मां की कविता 'साक्षी' पढ़ते हुए 9 फरवरी 95 की रात यह कविता लिखी थी। 'साक्षी' चांदनी आग है संकलन में शामिल है। वह कविता यहां पढ़ी जा सकती है।
-अनुराग अन्वेषी
आग मेरे भीतर है।
राख मैं भी हुआ हूं।
पर आग,
किसी समझौते का नाम नहीं मित्र।
बल्कि आग होना नियति हो गयी।
जब सभी संभावनाएं
शेष हो जाएं,
तो आग साक्षी होती है,
हमारे उबलने की।
और हम लिख देते हैं,
उम्र की चट्टान पर
कई अक्षर।
इस उम्मीद में,
कि शायद कभी,
फिर कहीं पैदा हो
आग।
4 comments:
बहुत सुंदर !!!
बहुत गहरी रचना.
निशब्द !
आग किसी समझौते का नाम नहीं...क्या बात है!!!
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