यह लेख मैंने पांच दिन पहले लिखा था। उस वक्त तक वह जिंदा थी। आज फर्क इतना है कि वह हम सबों के भीतर जिंदा है। पर अगर उसे सचमुच जिंदा रखना है तो इस मर्दवादी समाज को बदलना होगा, उसे स्त्रियों के बारे में अपने सोचने के तौर-तरीके में बदलाव करना होगा। अन्यथा वह बार-बार मरती रहेगी और हमारी हर आवाज गूंगी कही जाएगी, हमारे हर आंसू घड़ियाली कहे जाएंगे।
बदलना होगा मर्दों का नजरिया और पुलिस का चरित्र
इ
न दिनों पब्लिक और कुछ नेताओं की ओर
से यह मांग तेज है कि कानून में संशोधन करते हुए रेपिस्ट के लिए फांसी की सजा का
प्रावधान हो। अगर सरकार किसी दबाव में आकर इस तरह का कोई फैसला करती है तो यह गलत
होगा।
जो लोग ऐसी मांग कर रहे हैं उनका
मानना है कि फांसी की सजा के प्रावधान के बाद ऐसी वारदात में कमी आएगी। दरअसल यह
भावुक सोच है। इतिहास देखने की जरूरत है कि जिन अपराधों के लिए फांसी की सजा का
प्रावधान है, क्या वैसे अपराध होने बंद हो गए? जवाब ना में ही
मिलेगा। समाजशास्त्रीय नजरिये से विचार करें तो यह समझा जा सकता है कि समाज को
जागरूक कर इस तरह के अपराध में कमी तो लाई जा सकती है पर किसी भी समाज को अपराधमुक्त
नहीं बनाया जा सकता। रेप के मामले में फांसी की सजा के प्रावधान से एक खतरा यह
होगा कि बलात्कारी अपने ‘शिकार’ को जिंदा नहीं
छोड़ेगा। अपराध मनोविज्ञान बताता है कि अपराधी अपने अपराध छुपाने के लिए साक्ष्यों
को मिटाने की हरसंभव कोशिश करता है। अभी तक के अधिकतर केसों में बलात्कारी अपने
शिकार को डरा-धमका कर चुप रहने की हिदायत देता हुआ नजर आया है, पर जब रेप मामले
में फांसी की सजा का प्रावधान होगा तो उसकी पहली कोशिश होगी कि कोई साक्ष्य न रहे
और इसके लिए वह अपने ‘शिकार’ की जान लेने से भी
गुरेज नहीं करेगा।
अब यह बात इस समाज को सोचने की जरूरत
है कि वह रेप को इतना विशिष्ट अपराध क्यों मानता है? वह क्यों मानता है
कि रेप की शिकार हुई युवती की जिंदगी मौत से भी बदतर हो जाती है? और किसी
स्त्री को किस हद तक शारीरिक क्षति झेल कर इस अपराध को रोकने के लिए संघर्ष करना
चाहिए? स्त्री की यौन शुचिता का पुरुषवादी आग्रह जैसे-जैसे समाज में
कम होगा, इस अपराध का दंश भी स्त्री के जेहन से कम होता जाएगा।
स्त्री के साथ होने वाले अपराधों की
संख्या के बारे में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो बतलाता है कि 2011 में देश में
रेप के 24206 और दहेज हत्या के 8618 मामले दर्ज हुए, जबकि महिलाओं के साथ होने
वाले अपराध (इंडियन पिनल कोड और स्पेशल एंड लोकल लॉ) के तहत 2,28,650 मामले दर्ज
हुए हैं। इस तरह अगर देखें तो महज एक साल में देश भर में महिलाओं के साथ हुए अपराध
के 2,61,474 मामले दर्ज हुए थे। एनसीआरबी के मुताबिक ही दिल्ली में 2011 में रेप के
कुल 572 मामले दर्ज किए गए, जबकि मध्यप्रदेश में 3,406, वेस्ट बंगाल में 2,363,
उत्तर प्रदेश में 2,042, आंध्रप्रदेश में 1,442, राजस्थान में 1,800, महाराष्ट्र
में 1,701 और असम में 1,700 मामले दर्ज किए गए थे।
अपने देश में बलात्कार मामले में सजा
दर बेहद कम है। खबरों में आते रहे छिटपुट आंकड़ों पर अगर भरोसा करें तो 2010 में
ऑस्ट्रेलिया में रेप के 91.9 फीसदी मुलजिम दोषी करार दिए गए थे, इसी साल स्वीडन
में 63.5, अमेरिका में 27.3, ब्रिटेन में 28.8, नार्वे में 19.2, बांग्लादेश में
10.13, रूस और स्पेन में 3.4 और कनाडा में 1.7 फीसदी रेप के आरोपी मुजरिम करार दिए
गए थे। इन देशों के मुकाबले भारत में बलात्कार मामले के 1.8 प्रतिशत मुलजिमों को
दोषी साबित किया जा सका था। अभियोजन निदेशालय, दिल्ली सरकार का आंकड़ा बताता है कि
2011 में दिल्ली की जिला अदालतों में रेप के कुल 650 मामले निबटाए गए, जिनमें महज
199 को दोषी करार दिया जा सका।
गवाहों का मुकरना, समझौता कर लेना,
जांच में लापरवाही बरता जाना जैसी कई बातें हैं जो मुजरिम को सजा से बचा लेती हैं।
अपने देश में जितने मामले रेप के
दर्ज होते हैं, उससे ज्यादा मामले तो लोकलाज की वजह से या पुलिस के व्यवहार और
कोर्ट के चक्कर लगाने के डर से दर्ज ही नहीं कराए जाते। देश की राजधानी में सिपाही
सुभाष तोमर की मौत को जो रंग देने की कोशिश दिल्ली पुलिस ने की है, वह देश के
पुलिसिया चरित्र का प्रतिनिधित्व करती है। तथ्यों को तोड़मरोड़ कर मनचाहे ढंग से
रिपोर्ट गढ़ने की ऐसी कोशिशें ही उसे आम आदमी से दूर करती है। और जब कभी किसी केस
विशेष में वह ईमानदारी से साक्ष्य जुटाने की कोशिश भी करना चाहती है तो उसके बन
चुके चरित्र की वजह से जनता का भरोसा उसे नहीं मिल पाता, नतीजतन गवाह की कमी पड़
जाती है, साक्ष्य नहीं जुट पाते।
अगर देश की पुलिस अपने चरित्र में
बदलाव करे, अपनी जिम्मेवारियां ईमानदारी से पूरी करे तो न तो रेप केस में फांसी की
सजा की मांग का भावुक गुबार फूटेगा, न तो देश भर में ऐसे किसी प्रदर्शन की जरूरत
पड़ेगी और न ही अदालतों में सजा दर कम होंगे।
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