मेरे लिए 1 दिसंबर 1994 की रात बेहद काली थी। इसी रात तकरीबन 10 बजे
पराग भइया ने दिल्ली से फोन कर बताया कि
मां की तबीयत बेहद खराब है, हमलोग कल उसे लेकर रांची आ रहे हैं। मैंने पूछा - प्लेन से या ट्रेन से। भइया का जवाब था - प्लेन से। उसके इस जवाब से मैं समझ गया कि 1 दिसंबर की शाम मां की जिंदगी की आखिरी शाम हो गई। बहरहाल, मैं उन यातनादायी दौर से फिर गुजरने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा, इसलिए इस चर्चा को यहीं पर रोक कर एक दूसरी बात कहूं।
मां की मौत के बाद उनकी एक कविता ने हमसबों का ध्यान अपनी ओर खींचा। यह कविता मां की कविताओं के दूसरे संकलन 'चांदनी आग है' में शामिल है। 'एक संदेश' नाम की इस छोटी-सी कविता में मां ने दिसंबरी शाम से आखिरी बार मिलने की बात कही है। वाकई, इस संयोग ने मुझे हैरत में डाल दिया।
आप भी पढ़ें मां की यह कविता :
एक संदेश
ओ दिसंबरी शाम।
आज तुमसे मिल लूं
विदा बेला में
अंतिम बार।
सच है,
बीता हुआ कोई क्षण
नहीं लौटता।
नहीं बांध सकती मैं
तुम्हारे पांव।
कोई नहीं रह सकता एक ठांव।

टीएस प्रमुख हेमंत करकरे, एसीपी अशोक काम्टे और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर वाकई शहीद हुए या अपनी लापरवाही की वजह से मारे गए? यह सवाल उठाते हुए यह ध्यान है कि इस वक्त यह सवाल बहाव के विपरीत तैरने की जोखिम उठाने जैसा है। पर वाकई यह सवाल जेहन में उठता है कॉन्स्टेबल अरुण जाधव के बयानों को पढ़ने के बाद। यह वही अरुण जाधव है जो जान बचाने के लिए लाश बना आतंकवादियों की उस गाड़ी में पड़ा रहा, जिसे पुलिसवालों को मार कर लूटा गया था।
जब किसी इलाके में आतंकवादी घूम रहे हों और यह जानने के बाद भी
विवेक आसरी की प्रतिक्रिया वाकई गौर करने लायक है, जो उन्होंने इस रूप में मुझ तक पहुंचाई हैं।
बातों के बाजारों में हम
कुछ बातें तो सीधी-सादी
कुछ बातें सरकारी हैं
बातों के बाजारों में
हम बातों व्यापारी हैं
मैं भी कहता तुम भी कहते
हर बात उछलती मंडी में
कुछ बातें तो जलती जाती
कुछ फुंक जाती हैं
ठंडी में कुछ बातें
सौगातें बनकर
स्याही में ढल में जाती हैं
कुछ बातें आंखों में चुभतीं
सवालात फरमाती हैं
कुछ बातें दिल को छू लेतीं
करामात कर जाती हैं
सौ बातों की एक बात
बाकी सब मारामारी है
बातों के बाजारों में हम
बातों के व्यापारी हैं एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहलाने वाले सालस्कर की अंगुलियां पुलिस कैब की स्टियरिंग संभालने में जुटी हों, तो वे अंगुलियां हथियार कब चलाएंगी। जाहिर है ऐसे में सामने से चली दुश्मन की गोली जाया नहीं जाएगी। दुश्मन को वार करने का पूरा मौका मिलेगा। और आप अपनी रक्षा भी नहीं कर पाएंगे। यही हुआ इन सिपाहियों के साथ भी।
यह मुमकिन है कि इन्हें मामले की गंभीरता का अहसास न रहा हो। और शायद इसीलिए भी सालस्कर ड्राइविंग सीट पर बैठ गए कि साथ में काम्टे और करकरे तो हैं ही। बहरहाल, यह शहीद कहे जाने लायक मामला नहीं लगता। महज आतंकवादी कार्रवाई की चपेट में आकर मारे जाने का मामला है। अगर ये सभी पुलिसकर्मी शहीद कहे जाने लायक हैं, तब वीटी स्टेशन, ताज, ओबरॉय और नरीमन हाउस में मारे गये लोग शहीद क्यों न कहे जायें? और अगर ये सभी शहीद कहे गये तो एनएसजी के हवलदार गजेंद्र सिंह और मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की शहादत को आप क्या कहेंगे? इनके लिए कोई और शब्द तलाशना पड़ेगा।
और अब बात उस सिपाही की, जिसने नौकरी तो की सिपाही की, पर सिपाही की भूमिका नहीं निभाई। लाश बन कर पड़ा रहा लूटी गई गाड़ी में। अरुण जाधव भले जान बच जाने की खुशी मना लें, पर क्या कभी वह खुद से आंख भी मिला पाएंगे? अरुण जाधव के दाहिने हाथ में दो गोलियां लगी थीं। उन्हीं के मुताबिक, उनका वह हाथ उठ नहीं रहा था। बेशक, ऐसा हुआ होगा। उन की ख्वाहिश थी कि काश उनका हाथ उनकी बंदूक तक पहुंच जाता।
ख्वाहिश का उनका यह बयान उनकी चुगली करता है। आम आदमी और पुलिस का जो सबसे बड़ा अंतर है वह है उसकी ट्रेनिंग का। पुलिस को मिलने वाली ट्रेनिंग ही उसे आम से खास बना देती है। पर लाश बनकर आतंकवादियों द्वारा लूटी गई गाड़ी में पड़े रहना पुलिस की निशानी नहीं हो सकती। कायरता या बदहवासी का यह आलम तो आम आदमी के हिस्से में होता है, पुलिस के नहीं।
जाधव ने मीडिया को बताया है कि जब गाड़ी का टायर बर्स्ट हो गया और आतंकवादी उस गाड़ी को छोड़ कर चले गए तो उन्होंने अगली सीट पर किसी तरह चढ़कर पुलिस रेडियो से बैकअप के लिए कॉल की। गौर करें कि जो शरीर बंदूक उठाने की इजाजत नहीं दे रहा था, वही मदद की गुहार लगाने के काम आ गया। दरअसल, उस वक्त का खौफ कुछ ऐसा रहा होगा कि उन्होंने बंदूक उठाने की जोखिम नहीं उठाई। आम आदमी की तरह जान है तो जहान है का फॉर्म्यूला अपनाया। लाश बन कर घूमते रहे। ऐसे सिपाही को सलाम और महिमामंडित कर रहे लोगों को मेरा सलाम (लानत)।