मोह जब हो भंग, तो आदमी खुद को ठगा सा महसूस करता है। उसे लगता है कि वह अब तक खुद को छल रहा था। वैसे खुद को छलने वाले लोग भी होते हैं, आत्ममुग्ध, आत्मरति के शिकार। पर जब वाकई दूसरों के हाथों छले जाएं, तो उनकी पीड़ा मुखर हो जाती है। पीड़ा के ऐसे क्षणों में आखिर आदमी क्या करे, कहां जाए, किससे कहे...। जाहिर है कहीं जाने की जरूरत नहीं। आइए एक गीत सुनें...
Sunday, April 11, 2010
आइए, छलें खुद को
पेशकश :
अनुराग अन्वेषी
at
5:39 PM
4
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