ओ मेरी गुलाबो,
यह सच है
कि तुम मुझे अब
पहले की-सी
खूबसूरत नहीं लगतीं।
जबकि याद है
तुम्हारे पहलू में बितायी गयी
मेरी हर शाम।
और उमसते हुए दिन में
तुम्हारी प्रतीक्षा के वो पल।
तुम्हारे देह में लगी
पाउडर की खुशबू
और आंखों की भाषा
मुझे विवश नहीं करतीं
तुम्हारे पास आने को।
क्योंकि अहसास है
कि मेरे होने का अर्थ
इतना संकुचित नहीं।
तुम शायद नहीं जानतीं
कि मौसम का मिजाज़
कुछ ठीक नहीं।
बदलते हुए परिवेश में
यातना झेलता है मन।
जाऊं किस ओर
नहीं कोई छोर।
चुनौतियां कई हैं
कई सवाल हैं
ढेरों तनाव हैं
संघर्ष हैं शेष।
तो ऐसे में
तुम्हीं बताओ
ओ मेरी गुलाबो
कैसे लिखूं मैं
प्रेम की पाती।
Wednesday, January 23, 2008
ओ मेरी गुलाबो
(प्रसारित/प्रकाशित)
पेशकश : अनुराग अन्वेषी at 1:31 AM
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1 comment:
अपने ब्लॉग पर टिप्पणी पढ़कर मन हुआ था आप तक पहुँचने का रास्ता जानने का....
अच्छा लगा आकर यहाँ...।
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