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Saturday, April 4, 2009

दिल्ली में डरी-सहमी लड़कियां

नौकरीपेशा लड़कियों के करेक्टर पर दबी जुबान चर्चा हमेशा होती रही है, अगर नौकरी की अनिवार्य शर्त हो नाइट शिफ्ट, तब तो चर्चा ज्यादा रंगीन हो जाया करती है। पर इन नौकरीपेशा लड़कियों की परेशानियों की चर्चा को यह समाज हमेशा हाशिये पर रख कर चला है। देश की राजधानी में नाइट शिफ्ट में काम करने वाली ऐसी ही दो लड़कियों की हत्या अभी हाल के महीने में हुई है, यह अलग बात है कि दोनों हत्याकांड के अभियुक्त पकड़े जा चुके हैं। इन हत्याओं के बाद इस महानगर की लड़कियों के भीतर कैसा डर घर कर गया है - यह सवाल भी मीडिया में अपनी जगह बनाता रहा। मीडिया में स्पेस की कमी है, इसलिए वहां विस्तार से ऐसे मुद्दों पर बात नहीं होती। पर ब्लॉग में यह चर्चा की जा सकती है। आज एक ऐसी ही लड़की की बात इस ब्लॉग पर रख रहा हूं, जो पेशे से पत्रकार हैं। पर इन दो हत्याकांड के बाद उनका विश्वास भी एक रात डगमगा गया, जब बारिश हो रही सड़क पर उन्होंने खुद को अकेला पाया। परिचय और नाम जानबूझ कर नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मकसद शख्स को सामने लाना नहीं, बल्कि आशंका और उस डर को सामने लाना है जो इस राजधानी की आबोहवा से बना है :

-अनुराग अन्वेषी


हां,

यह सही है कि अब मैं उस डर से उबर चुकी हूं। पर वह बीस-पच्चीस मिनट का अकेलापन मुझे ताउम्र याद रहेगा। इस घटना से पहले मैं नहीं जानती थी कि डर कहते किसे हैं। पर उस पच्चीस मिनट ने सिखाया कि अकेली लड़की कैसे डरती होगी किसी सुनसान सड़क पर बांह पसारे पेड़ों की छाया से। दिल्ली के मिजाज का कोई भरोसा नहीं, कब वह झुलसा देने वाली गर्मी बरसाने लगे और कब, शुरू हो रही गर्मी पर बारिश की फुहार छोड़ दे।

अभी चंद रोज पहले की ही तो बात है। जिगीषा मर्डर केस सुर्खियों में रहा था। ऑफिस हो या घर - हर तरफ इस केस की ही चर्चा थी। नाइट शिफ्ट ड्यूटी का डर। लड़की होने का डर। इन चर्चाओं में मैंने भी हिस्सा लिया था लेकिन तब तक किसी डर को कभी महसूस नहीं किया था और ही वह मुझे छू पाया था कभी। यहां तक कि जिगीषा हत्याकांड के बाद जब कामकाजी लड़कियॊं की सेफ्टी पर स्टॊरी लिखने के लिए कहा गया, तब मैंने अपने बॉस से पूछा कि फिर उसी पुराने राग को अलापने से कोई लाभ होगा? उन्होंने कहा कि तुम एक्सपर्ट्स से ये बात करो कि सोल्युशन क्या है। तब मैंने पूछा था कि क्राइम क्या सिर्फ लड़कियॊं के ही साथ हो रहा है। अगर नहीं तो फिर क्यों ये सब बार-बार लिखकर लोगों को डराएं। इस पर उन्होंने समझाया कि नहीं, क्राइम हर किसी के साथ हो रहा है लेकिन लड़कियों को सॉफ्ट टारगेट मान कर बदमाश उन पर आसानी से हमला कर देते हैं। मैं उनकी बात से कनविंस नहीं हुई थी, पर हां, स्टोरी जरूर लिख दी।

लेकिन उस शाम प्रोग्राम खत्म होने के बाद होटल अशोक से 8:30 बजे जब बाहर निकली, हल्की बारिश हो रही थी। इस इलाके में सन्नाटा पसरने लगा था। पर खुद पर इतना भरोसा था कि सड़क पर निकल आई। सोचा कि बारिश रुकने का इंतजार करने से बेहतर होगा कि ऑटो लेकर ऑफिस पहुंच जाऊं। ऑटो के चक्कर में सड़क पर आगे बढ़ती गई। अब तक बारिश तेज हो चुकी थी, अंधेरा और आंधी भी बारिश का साथ दे रहे थे। दूर-दूर तक सड़क पर सन्नाटा पसरा था। अंधेरा ऐसा कि परिचित जगह भी अनजान लगने लगे। मुझे यह अंदाजा भी नहीं लग रहा था कि मैं सही सड़क पर चल रही हूं या गलत। पंद्रह मिनट तक तो मेरे दिमाग में सिर्फ जल्दी ऑटॊ मिलने का ख्याल था, लेकिन खराब मौसम की वजह से ऑटॊवाले भी आते-जाते नहीं दिख रहे थे। जो एक-दो दिखे, उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। अब तक मैं काफी आगे निकल आई थी। सड़क के अंधेरे को कभी कभार चीर दे रही थीं गुजरने वाली बड़ी गाड़ियों की मुंह चिढ़ाती लाइटें। ऐसे में अब मुझे घबराहट होने लगी थी।

घबराहट इस कदर बढ़ गई कि घर के लोग याद आने लगे। मीडिया में पसरे जोखिमों की वजह से यह नौकरी करने की पापा की सलाह याद आने लगी। जॉब छोड़कर पढ़ाई पूरी कर लेने की भाई की नसीहत बुरी नहीं लगी इस वक्त। और बॉस की बात कानों में गूंजने लगी कि लड़कियों को बदमाश सॉफ्ट टारगेट समझते हैं। सब कुछ दिमाग में घूमने लगा और समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं। उस वक्त मैं जरूरत से ज्यादा चौकन्नी हो गई थी। पेड़ों के बीच से तेज हवा के गुजरने से आती सांय-सांय की आवाज मेरे भीतर और घबराहट पैदा करने लगी। बांह पसारे खड़े लंबे पेड़ दैत्य की तरह लगने लगे। कोई गाड़ी दूर से आती दिखती, तो सांसें थम जाती। अपने आत्मविश्वास को बनाए रख मैं अब भी आगे बड़ी जा रही थी पर पता नहीं क्यों मुझे रोना रहा था। अपने को समझाने की कॊशिश कर रही थी कि मैं रिपॊर्टर हूं, मुझे ऎसे डरना नहीं चाहिए। लेकिन फिर ख़याल आता - आखिर हूं तॊ लड़की ही। जर्नलिस्ट सौम्या का चेहरा आंखों के सामने से गुजर जाता। डिवाइडर से टकरा कर रुकी उसकी कार दिखने लगी। जिगीषा का नाम ध्यान आते ही मेरे घबराहट दोगुनी हो गई। उस डर के साथ गुस्सा भी बहुत रहा था घरवालॊं की बात मानने के लिए अपने आप पर। और लड़कियां सॉफ्ट टारगेट हॊती हैं यह जानते हुए ऑफिस से रात में अकेले रिपोर्टिंग के लिए भेजने के फैसले पर। अचानक दिमाग में आया कि बहुत हॊ गई ये नॊकरी अब और नहीं। फिर मैंने बॉस को फोन लगाया। अपनी हालत बताई। बॉस ने तुरंत ही एक कलिग को मेरा लोकेशन बता निकलने का आदेश दिया और फिर लगातार मेरे से फोन संपर्क में रहे।

यह ठीक है कि अब मैं उस रोज के डर से उबर चुकी हूं। और यह मैं खूब अच्छी तरह से जानती हूं कि रिपोर्टिंग के ऐसे अवसर आते ही रहेंगे और मैं जाती भी रहूंगी। पर इस शहर की व्यवस्था से उपजे सवाल का कोई जवाब मैं ढूंढ़ नहीं पा रही हूं कि देश की राजधानी में अगर लड़कियां इस कदर डर का शिकार बनी हैं, तो देश के दूसरे हिस्सों का क्या हाल होगा?

11 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सही मे बहुत चिंता की बात है।सरकार को इस का उचित प्रबंध करना चाहिए।हाल की घटनाएं और भी ज्यादा भय फैला रहीं हैं।

L.Goswami said...

shrmnaak ..nindniy!!kab sudhregi striyon ki yah dasa..sayad kavi nhi

Dipti said...

asliyaat isse bhi bhayanak hai.ek achcha lekh, ummid hai isse padnewale ladkiyon ki maddad ko aage aayenge aur unhe bas kaamchor hi nahi samajhenge

Dipti

दिनेशराय द्विवेदी said...

भय की समाप्ति तो होनी चाहिए। पर कैसे?

वर्षा said...

पर आखिर में हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी न...

संगीता पुरी said...

बहुत सही चिंता है आपकी ... बहुत मुश्किल है इतनी अव्‍यवस्‍था के मध्‍य दिल्‍ली के साथ ही साथ हर जगह लडकियों का आज के प्राइवेट नौकरियों को संभल पाना ... सरकार को उनकी सुरक्षा के बारे में सोंचना चाहिए।

डॉ .अनुराग said...

शायद ये भय देश के हर हिस्से में अपने अपने तरीके से मौजूद है ओर सदा रहेगा...क्यूंकि इसके पीछे समाज का मनोरोग है..जो मुझे नहीं लगता ठीक होने वाला है...

अनिल कान्त said...

jab gunhgaron ko saza sahi samay par mil jaaye aur kade niyam, kadi suraksha vyavstah di jaaye to shayad haalat thode behtar ho jaaye....par aajkal ke haalat bahut bure hain

मोहन वशिष्‍ठ said...

बहुत ही चिंताजनक और शर्मनाक है कि आज हम अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं क्‍या होगा अंजाम पता नहीं

शेफाली पाण्डे said...

बात आपने ठीक कही है ...लेकिन नग्न चित्र पोस्ट की गंभीरता को कम कर रहा है ...

Aadarsh Rathore said...

उक्त महिला पूर्वाग्रह से ग्रसित थीं। यही वजह रही कि उन्हें डर लगने लगा। और जिन परिस्थितियों की उन्होंने बात की है उसमें महिला तो क्या किसी पुरुष को भी भय लगे। इसलिए इस पोस्ट को डरी-सहमी लड़कियां शीर्षक देना उचित नहीं लगता। सुरक्षित तो पुरुष भी नहीं है। और अगर लड़कियां ज्यादा भयभीत हैं तो उसकी एक वजह प्राकृतिक भी है।