जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

Hindi Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

 
जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
'जिरह' की किसी पोस्ट पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Wednesday, February 18, 2009

चलो, व्यूह रचें

मां की कविता प्रतीक्षा पढ़ते हुए ये बातें 26 दिसंबर 95 की रात लिखी थीं। प्रतीक्षा यहां पढ़ी जा सकती है।

निःशब्द
होकर बिखर जाना,
किसी ताजा खबर की आस में
सचमुच
बहुत बड़ी भ्रांति है
सच है
कि सपने प्यारे होते हैं
लेकिन
वासंती बयार के साथ
उन्हें उड़ा देना
ठीक वैसा ही है
कि हम विरोध करें
और हमारी तनी मुट्ठियां
हवा में आघात करें
इसलिए चलो
बाहर की उमस को बढ़ने से रोकें
और
फिर से
युद्ध के लिए एक व्यूह रचें।

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

अद्भुत कविता है ..निराशा के दौर से उपजी एक आशा ....

Bahadur Patel said...

bahut badhiya hai.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

हाँ अनुराग सच ही लिखा है आपकी माँ....मगर कभी-कभी तो ये भी लगता है कि ये युद्ध तो हमारे भीतर ही कहीं अनवरत चल रहा होता है.....!!

महावीर said...

बहुत सुंदर रचना है।

Ek ziddi dhun said...

ये आपका एक स्थायी रंग है। जो लगभग हर कविता में मिलेगा। दुख और निराशा से सीधे संघर्ष का आह्वान।