जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Sunday, May 25, 2008

धरती अब भी घूम रही है

भाषा की गति लोक व्यवहार से तय होती है। इसी के आधार पर मानक बनते हैं और तब तैयार होता है उसका व्याकरण। ठीक ऐसी ही बात परंपरा के लिए भी कही जा सकती है। बदलते वक्त के साथ परंपराएं भी बदलती हैं और उनका व्याकरण भी। तो बदल रही परंपराओं और बन रहीं मान्यताओं की ओर इशारा करता संजय खाती का यह नजरिया पेश है आपके लिए :

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गुजरा हफ्ता हमारे लिए बेहद तकलीफदेह रहा। नोएडा में आरुषि मर्डर केस खबरों पर छाया रहा, जिसमें तमाम अटकलों के बाद पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि चौदह साल की इस प्यारी सी बच्ची की हत्या उसके पिता ने की। उधर मुंबई में एक प्रेमी-प्रेमिका ने मिलकर एक युवक का बेदर्दी से कत्ल कर दिया। ये दोनों केस पुलिस के दावे पर आधारित हैं और जैसा कि आप जानते हैं, पुलिस के दावों को भी अदालत में सही साबित करना होता है और तभी इस बात का फैसला होता है कि कसूरवार कौन था। लेकिन फिलहाल जो डिटेल्स सामने आए हैं, वे आम नागरिक का दिल दहला देने वाले हैं और जाहिर है, यह सवाल उठे बिना नहीं रहता कि हमारे समाज को क्या हो गया है?

इस नतीजे पर पहुंचना बेहद आसान है कि हमारे समाज का नैतिक पतन हो रहा है। मीडिया ने जिन एक्सपर्ट्स से बात की है, उनकी भी राय यही है कि सोशल वैल्यू सिस्टम में गिरावट आ रही है, समाज का नैतिक तानाबाना बिखर रहा है, क्योंकि लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं। वे अपनी सुख-सुविधा के आगे किसी चीज की कीमत नहीं समझते, लिहाजा हर तरह के अपराध बढ़ रहे हैं, यहां तक कि पवित्र रिश्तों की इज्जत भी बची नहीं रही।

मेरा मानना है कि यह एक आसान जवाब है, और जैसा कि होता है, आसान जवाब सही जवाब नहीं होते। वे हमें इसलिए पसंद आते हैं कि हमें ज्यादा सिर खपाने से फुर्सत मिल जाती है। यह सही है कि पुराना वैल्यू सिस्टम बिखर रहा है, लेकिन सिर्फ इतने से ही जुर्म बढ़ने का दावा साबित नहीं हो जाता। सबसे पहले तो यह बात ही बहस में है कि जुर्म बढ़ रहे हैं।

हमारे पास जो आंकड़े हो सकते हैं, वे काफी नए हैं। मसलन हम यह पता नहीं लगा सकते कि बीस, पचास या सौ साल पहले अपराध कम होते थे या ज्यादा। इसकी वजह रिपोर्टिंग सिस्टम है। आज का समाज कहीं ज्यादा संगठित है, लोग ज्यादा जागरूक हैं और सिस्टम ज्यादा कारगर है, इसलिए अनगिनत ऐसे केस भी अब दर्ज होने लगे हैं, जो पहले नहीं हो पाते थे।

मुझे लगता है कि जुर्म तब भी होते थे और बड़ी तादाद में होते थे, लेकिन वे पुलिस केस नहीं बनते थे। जिन मामलों को आज हम वैल्यू सिस्टम टूटने की मिसाल मानते हैं, वे भी हर युग में हुए हैं। इतिहास और पुराणों को देखिए, जहां राजपाट के लिए भाइयों और पिता की हत्या के किस्से आम हैं, बल्कि जायज ठहराए गए हैं। परिवार के भीतर बदकारी (इंसेस्ट) के आरोप से तो देवता भी बरी नहीं हैं।

परिवार और समाज का विकास होने के बाद भी उनकी नैतिकता को लगातार चैलेंज किया जाता रहा है। पिछड़े समाजों में ऐसे-ऐसे अत्याचार होते हैं कि रूह कांप जाए। पाकिस्तान के कबाइली इलाकों में किसी कुनबे को सजा देने के लिए उस कुनबे की महिला से सामूहिक बलात्कार का मामला हाल में इंटरनैशनल मुद्दा बन गया था, जब मुख्तारन माई ने बगावत कर दी थी।

जिन्हें क्राइम ऑफ पैशन कहा जाता है, यानी जज्बाती अपराध जैसे कि नोएडा और मुंबई के केस हो सकते हैं, उनकी भी कमी कभी नहीं रही। शहरों से दूर ऐसे किस्से सैकड़ों मिल जाएंगे, जिन्हें इज्जत के नाम पर दबा दिया जाता है।

यहां तक कि शहरों में भी ऐसे केस हमेशा होते आए हैं। फर्क यह है कि वे हाई प्रोफाइल केस नहीं होते। ज्यादा से ज्यादा वे पुलिस फाइलों में गुम हो जाते हैं, मीडिया उन्हें तवज्जो नहीं देता। लेकिन जब उसे कोई हाई प्रोफाइल सनसनीखेज मामला मिल जाता है, तो उसके शोर की इंतहा नहीं रहती। इस शोर का असर हम पर जबर्दस्त होता है और हम डिप्रेशन के शिकार हुए बिना नहीं रहते। हमें लगने लगता है कि दुनिया ने अपनी धुरी पर घूमना छोड़ दिया है। हम नरक में जा रहे हैं। सब कुछ खत्म हो रहा है।

यह एक बुजुर्ग सोच है। हर उम्रदराज शख्स को लगता है कि उसका जमाना बेहतर था और अब अच्छाई खत्म होती जा रही है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ जीवन का जोश धीमा पड़ने लगता है, थकान और ऊब के धुंधलके के पार नए जमाने की हलचलें भुतहा दिखने लगती हैं। हर पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी उद्दंड, बदतमीज और बेसब्र नजर आती है।

वक्त की करवटें गुजरे जमाने की शरारतों को इतना मासूम बना देती हैं कि उनके बरक्स मौजूदा दौर हाहाकारी लगने लगता है। लेकिन सच तो यही है कि हर नया जमाना पहले से ज्यादा बिंदास, तरक्कीपसंद, शौकीन और मेहनती साबित होता है। इसीलिए समाज आगे बढ़ता है, वह कभी जंगलों की ओर नहीं लौटता।

तो समाज के पतन की थ्योरी को गलत मानते हुए मैं दो नतीजों तक पहुंचना पसंद करूंगा। एक तो यह कि समाज नीचे नहीं जा रहा, वह अपने रास्ते पर है, जैसी कि उसकी फितरत है, और दूसरा, नैतिकता की जिस गिरावट का रोना हम रोते रहते हैं, वह असल में नैतिकता के मतलब बदल जाने से पैदा हुई गलतफहमी और तानव का मामला है।

इस दूसरे मुद्दे का थोड़ा सा खुलासा शायद जरूरी है। नए जमाने में पुराने पैमाने टूट रहे हैं, जैसे कि विवाह और परिवार की संस्थाएं। जाहिर है, इसके साथ रिश्तों के मायने भी बदलेंगे। लेकिन इसमें वक्त लगता है। भारत जैसे समाज में, जहां परंपरा काफी मजबूत रही है, यह काम और भी मुश्किल होगा। लिहाजा पुराने मूल्यों को बचाने की जिद भी होगी, नए का लालच भी और डर भी।

विवाह से पहले और विवाहेतर रिश्ते आम बात होते जा रहे हैं, लेकिन उनके साथ जुड़ी उलझनें भी। अगर हम पुलिस के दावे को मानें, तो आरुषि के मर्डर जैसा केस अमेरिकी समाज में नहीं घट सकता, जबकि भारत में उसके पूरे चांस हैं। पश्चिम में परिवार की थीम इतनी कमजोर पड़ चुकी है कि पिता को अपना रिश्ता छिपाने और इज्जत बचाने के लिए इस हद तक जाने की जरूरत नहीं होती। उसे बेटी के किसी रिश्ते पर भी नाराज होने का हक नहीं होता।

इसी तरह मुंबई वाले मामले का निपटारा भी वहां दूसरे तरीके से हो सकता था। अलबत्ता उस केस से जुड़ी बेरहमी जरूर चौंकाने वाली बात है, लेकिन ऐसा पागलपन कब नहीं था? क्राइम ऑफ पैशन हर जमाने और हर समाज में होते रहेंगे। इंसान सृष्टि का सबसे अक्लमंद जीव है। उसके गिरने की कोई हद नहीं है, लेकिन आखिरकार अपनी सामूहिकता में वह ऊपर ही उठता देखा गया है। दिन-रात हमें घेरे हुए इन डरावने किस्सों और तमाम अपशकुनों के बावजूद इस सचाई पर भरोसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
साभार : नवभारत टाइम्स

Friday, May 16, 2008

दहलाने वाली दृष्टि

आज चोखेर बाली पर सुरेश जी का 'दहल' जाना पढ़ा और दूसरों को 'दहलाने की उनकी कोशिश' भी देखी। सुरेश जी कितने संवेदनशील हैं इस बात का पता इससे ही चल जाता है कि उन्होंने इतनी भयंकर वारदात को महज 'घटना' माना है। आपने लिखा है 'यह नारी अशिक्षित नहीं है. उसने अंग्रेजी में एम् ऐ किया है. ' सुरेश जी, शिक्षित होने का संबंध जो लोग डिग्रियों से तौलते हैं, मुझे उनके शिक्षित होने पर संदेह होने लगता है। आपको ढेर सारे ऐसे लोगों के उदाहरण अपने समाज में मिल जाएंगे, जिन्होंने स्कूल-कॉलेज का चेहरा तक नहीं देखा, पर उनकी शालीनता और उनके संस्कार के सामने डिग्रीधारी भी बौने नजर आने लगते हैं।

आपने लिखा 'उसके पिता ने अपनी इस एकलौती बेटी को बेटों जैसा प्यार दिया. शिक्षा पूरी होने पर उसे एक स्कूल में अध्यापिका की जॉब दिला दी.'


दो-तीन बातें इन दो वाक्यों पर। पहली बात तो यह कि उस पिता ने सिर्फ प्यार दिया। यह आकलन आपका है क्या कि बेटों जैसा प्यार दिया? जो परिवार अपनी बेटी को एमए तक की पढ़ाई करने का अवसर दे, वह दकियानूसी नहीं हो सकता। दकियानूस दृष्टि यह है कि हम उसे कहें कि उसे बेटों जैसा प्यार दिया। खतरनाक बात यह कि अध्यापक पिता ने अपनी बेटी को पढ़ा तो दिया पर उसके भीतर समझ पैदा नहीं कर सका, संस्कार पैदा नहीं कर सका। और तो और आपके मुताबिक 'शिक्षा पूरी होने पर उसे एक स्कूल में अध्यापिका की जाब दिला दी।' गौर करें सुरेश जी, वह लड़की इतनी भी शिक्षित नहीं थी कि एक छोटी-सी जॉब पा सके। आपके मुताबिक, उसके टीचर पिता ने उसे जॉब दिलाई थी। एक दुखद बात और कि जो टीचर अपने घर के बच्चे को सही और गलत के अंतर को समझ पाने की दृष्टि नहीं दे सका, वह समाज को क्या सिखलाएगा? और आखिर में एक कुतर्क, अगर बाप ने बेटी को बेटों जैसा प्यार दिया, तो बेटी ने भी उस प्यार का सम्मान करते हुए बेटों जैसा काम किया। बहरहाल, अपराध न बेटा (पुरुष) करता है, न बेटी (स्त्री)। यह आपको भी समझना चाहिए।


आपने लिखा 'मैंने भी जब इस के बारे में सुना... '। पर आपने हमें जो सुनाया, वह तो लाइव कमेंट्री की तरह है। लगा ऐसा कि हत्याएं हो रही हैं और आप वहां खड़े होकर बारीक तरीके से वारदात के हर स्टेप को अपनी डायरी में दर्ज कर रहे हों। दरअसल, आपने इस वारदात को अपनी ओर से रोचक बनाने की अथक कोशिश की है। हां सुरेश जी, अपराध की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वह रोचक नहीं हो सकता, वह घृणित ही रहेगा। उसे रोचक अंदाज में पेश करने की कोशिश उससे भी ज्यादा घृणित। ऐसी किसी वारदात को स्त्री-पुरुष से जोड़कर देखने वाली दृष्टि इस समाज के लिए कितनी खतरनाक है, इस पर अगर आप विचार कर सकें (मुझे संदेह है) तो करें। और फिर बताएं कि यह अपराध किसी स्त्री ने किया या किसी पुरुष ने?

Thursday, May 15, 2008

विकास का भेंग

मैं रहता हूं गाजियाबाद के वसुंधरा (यूपी) में। नौकरी करता हूं दिल्ली के एक अखबार में। मेरे बड़े भाई का घर भी वसुंधरा की इसी जनसत्ता सोसाइटी में है। वह नौकरी करते हैं एक न्यूज चैनल में। मेरी छोटी बहन धनबाद (झारखंड) के एक कॉलेज में हिंदी की लेक्चरर है। मां को गुजरे अब 13 साल बीत चुके हैं। पापा रांची (झारखंड की राजधानी) में रहते हैं। अपना मकान है। पांच किरायेदार हैं।

भइया 92 में ही दिल्ली आ गया था। मैं आया हूं महज चार साल पहले। भइया को दिल्ली भेजने के बाद पापा यही कहा करते थे कि वह नौकरी की तलाश में नहीं, भविष्य की तलाश में गया है। मैं इतने वर्ष टिका रहा रांची में तो सिर्फ अपनी जिद पर कि पापा के साथ रहना है। पर आखिरकार मुझे भी दिल्ली का रुख करना पड़ा। मुझे भेजते वक्त पापा की अभिव्यक्ति थी 'जब पराग को भेजा था दिल्ली, तो लगा मेरा दिमाग मुझसे अलग हुआ। रेमी की शादी की, तो लगा कोई मेरा दिल मुझसे अलग कर ले गया। और अब तुम्हें भेज रहा हूं तो जान रहा हूं कि मैं अपाहिज हो जाऊंगा, क्योंकि तुम्ही तो मेरे हाथ-पांव हो।'

यह कहानी सिर्फ मेरे परिवार की कहानी नहीं है। यह इस देश के हर तीसरे-चौथे-पांचवें परिवार की कहानी है। गांव का बेटा बेहतर की तलाश में शहर की ओर भाग रहा है, शहर का बेटा इसी बेहतर की तलाश में महानगर का रुख करता है और महानगर का बेटा भाग रहा है विदेश। यानी हम सब भाग रहे हैं, हांफ रहे हैं, खीज रहे हैं, जूझ रहे हैं। इस जूझने से हासिल हो रहा है थोड़ा ज्यादा पैसा, थोड़ा ज्यादा तनाव और बुरी तरह अपने और अपने परिवार से कटते जाने का संत्रास।

इस देश में हर वह शख्स जो अपने पिता होने का दायित्व निभाता है, अपना पूरा वर्तमान और भविष्य के तमाम सपने झोंक देता है अपने बच्चों पर। इस झोंकने के पीछे कहीं वह सोच भी काम करती है कि यही बच्चे तो हमारे बुढ़ापे का सहारा होंगे। बच्चे भी पिता के सपनों पर खरा उतरने की कोशिश करते हैं। पर बदले हुए वक्त और इस वक्त की जरूरत के मद्देनजर उन्हें भी कई समझौते करने पड़ते हैं। इन समझौतों के बीच बड़ा हुआ बच्चा अपने बच्चों का बाप बन चुका होता है और फिर वह उस बच्चे के लिए अपना वर्तमान और भविष्य झोंकने लगता है। यानी, कुल मिलाकर यह चक्र हर मध्यवर्गीय भारतीय को पीसता रहता है।

सच यह है कि ऐसे हालात पीड़ा पैदा करते हैं। अनामदास ने ठीक कहा है यह पीड़ा अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ जीने का संघर्ष है। जो मुड़कर देखना नहीं चाहते, वह खुश हैं। बच्चों की प्रगति देखकर अलग रह रहा पिता भी खुश होता है। पर यह खुशी उसके अकेलेपन पर भारी पड़ती है।

आखिर, बेहतर की तलाश में हो रहा विस्थापन हम क्यों स्वीकार करते हैं। दरअसल, इंसान की अतृप्ति उसे बेहतर की तलाश में भटकाती है। जैसे ही एक अतृप्ति तृप्त होती है, उसकी जगह फिर कोई नई अतृप्ति आ जाती है। क्योंकि यह इंसान जानता है कि तृप्त जानवर होने से बेहतर है अतृप्त आदमी बन कर रहना। तो अपने को आदमी बनाये रखने के लिए बहुत सहज रूप में वह अपने भीतर नई अतृप्तियां भरता जाता है। ऐसे ही समय में बेहतर की परिभाषा भी बिल्कुल व्यक्तिपरक हो जाती है। कोई अपनी बेहतरी दिल्ली छोड़कर यूपी के किसी कस्बे में बसने में देखता है तो कोई किसी कस्बे को छोड़कर विदेश में बस जाने में। यानी, विस्थापन की वजहें कई सारी हैं। कई बार बिल्कुल ही निजी भी।

इन सब के बीच, विस्थापन की एक बड़ी वजह है विकास की अधकचरी योजना। हो रहे विस्थापन का 60-70 प्रतिशत हिस्सा इसी का नतीजा है। यह वह देश है जहां किसी शहर में मेट्रो की लाइन बिछ रही होती है और कई इलाके साइकल चल सकने लायक सड़क के लिए तरसते रह जाते हैं। कुछ शहरों में आधुनिकतम संसाधन हैं तो कई इलाके बुनियादी साधनों का इंतजार कर रहे हैं। एक तरफ ऋण में डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों टन अनाज गोदाम में सड़ रहा है। यानी, विकास की भेंगी दृष्टि देश के हर हिस्से को नहीं देख पा रही है। विकास का यह भेंग जब तक दूर नहीं होता, लोगों का विस्थापन होता रहेगा। हम पलायन करते रहेंगे सिर्फ अपने इलाके से नहीं बल्कि देश और समाज के प्रति अपने दायित्वों से भी।

Tuesday, May 13, 2008

बता री सजनी


बिन मौसम मुझे याद तेरी क्यों आई
हां री सजनी, अब हो गई तेरी सगाई

न कर नम अपनी ये प्यारी-प्यारी आंखें
हां री सजनी, दुआएं लिए खड़ी है माई

चल उठ, छोड़ अतीत देख अब सिर्फ आगे
हां री सजनी, मत कह अब दुहाई है दुहाई

मत कोस किसी को, नहीं बदलेगा कुछ भी
हां री सजनी, अब न बाप सुनेंगे न भाई

मेरी सांसों की हर आहट, भर रही है घबराहट
बता री सजनी, ये दिल क्यों निकला हरजाई

Wednesday, May 7, 2008

बेटा करे डिनर, पिता खाए 'बन'

आज मेरा 38वां जन्मदिन है। संयोग से मेरे वीकली ऑफ का दिन भी। बच्चों की जिद थी कि डिनर के लिए होटल चलें। उनकी जिद पूरी कर दी। उन्होंने खूब चाव से खाना खाया। यह देखकर मुझे भी संतोष हुआ। पर साथ ही मेरे जेहन में यह बात भी कौंध रही थी कि मेरे पिता आज घर पर बिल्कुल अकेले हैं। चौबीस घंटे घर में रहनेवाली मेड सरहूल का पर्व मनाने गांव गई है। दो-चार दिन में लौटना है। उसकी अनुपस्थिति में पापा ने आज सुबह दूध-चूड़े पर गुजारा किया। दोपहर में कुछ भी नहीं खाया और डिनर के लिए दुकान से बन (एक तरह की पावरोटी) मंगवा ली है। मैं अपने बच्चों के साथ होटल में चिकन और बटरनान खा कर लौटा हूं। और मेरे पिता अपने बच्चों से दूर ब्रेड खाकर काम चला रहे हैं।

यह अयाचित स्थिति क्यों बन जाती है जिंदगी में। आज मनःस्थिति ऐसी नहीं कि इस पर चर्चा कर सकूं। पर किसी पोस्ट में यह चर्चा होनी है कि रोजगार की वजह से हो रहा विस्थापन भी दर्द के नए प्रदेश में हमें ले जाता है।