अनिता, अनुनय और मान्या के बिना शुरू के दो दिन तो मैंने खूब चैन से गुजारे। लगा कि 17 मार्च की खुशियां बरकरार हैं। अगर स्वर्ग होता होगा तो शायद उसका सुख यही है। पर तीसरे दिन से ही मेरा भ्रम टूटने लगा। मुझे मेरा घर अचानक पराया लगने लगा। दफ्तर से लौटता तो यहां का सूनापन मुझे काटने को दौड़ता। डर कर मैं अपने कमरे में मैं सिकुड़ जाता। समझ नहीं पा रहा था कि यह प्यारा सा घर मुझे मकान की तरह क्यों लगने लगा? मेरा स्वर्ग अचानक नर्क में कैसे तब्दील हो गया?
जो लोग पत्रकारिता के पेशे में हैं उनके घर लौटने का वक्त बेहद अटपटा होता है। मेरा भी है। देर रात लौटता था, अनिता और बच्चे तब तक सो चुके होते थे। मैं बस चुपचाप उनके कमरे में झांक आता। उन्हें सोया देख (कभी कभार जगा पाकर) बेहद सुकून मिलता। इस सुकून का अहसास तब कभी नहीं हुआ या कहें कि मेरी कमजोर संवेदनाओं ने उन्हें कभी महसूस नहीं किया। इस दफे उनकी अनुपस्थिति में वह अंतर मुझे पता चला। रात घर लौटने के बाद जब मुझे उनका कमरा खाली दिखता तो वह खालीपन मेरे भीतर भी बजने लगता। वाकई मैं बेचैन हो जाता। घर में उन तीनों का न होना मुझे बेहद खटकने लगा।
अनिता के जाने के बाद शुरू की दो रातें मैंने या तो टीवी देखते हुए बिताईं या कुछ पढ़ते हुए। अगली सुबह मैं काफी देर से जगा। देर से जगने का कोई अफसोस नहीं था क्योंकि मैं तो अपनी आजादी में डूबा था। पर धीरे-धीरे मुझे बात समझ में आई कि जिसे मैं आजादी समझ रहा था वह वाकई मेरे सिस्टम का डैमेज हो जाना था। ठीक वैसे ही जैसे जब शरीर का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा साथ छोड़ने लगता है तो आपका शरीर आपके वश में नहीं होता। वह तेजी से काम करता है, पर कब कौन सा काम वह करे इस पर न तो आपका वश चलता है न ही आपको अहसास होता है कि वह आपके मुताबिक नहीं चल रहा।
जो लोग पत्रकारिता के पेशे में हैं उनके घर लौटने का वक्त बेहद अटपटा होता है। मेरा भी है। देर रात लौटता था, अनिता और बच्चे तब तक सो चुके होते थे। मैं बस चुपचाप उनके कमरे में झांक आता। उन्हें सोया देख (कभी कभार जगा पाकर) बेहद सुकून मिलता। इस सुकून का अहसास तब कभी नहीं हुआ या कहें कि मेरी कमजोर संवेदनाओं ने उन्हें कभी महसूस नहीं किया। इस दफे उनकी अनुपस्थिति में वह अंतर मुझे पता चला। रात घर लौटने के बाद जब मुझे उनका कमरा खाली दिखता तो वह खालीपन मेरे भीतर भी बजने लगता। वाकई मैं बेचैन हो जाता। घर में उन तीनों का न होना मुझे बेहद खटकने लगा।
अनिता के जाने के बाद शुरू की दो रातें मैंने या तो टीवी देखते हुए बिताईं या कुछ पढ़ते हुए। अगली सुबह मैं काफी देर से जगा। देर से जगने का कोई अफसोस नहीं था क्योंकि मैं तो अपनी आजादी में डूबा था। पर धीरे-धीरे मुझे बात समझ में आई कि जिसे मैं आजादी समझ रहा था वह वाकई मेरे सिस्टम का डैमेज हो जाना था। ठीक वैसे ही जैसे जब शरीर का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा साथ छोड़ने लगता है तो आपका शरीर आपके वश में नहीं होता। वह तेजी से काम करता है, पर कब कौन सा काम वह करे इस पर न तो आपका वश चलता है न ही आपको अहसास होता है कि वह आपके मुताबिक नहीं चल रहा।
घर में पत्नी और बच्चों के होने से कितना फर्क पड़ जाता है माहौल में। कभी आप बच्चों से खेलते हैं, कभी समझाते हैं और कभी उन्हें डांटते भी हैं। ठीक उसी तरह पत्नी से तमाम तरह की बातें आप शेयर करते हैं - कभी दफ्तर का तनाव, तो कभी किसी सब्जेक्ट पर विचार-विमर्श। और इन स्थितियों के बाद आपका मुकम्मल चरित्र बन कर उभरता है। आप अपने व्यक्तित्व के अधूरेपन को पत्नी और बच्चों के साथ होकर ही पूरा कर पाते हैं।
अभी ध्यान जा रहा है कि इतने वर्षों से मैंने तो अनिता से खुद को शेयर किया। अक्सर अपनी बातें उनसे कीं। पर क्या कभी अनिता की बातें मैंने सुनीं? पत्रकारिता या समाज को लेकर जो सवाल मुझे मथते हैं, क्या वह अनिता को नहीं मथते होंगे? मैं कैसे भूल गया कि उसके भीतर भी पत्रकार बनने की ख्वाहिश थी। इकोनॉमिक्स में एमए और बैचलर ऑफ जर्नलिजम कर लेने के बाद उसे भी अपने करियर की चिंता थी। पर शादी के बाद उसने पूरी दृढ़ता से कहा था कि मैं घर संभालूंगी। आखिर उसने अपने करियर को तिलांजलि दी तो किसके लिए? जाहिर है इस परिवार के लिए। मुझे मुखिया की तरह स्वीकार किया - क्या यह उसकी कमजोरी थी? आज मेरा मानना है कि यह उसकी दृढ़ता थी। दृढ़ता इस अर्थ में कि जो हल्के होते हैं वही उड़ते हैं, जो अपनी धुन के पक्के होते हैं उन्हें अपने फैसलों पर टिके रहना आता है।
और ऐसी नायाब साथी से मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की उसके भीतर की हलचल। उफ्, यह मेरा कौन सा ओछा रूप है? मेरा यह रूप मुझ से छुपा कैसे रहा? मेरे इस ओछेपन को अनिता कितने सहज भाव से स्वीकार करती रही। मैं समय-समय पर उसपर गरजता रहा और वह लगातार त्याग और समर्पण के साथ मुझ पर बरसती रही। क्या त्याग करना सिर्फ औरतों के हिस्से है? यह काम मर्द प्रकृति में क्यों नहीं?
मेरी छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान अनिता कुछ वैसे ही रखती रही है जैसे अपने बच्चों का। इन सात दिनों ने मुझे जीवन के कई पहलुओं से रू-ब-रू कराया है। मेरे ही छुपे हुए कई रूपों को मेरे सामने रखा है। अनिता के बारे में सोचने की नई दृष्टि दी है। मेरे भीतर बसे बेशर्म मर्द को शर्मिंदा किया है। अब तो बस इंतजार है कि अनिता लौटे तो उसे बताऊं कि मैं तुम्हारा पति नहीं बल्कि तुम्हारा साथी हूं। ऐसा साथी जो सिर्फ 'मैं' की भाषा नहीं बोलेगा, वह 'हम' की भाषा बोलेगा। हां अनिता, यह घर मेरा नहीं, हमारा है। हमारा यह घर तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहा है। रियली आई लव यू।
15 comments:
काफी दिनों के बाद इस तरह मनोरंजक र व्यंग्यपूर्ण रचना पढ़ने को मिली....पर कहीं न किही इसमें एक किस्म की गंभीरता भी है जो इसे और भी मजेदार बनाती है...अद्भुत
आपकी पोस्ट 'आज़ादी की पहली सुबह' पढने के बाद ही में इस पोस्ट का इंतजार कर रही थी मुझे पता था की इस आज़ादी का यही हश्र होना है. पत्नी की मौजूदगी इसी प्रकार ही होती है जो उसकी नामौजूदगी में ही पता चलती है
असलियत है यह। अन्वेषण अनुरागी होता है। देखिए सब कुछ सामने आता जा रहा है परत दर परत। अनुराग बढ़ रहा है। बढ़ता ही रहेगा।
भाभीजी को आपने अब तक जितने पत्र लिखे होंगे या जितने उपहार दिये होंगे उन सबमें सबसे कीमती पत्र या उपहार यही होगा, यह पोस्ट पढ़ने के बाद भाभीजी भी यही मानेंगी।
पिछले साल इन्हीं दिनो हमारे यहां से भी जब निर्मला बच्चों के साथ छुट्टियां मनने गई थी तब मेरा भी यही हाल था। पहला हफ्ता तो आजादी के अहसास में मजे मजे से बीत गया उसके बाद क्या हुआ एक पोस्ट में लिखा था, शायद आपने पढ़ी हो... अब पता चला बच्चू
anurag ji, very nicely framed feelings and i m happy that u realized this and confessed it in front of everybody. Hope you keep up this spirit as soon as she comes back to you.
aur haan...i agree that you are a biggest Ochha person :)
चलिए...देर आए दुरुस्त आए...हकीकत महसूस की आपने...
अब मुझे भी ऐसी ही आजादी का इंतजार है
ऐसा ही होता है भाई !
संवेदना का इस रूप में सामने आना, बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है। काश इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें। दुआ है कि इतनी सिनसियरिटी सबमें हो।
अनुराग जी ! शायद पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ .. संवेदनाओं को जितनी इमानदारी और सहजता से आपने व्यक्त किया है ...काश इतनी सी बात सब लोग समझ पाते...यहाँ तो बल्कि ऐसे भी लोग है जो त्याग को समझना तो दूर बल्कि ये कहते पाए जाते हैं ..तुमने किया ही क्या है जिन्दगी में? बहुत दिल के करीब लगी आपकी ये रचना ..आपको और आपके परिवार को ढेरों शुभकामनाये
जब एक इंसान दूर जाता है तभी उसकी खूबियां पता चलती हैं और उनकी महत्ता भी ...आपने मन की बात को बहुत सशक्त रूप से लिखा है....आपका ये विचार मंथन अच्छा लगा....ये असलियत है पर फिर भी पुरुष आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते...आपने स्वीकारा ...बधाई
हा हा हा हा !!! मुझे इस पोस्ट का पिछले ४-५ सालों से इंतज़ार था ..कम से कम तब से जब से मैंने दिल्ली छोड़ा था ..मुझे हमेशा लगता था की कब आप भाभी के लिए कोई इस तरह की पोस्ट डालेंगे और मैं उस पोस्ट पे कमेन्ट करूँगा!!
सच में यह एक पोस्ट पढ़ के मुझे बहुत अच्छा लगा...:-)
bahut imandar abhivyakti.maja bhi aaya aur sahanubhuti bhi hui.par jo bat aapne mahasoos ki vo bahut mahatpoorna hai.shubhakamnaye..
देर से ही सही समझ तो गये यही आने वाले सु्ख की शुरुवात है अगर ये भावनायें कायम रहें तो।
Post a Comment