जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Friday, January 2, 2009

तय करें अपनी भूमिका

भाई से भड़वा

और
नेता से दलाल
होने का अहसास
जब पसरा हो
अपने आसपास
तो कहने की ज़रूरत नहीं
कि अंधेरा गहरा है
और
चुनौतियां ज़्यादा
इसलिए
अब बेहद जरूरी है
कि मूकदर्शक की भूमिका से
हम उबरें
और नये साल के सूरज के साथ
संघर्ष बन उभरें

5 comments:

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

mukdarshak to hona hee nahi chahiye, narayan narayan

डॉ .अनुराग said...

Aameen!!!

विवेक said...

मूकदर्शक अब तमाशा देखने नहीं आते...हाजरी लगाने आते हैं...पट्टी बांधें आंखों पर...ताकि रिश्ते बने रहें तमाशाइयों से...और छोटा हो जाए सफर...दर्शकदीर्घा से मंच तक का.

कुमार संभव said...

मै आप को कई सालों से जानता हूँ. कई साल पहले आप मेरे घर आए थे. पिताजी से मिलने. एक युवा कवि ....... आपने कहा "अंकल कविता लिखना मेरा शौख नही मेरी ज़रूरत है" . इस एक लाइन ने मुझे आपका मुरीद बना दिया. कई साल बाद आपके ब्लॉग को देख जो खुशी मुझे मिली वो एक प्यासे को कुंवा मिलने जैसा है.
भइया मेरा नाम कुमार सम्भव है . मेरे पिताजी आकाशवाणी मे काम करते है ब्रिजेन्द्र कुमार उपाध्याय रांची के. अब आप मुझे शायद पहचान गए होंगे.
आपका छोटा भाई भी मीडिया मे है यहीं महुआ नाम के भोजपुरी चैनल मे asst. producer हूँ. गाहे बगाहे कुछ लिख लेता हूँ ब्लॉग पर www.aapkibaat.blogspot.com

Unknown said...

bhut khoob kaha bhai...
pata hai..kabi kabhi jab mookdarshak na rahne ki jid jahir ho jati hai to log samjhate hain ki kuchh mamlon main chup rahne main hi bhalayi hoti hai... tab main nahi samajh pata ki itne saare log aisa kyun kahte hain... main kuchh der khamosh ho bhi jata hun.. per jab aap jaise log aisi kavita kahte hain to bhut achha lagta hai ki mookdarshak na rahne wale bhi hote hain... humein unka saath milte rahna chahiye...bas