जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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Thursday, March 13, 2008

सपनों के साथ जीता हुआ आदमी

एक आदमी
जब सपनों में जीता है
गोबर को भी गणेश मान लेता है
वह नहीं जानता
कि शहर में
भेड़ियों की भी जमात है
वह देखता है सिर्फ़
आकाश में उड़ रहे
सफ़ेद कबूतरों को
मैदान में बेख़ौफ भाग रही गायों को।

सपनों में जीता हुआ आदमी
अपनी हर छोटी-सी जीत को
एवरेस्ट की ऊंचाई मान लेता है
उसकी नीली गहरी आंखों में
डल झीलें तैरा करती हैं
उन झीलों में
कई-कई नाव हुआ करते हैं
उन नावों में
सुंदर जोड़े अक्सर घूमते होते हैं
उन जोड़ों में
सपनों में जीते हुए आदमी की
धड़कन धड़कती होती है।

लेकिन जब
सपनों की दुनिया की मौत होती है
आदमी तिलमिला जाता है
नहीं सूझता है उसे कुछ भी
ख़ुद से अपरिचित हो जाता है
अपनी सारी दुनिया से
ख़ुद को काट लेता है
सपनों की दुनिया की मौत होती है जब
आदमी तिलमिला जाता है।

5 comments:

ghughutibasuti said...

सही कह रहे हैं आप । कविता बहुत पसन्द आई ।
घुघूती बासूती

अमिताभ मीत said...

बहुत सही ! बहुत बढ़िया रचना !!

Ek ziddi dhun said...

बढ़िया....ये सपनों पे चौतरफा पथराव का दौर है...हाँ, सपने देखने के लिए भी विवेक की जरुरत होती है....वरना गोबर ही गणेश होगा

सौरभ द्विवेदी said...

क्या मैं कह सकता हूँ की आज नव भारत TIMES में भी एक बड़ा भाई मिल गया जिसके साथ बिना किसी बौधिक आतंक के अपने बड़े और छोटे सपने बिना लाग लपेट साझा किया जा सकते हैं
जिसको बताया जा सकता हैं ..ये कहानी फिर कभी....अनुराग जी आपका ब्लॉग वाकई बहुत अच्छा है अब मुझे कितना अच्छा लगा इसकी ताकीद में रेगुलर विसित करके दूंगा..शुभकामनाएं ...सौरभ

Dr. Chandra Kumar Jain said...

सपनों में जीने की कड़वी सच्चाई का
दो टूक ज़मीनी बयाँ है यह कविता .

बधाई.