विरोध की एक भाषा
मुझे भी आती है
पर सिर उठाने से पहले
मुझे बार-बार समझाती है
और मैं,
जो हाथ में थाम
ज़बान का खंजर
उठ खड़ा हुआ था
अभी-अभी अचानक
मिमियाता हुआ-सा
घुस जाता हूं अपने खोल में
रूह कांप जाती है
और कांप जाता है पंजर
हर तरफ दिखता है
सिर्फ़ उजाड़ और बंजर।
सोचा था,
मेरी आवाज़ पर जुटेंगे लोग
पर देखो
गिद्धों की टोली में
मैं अकेला
और निरीह खड़ा हूं
खड़ा भी कहां
सिर्फ़ पड़ा हूं
सड़ा हूं, सड़ा हूं और सचमुच सड़ा हूं
पर अपनी बात पर
अब भी अड़ा हूं
कि थके-हारे लोग
आज नहीं तो कल
जुटेंगे
हमें तोड़ने की चाह रखनेवाले
ख़ुद टूटेंगे
अपनी इसी आस्था के कारण
उनकी छाती में मैं
कील-सा गड़ा हूं
मुझे समझाने वाली भाषा के लिए
मैं चिकना घड़ा हूं
महसूस करता हूं
कि किसी भी साजिश के ख़िलाफ
वाकई मैं बड़ा हूं
देखो यारो, देखो
एक बार फिर मैं
पूरी ढिठाई के साथ खड़ा हूं।
Thodi si Bewafai....
4 years ago
5 comments:
जबसे विरोध ने बोलना सीखा
वह ढीठ ही रहा है...
अकेला...अलग थलग...
खड़ा हो जाता है...
अपने छोटे से आकार को रीढ़ से सीधा कर
सोचता है की बड़ा हो जाता है
हर छोटी मोटी लड़ाई मुँह ड़ाल...
मात खा लौट आता है....
.......
जब तक कम से कम एक जीत
ना दर्ज करा ले....
खुद के पीछे कहाँ किसी को
खड़ा पाता है....
गिद्धों की टोली के खिलाफ पूरी ढिठाई से खड़े होना....हर किसी के बस की बात कहां...इसके लिए जिगर चाहिए और जज्बा भी...
मन की भावनाओं का सजीव चित्रण ...अच्छा लगा अनुराग जी...बधाई
बहुत सशक्त रचना.
हालात के साथ किसी भी समझौते से
इनकार,
उसके सारे प्रतिकूल परिणामों को
जानते समझते हुए भी
खड़े रहने की जिद !
कविता को एक अदद इंसान होने की
तबीयत बख्श रही है.
बधाई.
सर, इसे पढ़कर बहुत पहले पढ़ी कुछ पक्तियां याद आ गई- क्रांति की बातें थ्योरी में कितनी अच्छी लगती हैं और कितना व्यावहारिक है साथियों को मोर्चे में छोड़ किसी बिल में छिप जाना....
Post a Comment