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Saturday, September 27, 2008

ईश्वर, जो हमें डराता है

मो

हल्ले पर आकांक्षा की कविता पढ़ी। उस तथाकथित ईश्वर के बारे में जिसे आज अगर याद किया जाता है तो शहर दंगाग्रस्त हो जाता है। जिसकी सारी सत्ता धर्म के ठीकेदारों ने बुनी है। ये ठीकेदार हर कौम में मौजूद हैं। और इसी सर्वशक्तिमान के बल पर इनकी दुकानदारी चल रही है। खैर, दुकानदारी का चलना और धर्मों की यह विकृति - ये तो अलग से बहस का मुद्दा हैं।

बहरहाल, सोचना चाहता हूं कि इस ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का राज कहां छुपा है। लगता है जैसे यह आस्था बरसों पहले से हमारी रगो में दौड़ रही है। तब से, जब हमारे पूर्वज जंगलों में रहा करते थे। (हालांकि रहते तो हम आज भी जंगल में ही हैं)। तो जब वह जंगल में रहते होंगे, जाहिर तौर पर उनका जीवन उसी जंगल पर निर्भर था। वह जंगल जिससे उन्हें भोजन मिलता था, जिसके आश्रय में वह रहते थे। श्रद्धा से भर उठा होगा उनका मन उसकी शक्ति देखकर। वह उसकी इज्जत करने लगे होंगे। उन्हें लगने लगा होगा इन पेड़-पौधों, झरने-पहाड़ों से बेहतर और श्रेष्ठ दूसरा कुछ तो हो ही नहीं सकता। वह नतमस्तक हुए होंगे। जीवन सुख-शांति से गुजर रहा होगा। तभी जंगल में आग लगी। (यह आग वैसे नहीं लगी होगी जैसे आज अचानक पैसेंजर ट्रेन में लग जाती है या कोई कस्बा और शहर अचानक जलने लग जाता है)। बहरहाल जंगल में आग लगी और हमारे पूर्वजों ने देखा जंगल को धू-धू कर जलते हुए। वह जंगल जो उन्हें जिंदगी देता था अभी अपनी जिंदगी बचा पाने में नाकाम था। आग जलाए जा रही थी जंगल को। सिहर गए होंगे हमारे पूर्वज। डरे होंगे। डरकर नतमस्तक हुए होंगे। डरे-डरे भागते फिरे होंगे। तभी मौसम बदला। बरसात शुरू हुई। आग को उन्होंने मरते देखा। लगा, इस आग पर तो काबू पा लेती है बारिश। यह बारिश तो आग से भी ज्यादा शक्तिशाली है। पूजा होगा उन्होंने उस बारिश को। इस तरह कई-कई और परिघटनाएं हुईं होंगी और हमारे पूर्वज कई-कई बार नतमस्तक हुए होंगे ऐसे सर्वशक्तिमानों के प्रति।

तो इस तरह हमारे भीतर डर से पैदा हुई होगी श्रद्धा और हम सबकी सत्ता स्वीकार करते गए। फिर क्या था हममें से कुछ शातिर लोग हमारे इस डर का लाभ उठाने लगे। हमारे भीतर डर पैदा करते गए, हम डरकर उस नए पैदा हुए डर को स्वीकार करते गए। ईश्वर या वह अदृश्य शक्ति, जिसका राज हमें नहीं मालूम था, हम पर राज करने लगे। धर्म के ठीकेदारों के पौबारह हुए :-( और हम ब्लॉग लिखने बैठ गए। :-)

3 comments:

Pooja Prasad said...

ऐसा भी तो हो सकता है कि एक महिला ने जब आस पास की एक अन्य महिला और फिर एक और अन्य महिला द्वारा बच्चा पैदा होते देखा होगा, तो इच्छा की होगी कि वह भी इंसानी प्रतिमूर्ति जने। जब यह इच्छा पूरी हुई होगी तो उसकी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली `चीज´ के आगे वह नतमस्तक हो गई होगी, भरोसे और श्रद्धा के नाम पर। यह भरोसा या श्रद्धा ईश्वर के `जन्म´ का कारण बना होगा।

रंजू भाटिया said...

ईश्वर है भी या नही ..आज कल सबके दिमाग का ट्रेक एक ही जैसा चल रह है लगता है ..:) कुछ दिन मैंने इस पर कविता पोस्ट की थी ""सोच और सवाल "".http://ranjanabhatia.blogspot.com/2008/09/blog-post_16.html..कल अंकित प्रथम जी के ब्लॉग पर इसी विषय पर पढ़ा ..आज आपने लिखा ...सही लिखा है ..कुछ यही तो हुआ होगा ..

दिनेशराय द्विवेदी said...

ईश्वर एक अवधारणा है, और अनेक रूपों में मौजूद है। धर्म समाज विकास की एक अवस्था में आवश्यक था। लेकिन अब अब अप्रासंगिक हो चला है। लेकिन वह जाए और एक नयी धारणा उस का स्थान ले तब तक न जाने कितने मनुष्यों की बलि ले चुका होगा।