कल, जब मैं
जीना नहीं चाहता था
तब मिली थी तुम
और जगाई थी
तुमने ही मुझमें
जीने की इच्छा
आज, जब मैं
जीना चाहता हूं
दर्द
पीना चाहता हूं
तो
मुझे मेरे कल को
याद दिलाते लोग
तोड़ देना चाहते हैं
और मैं उन्हें
मोड़ देना चाहता हूं
ऐसे में तुम कहां हो?
मैं कल ही
उस पहाड़ी पर
बैठे-बैठे देख रहा था
एक चट्टान को तोड़ते
कई हाथों को
चट्टान/मैं
जो शायद
यही सोच रहा था
कभी तो थकेंगे
ये तोड़ते हाथ
पर शाम के ढलते-ढलते
चट्टान मजबूर हो गयी
टेक दिये अपने घुटने
हथौड़ों ने तोड़ दिया
उस चट्टान को
और फिर
उस काली भयावह रात को
आग के चारों ओर
नाचते हुए
मजदूरों ने जश्न मनाया
जब पत्थर
पहाड़ी ढलानों से
लुढ़कने लगे थे।
और अब
जब मैं फिर
घुटने टेकने की
तैयारी कर रहा हूं
तो मुझमें
उमंग भरनेवाली तुम
कहां हो? कहां हो? कहां हो?
Thodi si Bewafai....
4 years ago
5 comments:
बहुत बढ़िया है भाई.
बहुत बढियाअ कविता है बधाई।
bahut sundar rachana
तुमने ध्यान नहीं दिया....
उस समय
जब मैं मिली थी
वे तोड़ रहे थे
तुम टूट रहे थे....
आज भी
हाथ में हथौड़े लिये
वे तोड़ना ही चाहते हैं....
पर देखो
तुम
तराशे जा रहे हो....
क्या लगता है
इस चट्टान को
घुमाता कौन है...
........
मैं कहाँ हूँ....
Apka dard sedhe dil tak pahucha hai. Bahut umda
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