जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

Hindi Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

 
जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
'जिरह' की किसी पोस्ट पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Tuesday, March 11, 2008

टूटती चट्टान की चीख

कल, जब मैं
जीना नहीं चाहता था
तब मिली थी तुम
और जगाई थी
तुमने ही मुझमें
जीने की इच्छा

आज, जब मैं
जीना चाहता हूं
दर्द
पीना चाहता हूं
तो
मुझे मेरे कल को
याद दिलाते लोग
तोड़ देना चाहते हैं
और मैं उन्हें
मोड़ देना चाहता हूं
ऐसे में तुम कहां हो?

मैं कल ही
उस पहाड़ी पर
बैठे-बैठे देख रहा था
एक चट्टान को तोड़ते
कई हाथों को
चट्टान/मैं
जो शायद
यही सोच रहा था
कभी तो थकेंगे
ये तोड़ते हाथ
पर शाम के ढलते-ढलते
चट्टान मजबूर हो गयी
टेक दिये अपने घुटने
हथौड़ों ने तोड़ दिया
उस चट्टान को
और फिर
उस काली भयावह रात को
आग के चारों ओर
नाचते हुए
मजदूरों ने जश्न मनाया
जब पत्थर
पहाड़ी ढलानों से
लुढ़कने लगे थे।

और अब
जब मैं फिर
घुटने टेकने की
तैयारी कर रहा हूं
तो मुझमें
उमंग भरनेवाली तुम
कहां हो? कहां हो? कहां हो?

5 comments:

अमिताभ मीत said...

बहुत बढ़िया है भाई.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढियाअ कविता है बधाई।

mehek said...

bahut sundar rachana

Unknown said...

तुमने ध्यान नहीं दिया....
उस समय
जब मैं मिली थी
वे तोड़ रहे थे
तुम टूट रहे थे....

आज भी
हाथ में हथौड़े लिये
वे तोड़ना ही चाहते हैं....
पर देखो
तुम
तराशे जा रहे हो....

क्या लगता है
इस चट्टान को
घुमाता कौन है...
........
मैं कहाँ हूँ....

manjula said...

Apka dard sedhe dil tak pahucha hai. Bahut umda