सुनते थे खामोशी शोर से घबराती है
खामोशी ही शोर मचाए, ये तो हद है
सचमुच, ब्लॉग पर खुद की इतने दिनों की लंबी चुप्पी मेरे भीतर गहरा शोर मचाने लगी। आज वह शोर जोर मार रहा है।
बकौल मान्या, 'पापा गर्मी तो बीती नहीं, फिर छुट्टियां खत्म क्यों हो गईं?' मैं जब भी कंप्यूटर ऑन करता, अनुनय पहुंच जाता - पापा, मुझे गेम खेलना है। कुल मिलाकर इन दोनों बच्चों ने कंप्यूटर 'हैक' कर लिया था। मैं कुछ नहीं कर सकता था।
जो बचा समय होता था, वह बच्चों के होमवर्क में होम हुआ। अनुनय II में है और मान्या I में। पर स्कूल से मिले होमवर्क (प्रोजेक्ट वर्क) इन बच्चों के स्टैंडर्ड से ऊपर के थे। बाद में मैंने इनके स्कूल के और बच्चों से भी संपर्क किया, सबका हाल एक-सा था। यानी, होमवर्क बच्चों के लायक नहीं, मां-बाप के लायक। यही हाल दूसरे स्कूलों का भी दिखा। मैं समझ नहीं पाया कि प्रोजेक्ट के नाम पर ऐसे होमवर्क से बच्चे क्या सीखेंगे, जो वे करते ही नहीं।
प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - बर्ड हाउस बनाएं। घर की दैनिकचर्या भले गड़बड़ा गई, पर बिटिया रानी बर्ड हाउस देख कर फूली नहीं समाई। मां-बाप की मेहनत कामयाब हुई
मेरी छोटी-सी समझ में यह बात नहीं अंट पा रही कि ऐसे प्रोजेक्ट वर्क से बच्चे में कौन-सा टैलेंट पैदा करना चाहता है स्कूल। सबसे दुखद पहलू, स्कूल से संपर्क करें तो सलाह मिलेगी कि कहां टेंशन पाल रहे हैं, फलां दूकान वाले को कहें, वह पता बता देगा कि इस सीजन में कौन-कौन लोग प्रोजेक्ट वर्क तैयार कर देंगे, बहुत मामूली पैसा लेकर।
गौर से देखें, तो लापरवाही हमारी है। हम अच्छी शिक्षा की उम्मीद में बच्चों का एडमिशन जहां करवाते हैं, उसके बारे में यह पता नहीं करते कि उस स्कूल का मिशन क्या है। इन दिनों मैंने महसूस किया कि जिस तरह से पत्रकारिता में तामझाम बढ़ता गया, उसका स्तर उतना ही गिरता गया। ठीक वैसे ही, स्कूलों ने तामझाम बढ़ाया और पठन-पाठन की जीवंतता कमजोर पड़ती गई। मशीनी और बनावटी शिक्षा बच्चों को तकनीकी रूप से जितना समृद्ध कर दे, उनके भीतर पल रहे इन्सान को उतना ही आहत करती है। महसूस करता हूं कि आज के स्कूलों से मिल रही शिक्षा बच्चों की सहजता पर हमला कर रही है। और वहां से हासिल असहजता ही उनकी सहजता बनती जा रही है।
5 comments:
Chhutiyyaa bachchon ke sath bitai-isase behtar kya ho sakta hai.
Baki aap sahi soch rahe hain, sahmat hun.
शिक्षा के लिए अच्छा संसथान खोजने की कवायद हमारे वक्त मैं अद्मिस्सिओं पाने पर केंद्रित रहती थी, वजह सायद ये थी की अच्छे स्कूलों मैं डाल कर माँ बाप का सुकून हो जाता tha ki चलो ab वहीं पढ़ लेगा humen चिंता करने की जरुरत नही, आब to सबसे बड़ी चिंता यही है की क्लास मैं बच्चे को किसी बात से नीचा न देखना पड़े, उसकी uniform से लेकर हर cheej chaak chuband होनी chaiye, और हाँ सबसे अच्छा लगा ये देखना की इन वैचारिक unjhanon के bavjood एक बाप betabeti के साथ उनके काम मैं ramne को enjoy करता है...इस umeed के साथ की अन्य और anunaya पापा की तरह atirikt shararat नही करेंगे, अच्छे post के लिए badhai
दरअसल एक तो स्कुल वाले भी कुछ सवाल पूछने पर ऐसे भिन्नाते है जैसे परेंट्स खामखा वक़्त बरबाद कर रहे है हर जगह शोशे बाजी है जी......
आप सही कह रहे हैं. तालीम की दुकानों में यही होगा. बच्चों की मौलिकता, रचनाशीलता, जिज्ञासा या कहें बचपन नष्ट करने वाले ये इदारे इस सब की परवाह नहीं करते. कृष्ण कुमार (इस वक्त एनसीआरटी के डायरेक्टर ) काफी लिखते रहे हैं इस बारे में.
अनुराग जी ,मै हैरान हू कि आपकी इतनी अच्छी ओर सच्ची बात कहने वाली पोस्ट पर केवल चार प्रतिक्रियाए । इसे हिन्दी जगत कि विसंगति ही कहूंगा । धन्यवाद एक अच्छी बात कहने के लिये ।
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