ओ पिता,
तुम बहुत गंदे हो
तुम मेरे साथ नहीं खेलते।
खेलने के लिए कहता हूं
तो डांट कर मुंह फेर लेते हो।
पहले तुम
इतने गुस्सैल तो नहीं थे!
अब अम्मा पर भी
झल्लाने लगे हो!
तुम्हें क्या मालूम
तुम्हारे पीछे
अम्मा कितना रोती हैं!
ओ पिता,
तुम इतना झुक कर
क्यों चलने लगे?
तुम्हारे केश
इतने सफ़ेद और
चेहरा
इतना रूखा क्यों हो गया?
तुम इतना झुक कर
क्यों चलने लगे?
तुम्हारे केश
इतने सफ़ेद और
चेहरा
इतना रूखा क्यों हो गया?
अब तो मैं
तुम्हारे साथ खेलूंगा भी नहीं।
बूढ़ों के साथ बच्चे
कहीं खेलते हैं भला!
2 comments:
बहुत इमोशनल कविता है, दिल को छू गयी
दायित्व-बोध के फ़लसफ़े खोलती
सजग व सचेत करती भाव पूर्ण रचना.
संवाद के अभाव में हाथ से फिसलते
रिश्तों की त्रासद स्थिति की
गंभीर पड़ताल भी कर रहा है कवि.
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बधाई हो भाई !
डा.चंद्रकुमार जैन.
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