशल का सहारा ले
झूठी शान का तानाबाना रचते हैं अपने चारों
तरफ
जबकि हमारे भीतर
झूठ बोले जाने के अहसास का सच
हमेशा सिर उठाए रहता है
ऐसे में हम अपनी ही निगाह में गड़े होते
हैं
इस गड़े होने को जीवन भर सहते हैं
जबकि हम सब जानते हैं
कि सच सहने के लिए
सच बोलने से ज्यादा हौसले की दरकार पड़ती
है।
1 comment:
बहुत ही दर्शनसम्पूर्ण कविता। अनुभव को शब्द दे दिए आपने।
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