जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Wednesday, January 21, 2009

आग-राग

मां की कविता 'साक्षी' पढ़ते हुए 9 फरवरी 95 की रात यह कविता लिखी थी। 'साक्षी' चांदनी आग है संकलन में शामिल है। वह कविता यहां पढ़ी जा सकती है।

-अनुराग अन्वेषी





आग मेरे भीतर है।
राख मैं भी हुआ हूं।
पर आग,
किसी समझौते का नाम नहीं मित्र।
बल्कि आग होना नियति हो गयी।

जब सभी संभावनाएं
शेष हो जाएं,
तो आग साक्षी होती है,
हमारे उबलने की।
और हम लिख देते हैं,
उम्र की चट्टान पर
कई अक्षर।
इस उम्मीद में,
कि शायद कभी,
फिर कहीं पैदा हो
आग।

4 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर !!!

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना.

डॉ .अनुराग said...

निशब्द !

विवेक said...

आग किसी समझौते का नाम नहीं...क्या बात है!!!