बल्लभगढ़ : थाना मुजेसर क्षेत्र में गौंछी गांव के एक सरकारी स्कूल में एक टीचर ने छात्रा का मुंह काला कर स्कूल में घूमाया। उसे यह सजा होम वर्क न करने पर दी गई। बाद में जिला शिक्षा अधिकारी ने उस महिला टीचर को सस्पेंड कर दिया।
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सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट, हर जगह ऐसे अशिक्षित शिक्षक भरे पड़े हैं। दरअसल, डिग्रियां घोषित कर देती हैं कि अमुक शख्स शिक्षक होने के लायक है और ऐसी डिग्रियों के आधार पर उसे नौकरी भी मिल जाती है। पर उस टीचर में मानवीय संवेदनाएं गहरी हैं या छिछली, वह बच्चों को समझ पाने के काबिल है या नहीं - इसकी पड़ताल करने की किसी पुख्ता व्यवस्था की हमारे यहां बेहद कमी है।
यह सच है कि आज के दौर में प्राइवेट स्कूल एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहां आप जितनी पूंजी लगाते हैं, उससे कई गुणा ज्यादा मुनाफा आपको हासिल होता है। तो मुनाफे के खून का यह जो स्वाद है, वह शाकाहारियों को भी ठेठ मांसाहारी बना गया। जाहिर है ऐसे में बच्चे, शिक्षा, संस्कार, माहौल सब के सब हासिये में चले गए। निगाहों में रच-बस गया मुनाफा, मुनाफा और मुनाफा।
सरकारी स्कूल मुनाफा नहीं देखता। ये स्कूल जिन हाथों से संचालित होते हैं, दरअसल वे हाथ बेजान हैं। वे न तो स्कूल का भविष्य लिख पा रहे हैं और न बच्चों का। बस वे जनता के पैसों को बेवजह बहाना जानते हैं।
नवभारत टाइम्स के मेट्रो एडिटर दिलबर गोठी ने अपने साप्ताहिक कॉलम आंगन टेढ़ा में सरकारी स्कूलों पर अतार्किक ढंग से खर्च की जा रही राशि की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि इन दिनों सरकारी स्कूलों में प्रोजेक्टर पहुंचाए जा रहे हैं। इससे पहले स्कूलों को कंप्यूटर उपलब्ध कराए गए थे, ताकि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी पब्लिक स्कूलों के बच्चों से टक्कर ले सकें। उन्हें सीसीटीवी कैमरे और रेकॉर्डर भी दिए गए और डीवीडी और सीडी प्लेयर भी।
अब जरा गौर करें। स्कूलों में प्रोजेक्टर तो पहुंचा दिए गए पर क्या यह देखने की कोशिश की गई कि स्कूलों में प्रोजेक्टर लगाने की जगह है भी या नहीं। 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में हॉल नहीं है। कमरों के अभाव में क्लास नहीं लग पाती। स्कूलों में बच्चों को साफ पानी मिले, इसके लिए एक्वा गार्ड तो भेज दिए गए, लेकिन यह नहीं देखा गया कि स्कूलों में पानी की सुविधा है या नहीं।
कुल मिलाकर यह कि पब्लिक स्कूलों में शिक्षा को छोड़कर बाकी सारी चीजों की व्यवस्था विलासिता के स्तर तक हैं। वहीं, इन स्कूलों से अंधी होड़ का जुनून सरकारी स्कूलों के सिर चढ़ा है। नतीजा है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जरूरी साधन मुहैया कराने की अनियोजित कोशिश फूहड़ बन जाती है।
यहां तक आते-आते बात थोड़ी भटक गई है। असल मामला यह है कि स्कूलों में चाहे जितने साधन हम जुटा लें, इन कारखानों से निकलने वाले बच्चे तभी कामयाब हो पाएंगे जब उन्हें किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई जाये। पर सवाल यह है कि यह जीने की कला सिखायेगा कौन? वह शिक्षक जो बच्चों के बालमन को ही नहीं समझ पाता?
आज जब इस प्रसंग के बाद मैं अपने स्कूली दिनों को याद कर रहा हूं तो मुझे अपने स्कूल का एक दिन भी याद नहीं आ रहा, जिसे मैं यादगार कह सकूं। एक भी ऐसी क्लास जेहन में नहीं बस सकी है, जो अपनी रोचकता के कारण सुनहरी बन गई हो। ऐसे ही समय में कहना पड़ता है कि ऐसे शिक्षक अपने महती कर्म में फेल हो गये। उन्होंने शिक्षक का पेशा तो अपनाया पर उसके दायित्वों से कोसों दूर रहे।
अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा अपने स्कूल के एक ऐसे साथी की, जो आज शिक्षक है। और जो अपने स्कूली दिनों और शिक्षकों की भूमिका को याद कर दुखी होता है। और इस दुख को याद कर कोशिश करता है कि उसके छात्रों को ऐसी कोई पीड़ा न हो। उसकी हर क्लास इतनी रोचक हो कि हर बच्चा अपने को इन्वॉल्व महसूस कर सके।
सरकारी स्कूल मुनाफा नहीं देखता। ये स्कूल जिन हाथों से संचालित होते हैं, दरअसल वे हाथ बेजान हैं। वे न तो स्कूल का भविष्य लिख पा रहे हैं और न बच्चों का। बस वे जनता के पैसों को बेवजह बहाना जानते हैं।
नवभारत टाइम्स के मेट्रो एडिटर दिलबर गोठी ने अपने साप्ताहिक कॉलम आंगन टेढ़ा में सरकारी स्कूलों पर अतार्किक ढंग से खर्च की जा रही राशि की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि इन दिनों सरकारी स्कूलों में प्रोजेक्टर पहुंचाए जा रहे हैं। इससे पहले स्कूलों को कंप्यूटर उपलब्ध कराए गए थे, ताकि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी पब्लिक स्कूलों के बच्चों से टक्कर ले सकें। उन्हें सीसीटीवी कैमरे और रेकॉर्डर भी दिए गए और डीवीडी और सीडी प्लेयर भी।
अब जरा गौर करें। स्कूलों में प्रोजेक्टर तो पहुंचा दिए गए पर क्या यह देखने की कोशिश की गई कि स्कूलों में प्रोजेक्टर लगाने की जगह है भी या नहीं। 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में हॉल नहीं है। कमरों के अभाव में क्लास नहीं लग पाती। स्कूलों में बच्चों को साफ पानी मिले, इसके लिए एक्वा गार्ड तो भेज दिए गए, लेकिन यह नहीं देखा गया कि स्कूलों में पानी की सुविधा है या नहीं।
कुल मिलाकर यह कि पब्लिक स्कूलों में शिक्षा को छोड़कर बाकी सारी चीजों की व्यवस्था विलासिता के स्तर तक हैं। वहीं, इन स्कूलों से अंधी होड़ का जुनून सरकारी स्कूलों के सिर चढ़ा है। नतीजा है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जरूरी साधन मुहैया कराने की अनियोजित कोशिश फूहड़ बन जाती है।
यहां तक आते-आते बात थोड़ी भटक गई है। असल मामला यह है कि स्कूलों में चाहे जितने साधन हम जुटा लें, इन कारखानों से निकलने वाले बच्चे तभी कामयाब हो पाएंगे जब उन्हें किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई जाये। पर सवाल यह है कि यह जीने की कला सिखायेगा कौन? वह शिक्षक जो बच्चों के बालमन को ही नहीं समझ पाता?
आज जब इस प्रसंग के बाद मैं अपने स्कूली दिनों को याद कर रहा हूं तो मुझे अपने स्कूल का एक दिन भी याद नहीं आ रहा, जिसे मैं यादगार कह सकूं। एक भी ऐसी क्लास जेहन में नहीं बस सकी है, जो अपनी रोचकता के कारण सुनहरी बन गई हो। ऐसे ही समय में कहना पड़ता है कि ऐसे शिक्षक अपने महती कर्म में फेल हो गये। उन्होंने शिक्षक का पेशा तो अपनाया पर उसके दायित्वों से कोसों दूर रहे।
अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा अपने स्कूल के एक ऐसे साथी की, जो आज शिक्षक है। और जो अपने स्कूली दिनों और शिक्षकों की भूमिका को याद कर दुखी होता है। और इस दुख को याद कर कोशिश करता है कि उसके छात्रों को ऐसी कोई पीड़ा न हो। उसकी हर क्लास इतनी रोचक हो कि हर बच्चा अपने को इन्वॉल्व महसूस कर सके।
2 comments:
मुझे लगता है जैसे पुजारी होना अब धर्म कम और कर्म (व्यवसाय) अधिक है, ठीक वैसे ही शिक्षक होना अब केवल नौकरी भर रह गया है। साथ ही काम की परेशानियों से परेशान हम ऑफिसों में बॉस से झगड़ नहीं सकते, नौकरी चली जाएगी। मगर स्कूलों में आसान शिकार होते हैंं बच्चे। मारो, पीटो, गरियाओ।
अनुराग भाई, शिक्षा से जुड़े इस आलेख पर कुछ कहना चाह रहा था पर वो बाद में. फिल्ह्ल्हा ये की कल अमर उजाला के सम्पादकीय पन्ने पर ब्लोग्नामा स्तम्भ में जिरह ब्लॉग से कवि पाश का टुकडा और आपका नाम देखकर एकदम बहुत अच्छा लगा.
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