जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था।
इस वक्त रोम का वह नीरो हम सबों की आत्मा में घर कर चुका है। नतीजा है कि मैं भी नीरो, तुम भी नीरो, हम सब नीरो। हमारे पास हमारी डफली है अपना राग है। हम गाएंगे। हमें कौन रोक सकता है। यह लोकतांत्रिक देश है। यहां किसी को कोई भी नहीं रोक सकता। हम बिकेंगे, तुम रोकने वाले कौन? हम खरीदार हैं, खरीदेंगे। तुम रोकने वाले कौन?
पर यह न भूलें कि यह वही देश है जहां बुद्ध ने पूछा था 'मैं तो रुक गया, तुम कब रुकोगे' ? उनके यह पूछने मात्र से अंगुलिमाल रुक गया था।
साथियो, सच बताना कि इस देश में कुर्सी बचाने और गिराने का जो घिनौना खेल हो रहा है, वह तुम्हें सालता है या नहीं? अगर सालता है तो फिर हमसब बेज़बान क्यों हैं? साहित्यकार हों या विचारक, सब खामोश क्यों हैं? अखबार और चैनलों को छोड़ दें तो इस मुद्दे पर ऐसी चुप्पी क्यों है? 'इससे मेरा क्या लेना-देना' की भूमिका में हम खड़े क्यों हैं? गौर करें, इस गौरवशाली देश के सामने 'गौरव' का क्षण कोई पहली बार नहीं आया। इससे पहले भी यह होता रहा है। पर इस बार यह नंगे तरीके से सामने आया। मीडिया इन नेताओं से उनके बिकने और खरीदने पर खुलेआम सवाल पूछ रहा है और वे गोल-मटोल जवाब दे, खुद को पाक-साफ बता रहे हैं।
हर सरकार आग्रह करती है जनता से कि अपनी आय की सही जानकारी दें। पर क्या यह सरकार बताएगी कि सांसदों को खरीदने के लिए उनके जो दलाल करोड़ों रुपये लेकर भटक रहे हैं, ये रुपये के आय का स्रोत क्या है?
या वह विपक्ष, जो सरकार की कुर्सी गिराने में जी-जान से जुटा है, यह बताने की हिम्मत जुटा पाएगा कि सहस्त्र (क) मल जुटाने के लिए उसके पास इतनी राशि कहां से आ रही है?
यही वह वक्त है, जब हम अपने भीतर के नीरो को मार भगायें। हम स्वांतः सुखाय के लेखन से बाहर आयें, बहुजन हिताय की बात भी सोचें। हमारे भीतर के शब्द हमारे हाहाकार को बतायें, न कि किसी नकली दुनिया को रचते हुए हमें आत्ममुग्ध बतायें।
सचमुच, अपनी अब तक की चुप्पी से और इस घिनौनी राजनीति का अप्रत्यक्ष हिस्सा होकर मैं आत्मग्लानि से भर गया हूं।
8 comments:
...भर तो मैं भी गया हु.... और जो कर सकता हू कर रहा हू.....
जिस वक्त हम नीरो की उस बांसुरी की मीठी तान को सुनने में लीन या तल्लीन हैं, दरअसल यह शोक का वक्त है। शोक इस बात पर कि हम जिस देश की "महान लोकतांत्रिक परंपराओं" पर छाती ताने रहते हैं, वह न्यूनतम भूख भी हमसे अब छिन रही है। मसला सिर्फ परमाणु करार पर सरकार को कुर्बान करने या उसे गिरा देने भर का नहीं है। ऐसी खुलेआम खरीद-बिक्री या दलाली भी कोई पहले बार सामने नहीं आया है। एक ऐसे देश की गोद में जाकर सिर छुपाने से पहले किसी से पूछने की जरूरत नहीं समझी गई जो हमेशा अपनी गोद में आए सिर को अपनी शर्तों पर ही महफूज रखता है। क्या यह उन्हीं "महान लोकतांत्रिक परंपराओं" वाला लोकतंत्र है? परमाणु करार के बहाने अपना अस्तित्व दांव पर लगा देने से पहले क्या यह जरूरी नहीं था कि लोगों को उस मसले पर ठीक से जानकारी दी जाती, नफा-नुकसान बताए जाते, या कम से कम अपनी भविष्य की हैसियत बताई जाती? लेकिन अब लोग कहां जरूरी हैं? महज एक दिन के मेले में वोट गिराना है तो गिराओ, वरना हम तो अपनी सरकार बनाएंगे ही। अब किसे खरीदतें हैं, या किसे बेचते हैं, या खुद को कितने में बेचते हैं यह हम पर निर्भर है- तुम्हारा काम देखना है, देखो। चुपचाप देखो।
यह है, लेकिन कुछ अपने भीतर बचा है, तो कम से कम शर्मिंदा तो हो ही सकते हैं, ग्लानि से तो भर ही सकते हैं। इसे मेरा पागलपन नहीं समझें कि मैं घोषित तौर पर अफसोस जता रहा हूं कि मैं उस देश का वासी हूं जहां वह हो रहा है, या होता रहा है, जो आप या हम चुपचाप देखते रहे हैं।
आपका सोचना और कहना दोनो सही है। आज साहित्यकार को अपने सामाजिक कर्तव्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है। प्रेरक लेख के लिए बधाई।
धूर्त पूंजी के दौर के साथ ही लालच के बड़े संसार ने हमारे भीतर डेरा जमा लिया है. इसी दौर में सांप्रदायिक राजनीती भी खूब फली-फूली. कुल मिलाकर मध्य वर्ग ने घिनौने ढंग से लालच और फासीवादी कीचड में छलांग लगा दी और यह समझे बिना कि ये कहर किस पर टूटेगा, झूठे छलावों में मस्त हो गया. जहाँ तक पुराने और नव धनिक वर्ग की बात है, उसका एजेंडा साफ़ है, अमेरिका या कोई भी देश को लुटे-खाए, हमें हिस्सा मिलता रहे. तो ये मसला आवाम का है और आवाम कुत्ता-बिल्ली और उसके मसले पर बोलने वाला देशद्रोही..
झूठी दुनिया में खोये लेखकों के झुंड के बावजूद इन मसलों पर लिखा भी जा रहा है और गहरे सरोकारों के साथ काम भी हो रहा है, पर ऐसे लेखक मुख्यधारा की मीडिया के लिए वर्जित हैं....आपके कंसर्न के लिए साधुवाद
आपका ब्लॉग पहली बार देखा, ऐसा लगा कि आपसे मैं कहीं मिल चुका हूँ. फ़िर याद आया कि आपसे मेरी मुलाकात एक बार प्रभात ख़बर के दफ्तर में ही हुई थी. खैर आपका ब्लॉग अछा लगा. क्या ये कम्युनिटी ब्लॉग है, या फिर आपका व्यक्तिगत? खैर जो भी है, बहुत अच्छा है.
आप नाहक परेशां होते है....इनसे आप उम्मीद ही क्यों करते है ?वैसे भी हम लोग कुछ नही कर सकते है ...आज शिव खेर साहेब ने अखबार में विज्ञापन तो दिया है ...पता नही उनकी नीयत ठीक है या नही ?
परेशानी का सबब है,
परेशान तो करेगा ही
मगर इतनी घुटन देगा,
यह एहसास न था.
bahut si maanikhez chpiyon ki trah shor aur sharm bhi manikhez hota hai!!!
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