एक आदमी
जब सपनों में जीता है
गोबर को भी गणेश मान लेता है
वह नहीं जानता
कि शहर में
भेड़ियों की भी जमात है
वह देखता है सिर्फ़
आकाश में उड़ रहे
सफ़ेद कबूतरों को
मैदान में बेख़ौफ भाग रही गायों को।
सपनों में जीता हुआ आदमी
अपनी हर छोटी-सी जीत को
एवरेस्ट की ऊंचाई मान लेता है
उसकी नीली गहरी आंखों में
डल झीलें तैरा करती हैं
उन झीलों में
कई-कई नाव हुआ करते हैं
उन नावों में
सुंदर जोड़े अक्सर घूमते होते हैं
उन जोड़ों में
सपनों में जीते हुए आदमी की
धड़कन धड़कती होती है।
लेकिन जब
सपनों की दुनिया की मौत होती है
आदमी तिलमिला जाता है
नहीं सूझता है उसे कुछ भी
ख़ुद से अपरिचित हो जाता है
अपनी सारी दुनिया से
ख़ुद को काट लेता है
सपनों की दुनिया की मौत होती है जब
आदमी तिलमिला जाता है।
5 comments:
सही कह रहे हैं आप । कविता बहुत पसन्द आई ।
घुघूती बासूती
बहुत सही ! बहुत बढ़िया रचना !!
बढ़िया....ये सपनों पे चौतरफा पथराव का दौर है...हाँ, सपने देखने के लिए भी विवेक की जरुरत होती है....वरना गोबर ही गणेश होगा
क्या मैं कह सकता हूँ की आज नव भारत TIMES में भी एक बड़ा भाई मिल गया जिसके साथ बिना किसी बौधिक आतंक के अपने बड़े और छोटे सपने बिना लाग लपेट साझा किया जा सकते हैं
जिसको बताया जा सकता हैं ..ये कहानी फिर कभी....अनुराग जी आपका ब्लॉग वाकई बहुत अच्छा है अब मुझे कितना अच्छा लगा इसकी ताकीद में रेगुलर विसित करके दूंगा..शुभकामनाएं ...सौरभ
सपनों में जीने की कड़वी सच्चाई का
दो टूक ज़मीनी बयाँ है यह कविता .
बधाई.
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