जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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Saturday, October 13, 2007

बहुत दिनों बाद


बहुत दिनों बाद
उठा है कोई शोर
कि आदमी भूल जाना चाहता है
अपनी वर्जनाओं को
जीतना चाहता है
नियति की लड़ाई

इसलिए, ओ कृष्ण
पूछता हूं सच बताना
कब तक मोहिनी मुस्कान से
छलते रहोगे तुम?
कब तक युधिष्ठिर
शब्दजाल रचते रहेंगे?
अब कोई भीष्म
क्यों पैदा नहीं होता?
क्यों नहीं बन पाता
कोई सुदामा
अब तुम्हारा मित्र?
क्यों काट लिये जाते हैं
एकलव्य के अंगूठे?
कभी जाति के नाम पर
तो कभी दान के नाम पर
कोई कर्ण
छला जाता है बार-बार?
आज भी
उसकी शक्ति का
अवमूल्यन होता रहा है
पर तय है कि
सत्ता के लोभ में
जातीय संघर्ष को आंच देना
धर्म की परिभाषा नहीं बन सकता।

सचमुच कृष्ण,
बेहद मुश्किल है अब चुप रहना।
माना,
कि अपने देश में
धृतराष्ट्रों की परंपरा रही है,
दुर्योधनों की कोई कमी नहीं।
फिर भी
इस बेमियादी यातना का अंत
कहीं तो होगा?

सोचो कृष्ण,
जब सत्ता पाने के लिए ही
लड़ी जाती हों लड़ाइयां,
फैलाये जा रहे हों
तरह-तरह के विद्वेष।
तीन रंगों के झंडे का सिर
मवादों से भर गया हो,
इसके चक्र के अर्थ
राजनीति के गलियारे में
भटकने लगे हों।
तो क्या
मुमकिन है
कि आदमी की आस्था
बरकरार रहे?

1 comment:

Avinash Das said...

कई दिनों तक चूल्‍हा रोया चक्‍की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्‍त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्‍त

दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद
घुआं उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलायी पांखें कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद


आपकी कविता का शीर्षक पढ़ कर बाबा की ये कविता याद आ गयी। बहुत शुक्रिया।