स्त्री पर पुरुष का हक जैसी धारणाएं स्त्री को भयमुक्त होकर खुली हवा में जीने नहीं देतीं। खुली हवा में जीने का मतलब यह कतई नहीं होता कि जब चाहा, जिसके साथ चाहा हमबिस्तर हो लिये। यह तो एक तरह की यौन उच्छृंखलता होगी। खुली हवा में सांस लेने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि स्त्री मान ले और समाज स्वीकार ले कि जिस तरह पुरुष निडर और निःसंकोच होकर कहीं भी घूम सकता है, स्त्री भी घूम सकती है। लूट की वारदातें अपनी जगह पर हैं। लूटनेवाला तो कभी भी और कुछ भी लूट सकता है, तो क्या इस डर से स्त्री अपना कार्यक्षेत्र सीमित कर ले?
बलात्कार एक विकृत मानसिकता है। विभिन्न सर्वेक्षणों के मुताबिक अधिकतर मामलों में पीड़िता के आसपास के लोग ही होते हैं बलात्कारी। स्त्री के संबंध में मर्दों का इतिहास सचमुच बहुत गंदा रहा है और यही समाज स्त्री से अपनी यौन पवित्रता को किसी भी कीमत पर बचाये रखने की अपेक्षा करता है। स्त्री से यौन पवित्रता की यह मांग बहुत अस्वाभाविक है और इसे इज्जत से जोड़ कर देखने की हमारी दृष्टि उतनी ही दकियानूसी भी।
समाज का कोई घिनौना चरित्र किसी स्त्री को जब पूरी बस्ती में नंगा घुमा देता है, तो क्या इस हादसे को पीड़िता की इज्जत से जोड़कर देखने की ज़रूरत है या फिर इसे उस बस्ती के मुर्दा होने से जोड़ कर देखा जाना चाहिए? महिला को नग्न किये जाने से महिला की इज्जत उतर गई या फिर वह पूरी बस्ती ही नंगी हुई? क्या इस वारदात से बस्ती के सारे मर्द नंगे नहीं हुए?
बलात्कार को इज्जत से जोड़कर देखने की एक वजह पीड़िता की 'प्राइवेसी' का भंग होना भी हो सकता है। लेकिन कई दूसरी परिस्थितयों में भी तो लोगों की प्राइवेसी ख़त्म होती है, उस वक़्त उनका नज़रिया क्यों बदल जाता है? जहां तक 'इज्जत' का प्रश्न है, तो वह उम्र भर कमाया गया धन होती है। किसी की भी इज्जत होती है तो किसी एक वजह से नहीं। बल्कि उस स्त्री या पुरुष को लोग उसकी पूरी समग्रता में देखते हैं।
बलात्कार को स्तब्ध कर देने वाला अपराध मानने के पीछ मुख्य चिंता स्त्री के कौमार्य की सुरक्षा की हो सकती है। समाज में यह धारणा बलवती है कि वही स्त्री विवाह योग्य है, जिसका पहले किसी पुरुष से यौन संबंध न हुआ हो। इसके ठीक उलट पुरुष के लिए ऐसी किसी कौमार्य की बाध्यता समाज में नहीं है। कहीं न कहीं स्त्री और उसकी यौन शुचिता के प्रति हमारी यह एकांगी दृष्टि बलात्कार को ख़ास अपराध में तब्दील कर देती है।
विचार करने की एक बात यह भी है कि इस वारदात को कितना ख़ास माना जाये? इस दुष्कृत्य को रोकने के लिए किसी स्त्री से कितनी शारीरिक क्षति स्वीकार करने की अपेक्षा आप करेंगे? क्या सचमुच बलात्कार इतना जघन्य है कि उसके लिए स्त्री को अपनी जान की बाज़ी लगा देनी चाहिए? दुखद यह है कि आज समाज उस स्त्री को अपने सिर-माथे पर बिठा लेगा, जिसने बलात्कारी के मंसूबों को नाकाम कर दिया हो। भले ही इसके लिए उसे अपने हाथ-पांव गवांने पड़े हों। और दूसरी तरफ, किसी के साथ अगर यह वारदात सफल हो गई, तो समाज उस स्त्री को शक की निगाह से देखेगा। समाज का यह नज़रिया कितना सही है? दरअसल यह सारी हाय-तौबा इसीलिए है कि हमारी महान संस्कृति ने स्त्री को असूर्यपश्या के रूप में जड़ दिया है। जड़ता की यह स्थिति टूटनी चाहिए।
4 comments:
हिन्दी ब्लॉगजगत का यह एक बहुत ही सकारात्मक परिवर्तन है कि पुरुष इस तरह के मुद्दों पर कहने का इनिशियेटिव लेने लगे हैं ।उन्मुक्त जी के यहाँ भी ऐसे कुछ विषयों पर अच्छे आलेख मिलते हैं ।
इस परिवर्तन को चोखेर बाली के बाद आने वाला न सही पर काबिले गौर तरीके से उभरता हुआ परिदृश्य ज़रूर मानना होगा ।
एक सटीक,अच्छे विचार से भरी पोस्ट। ये विचार ही नये समाज की नीव की ईटो का काम करेगे।
भले ही हम तस्लीमा नसरीन से पूरी तरह से सहमत नहीं हो लेकिन कई जगह तस्लीमा ने सही लिखा है। जहां तस्लीमा कहतीं हैं- तुम एक लड़की हो यह अच्छी तरह याद रखना, घर की चाहरदीवारी से निकलोगी तो लोग तुम्हें घूरेंगे, ताने देंगे......अगर तुम लौट गई..... वरना जैसी जा रही हो जाओ....
यह बात हमारे समाज के लिए भी फिट बैठती है। अगर कोई लड़की डरकर अपने कदम पीछे खींच ले तो समाज के तथाकथित ठेकेदार उस पर हावी हो जाते हैं। अगर वह बेहिचक, बिना डरे अपनी राह चलती रहे तो इनकी भी बोलती बंद कर सकतीं हैं। लड़कियों को अपनी ताकत को पहचानना होगा और दूसरों को भी इसका एहसास कराना होगा।
पूनम और नीतू
इस तरह का फोटो लगाना अपने इतने अच्छे ब्लॉग का सत्यानाश करना है, इससे बचें
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