खुद की सांसों से जब लिहाफ गरम होता है
पस्त पड़ती है ठंड, शरीर नरम होता है।
अजब शहर है दिल्ली, रौनक देखो यहां की
जिससे भी मिलो, सगे होने का भरम होता है।
अजब हाल है, शक होने लगा है खुद पर भी
क्योंकि अब तो हर मर्द में एक हरम होता है।
वह संस्कार गुम हो गया है हर घर से कहीं
शायद जानवरों में वह अब शरम बोता है।
राम-कृष्ण, नानक, पैगंबर, ईसा सब चुप हैं
उनके भक्तों के इस देश में अब धरम रोता है।
पस्त पड़ती है ठंड, शरीर नरम होता है।
अजब शहर है दिल्ली, रौनक देखो यहां की
जिससे भी मिलो, सगे होने का भरम होता है।
अजब हाल है, शक होने लगा है खुद पर भी
क्योंकि अब तो हर मर्द में एक हरम होता है।
वह संस्कार गुम हो गया है हर घर से कहीं
शायद जानवरों में वह अब शरम बोता है।
राम-कृष्ण, नानक, पैगंबर, ईसा सब चुप हैं
उनके भक्तों के इस देश में अब धरम रोता है।
1 comment:
सच घरों में संस्कार अब कहाँ!
बहुत सुन्दर सामयिक चिंतन भरी रचना।
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