जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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Saturday, March 1, 2008

विद्रोह की धुन

अब मत कहो : मत।
इस जंग खाई व्यवस्था से
सचमुच अब है
जंग की ज़रूरत।

ठीक है।
देख लो, समझ लो
और लो परख।
नहीं कोई बहुत हड़बड़ी।
नहीं करनी तुरंत।
पर जब बीत जाए मौसम
और बदल जाए वक़्त,
फिर कुछ नहीं हो सकता
भले हो लो तुम
कितना भी सख्त।

हां मेरे भाई,
यही है सचाई
कि खुशियों के पल में
डूबे रहे लोग
और किसी को
मेरी याद नहीं आई।
अब सब करते हैं
मेरी बड़ाई।

यही तो है असली लड़ाई।
कि दो और दो होते हैं चार
तुमने जाना
पर नहीं की तुमने
तीन-पांच करने की पढ़ाई।
अब आ बैठे हो उन्हीं के बीच।
तलवारें उन्होंने ली हैं खींच।
बारी है तुम्हारी
जबड़े लो भींच
तान लो मुट्ठी
गर्म है भट्ठी
झोंक दो सारी ऊर्जा
मत सोचो
कि रहोगे दिल्ली
या भेजे जाओगे खुर्जा।

1 comment:

Ek ziddi dhun said...

no peeping, no tak-jhank