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सी व्यक्ति को क्या सिर्फ इसलिए याद कर लेना चाहिए कि आज उसका जन्मदिन है; या इसकी कोई दूसरी वजह भी हो? सच बात तो यह है कि हर दिन कई-कई लोगों का जन्मदिन होता है, लेकिन हम सिर्फ उन्हें ही याद करते हैं जिन्होंने ऐसा कोई सकारात्मक काम किया होता है, जिससे देश-काल उनका ऋणी हो गया हो। इस अर्थ में यह हमारा नैतिक दायित्व होता है कि हम उन्हें याद करें। पर लोहिया के लिए यह तर्क अधूरा लगता है। उन्हें सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि यह हमारा नैतिक दायित्व है बल्कि इसलिए भी किया जाना चाहिए कि उन्होंने हमें जीने के कई सार्थक और नये मानदंड भी दिये। हमें डॉ. लोहिया को इसलिए भी याद रखना चाहिए कि आज भी समाज को लोहिया की जरूरत है। कोई भी समाज जब थक-हार जाता है, उसके तेवर चुकने लगते हैं, उसकी ऊर्जाएं शेष होने लगती हैं
लोहिया नास्तिक थे और गांधी पूर्णतः आस्तिक। गांधी की ईश्वरीय आस्तिकता ऐसी गहरी थी कि मृत्यु के क्षणों में भी उनके आराध्य का नाम उनकी जुबान पर था। किंतु लोहिया ऐसी किसी भी ईश्वरीय शक्ति के प्रति पूरी तरह नास्तिक थे। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वे आस्थावान नहीं थे। उनकी आस्था उन्हें गहरे जोड़ती थी - मनुष्यों से, इनसानियत से। उनकी यह आस्था इतनी गहरी थी कि सान्निपातिक क्षणों में भी वे जब-तब भूखे-लाचारों के बारे में बड़बड़ा उठते थे। उनकी आस्था थी - समाज और सुदृढ़ समाज के तेवरों में।
तो लोगों के जीवन में निरर्थकता पनप जाती है और यह वह क्षण होता है जब समाज के भटक जाने की गुंजाइश और आशंका बढ़ जाती है। ऐसी हर गुंजाइश और ऐसी हर आशंका को निराशा के तौर पर महसूसा जा सकता है। ऐसे समय में डॉ लोहिया का आप्त वाक्य 'निराशा के कर्तव्य' और इस शीर्षक के तहत उनका विचार हमें हमारी जिम्मेवारियों का अहसास करता है और निराशा के उन क्षणों में भी दृढ़ता के साथ चलते रहने की प्रेरणा देता है।इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ. लोहिया आजाद भारत के सबसे प्रखर और मौलिक राजनीतिक चिंतक होने के साथ ही एक संघर्षशील, कल्पनाशील व सतत सक्रिय राजनेता थे। जरा देखिए कि लोहिया ने कैसी राजनीतिक पार्टी की कल्पना की थी - 'मैं चाहता हूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाये कि वह पिटती रहे, पर डटी रहे। आखिर वह कौन-सी ताकत थी, जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही? समाजवादी आंदोलन के पिछले 25 वर्ष के इतिहास को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है, वह यह कि यह पिटना नहीं जानते। जब भी पिटते हैं, धीरज छोड़ देते हैं। मन टूट जाता है। और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के लिए तैयार हो जाते हैं।'
उनके इसी विचार को अगर हम और विस्तारित अर्थ 'संस्था' के रूप में देखें, तो इसकी प्रासंगिकता आज और जबर्दस्त नजर आयेगी। आज की सामिजिक संस्था मूल्यहीनता के दौर से गुजर रही है। इस इकाई के परिचित चेहरे आत्ममुग्ध और आत्मरति के शिकार हो गये हैं। आत्मश्लाधाओं में जीते ये लोग इतने व्यक्तिवादी होते गये हैं कि हमारी अपनी संस्कृति हाशिए पर आ गयी है।
समाजवादी व्यवस्था के हिमायती थे डॉ. लोहिया। उनकी कामना थी कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की जगह पर नयी समाजवादी व्यवस्ता की स्थापना हो। निजी पूंजी और विषमताओं के खिलाफ लोहिया की यह दृष्टि युगांतकारी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के संदर्भ में उनका निष्कर्ष था कि यह व्यवस्था औद्योगिक क्रांति से निकली सभ्यता की संतान है। उनकी दृष्टि यह भी कहती थी कि यह सभ्यता लगातार मरणासन्न है और इसकी जगह पर नयी सभ्यता की स्थापना हर हाल में होनी है। डॉ. लोहिया के भीतर ऐसी आशंका 1950-51 में पैदा हो गयी थी और उन्होंने उसी समय अपने मित्रों के आमंत्रण पर की गयी अमेरिका की यात्रा में कई जगहों पर अपनी इस आशंका को व्यक्त भी किया था। 13 जुलाई 1951 को न्यूयॉर्क के आईडल वाइल्ड हवाई अड्डे पर उन्होंने कहा, 'अमेरिकी जनता के प्रति मेरे मन में बहुत प्यार है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के बारे में, जिसकी चरम सीमा अमेरिका है, मेरे मन में कई संदेह हैं। मैं यहां यह देखने आया हूं कि प्रमुख क्या है - प्रेम या संदेह?' 35वें दिन अपनी अमेरिका यात्रा के समापन पर उन्होंने कहा, 'अमेरिकी जनता के प्रति मेरे अनुराग में वृद्धि हुई है, पर वर्तमान सभ्यता के प्रति मेरे मन में पल रही आशंका भी बड़ी हो गई है।' उसी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार कहा था - 'मैं फोर्ड और स्टालिन में कोई फर्क नहीं देखता। दोनों बड़े पैमाने के उत्पाद, बड़े पैमाने की प्रौद्योगिकी और केंद्रीकरण पर विश्वास करते हैं, जिसका मतलब है कि दोनों एक ही सभ्यता के पुजारी हैं।' अपनी आशंका को और पुख्ता ढंग से डॉ. लोहिया ने कहा, 'हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि यह सभ्यता मर चुकी है, किंतु लाश के रूप में अगले 50 वर्षों तक बनी रह सकती है और युद्धादि की क्रूर घटनाओं को जन्म दे सकती है।'
औद्योगिक क्रांति से उपजी हुई इस सभ्यता के बारे में जो संशय डॉ. लोहिया के भीतर पनपे थे, उन संशयों को वर्तमान में मूर्त रूप में देखा जा सकता है। बताने की जरूरत नहीं कि यूरोपीय और अमेरिकी समाज इन दिनों प्रयोजनहीनता का दंश झेल रहा है। वहां के दो-तीन दशकों के साहित्य प्रयोजनहीनता और उद्देश्यहीनता को अभिव्यक्त कर रहे हैं। वहां 'विचारों के अंत' और 'इतिहास के अंत' की बातें मुखर हो रही हैं। फ्रांस के लेखक जूनियन ग्रीन का कहना है कि 'पेरिस बुझ रहा है और इसकी सारी रोशनियां मद्धिम पड़ गयी हैं।' साहित्य अकादेमी की संगोष्ठी में भाग लेने के लिए भारत आयी वहां की युवा लेखिका लोरांस कोसे ने एक लेख में कहा था, 'आज फ्रांस के साहित्य में विचारों के अंत की अभिव्यक्ति, विचार मात्र के प्रति तिरस्कार, उद्देश्यों के प्रति संदेह, अप्रतिबद्धता और अपने भीतर सिमटने की प्रवृति के रूप में दिखाई पड़ रही है। अब न तो गुस्से से भरे लेखक हैं, न न्याय के लिए लड़ने वाले लेखक और न ही मातृ भाव बढ़ानेवाले लेखक हैं। यहां तक कि उनमें लिखने का उत्साह नहीं है।' यह हाल सिर्फ फ्रांस का नहीं है, पश्चिमी सभ्यता के लगभग सभी देशों का है। वहां के सारे दर्शन और तमाम विचार फीके पड़ते जा रहे हैं। यही वजह है कि बुद्धजीवियों की निगाह में इतिहास का अंत होता जा रहा है। इतिहास का ऐसा अंत तो दुखद है ही, लेकिन गौरतलब बात यह है कि इसकी वजहें वही हैं, जो डॉ. लोहिया ने काफी पहले बतायी थीं।
लोहिया नास्तिक थे और गांधी पूर्णतः आस्तिक। गांधी की ईश्वरीय आस्तिकता ऐसी गहरी थी कि मृत्यु के क्षणों में भी उनके आराध्य का नाम उनकी जुबान पर था। किंतु लोहिया ऐसी किसी भी ईश्वरीय शक्ति के प्रति पूरी तरह नास्तिक थे। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वे आस्थावान नहीं थे। उनकी आस्था उन्हें गहरे जोड़ती थी - मनुष्यों से, इनसानियत से। उनकी यह आस्था इतनी गहरी थी कि सान्निपातिक क्षणों में भी वे जब-तब भूखे-लाचारों के बारे में बड़बड़ा उठते थे। उनकी आस्था थी - समाज और सुदृढ़ समाज के तेवरों में। और उनकी यह आस्था नारी के समक्ष जाकर श्रद्धा का रूप ले लेती थी। प्रसाद की भाषा में कहा जाये तो 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो।' उन्होंने समाज में नारी के समान अधिकार के लिए, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए जो तेवर अपनाया, वह निस्संदेह परंपराभंजक ही था। उनका मानना था कि सीता-सावित्री नहीं, बल्कि द्रौपदी इस देश की प्रतिनिधि नारी है। उनकी कामना थी कि द्रौपदी की तेजस्विता इनमें पुनः स्थापित हो और रजिया की तरह वे पुनः सत्ता की केंद्र बनें।
डॉ. लोहिया एक बार अपने सहयोगी लाडली मोहन निगम के साथ लक्ष्मीबाई के किले की खूबसूरती देखने गये थे। वहां वे रानी लक्ष्मीबाई की घोड़े पर सवार प्रतिमा को अपलक देखते रहे। उसके नीचे खुदे पत्थर पर जब उनकी निगाह पड़ी तो उन्होंने देखा कि वहा लिखा था, 'नारी जाति की गौरव महारानी लक्ष्मीबाई।' इसे पढ़कर लोहिया आग-बबूला हो उठे। कहने लगे, 'इस देश के राजा इतने राक्षसी रहे हैं, यह मैं कभी कल्पना नहीं कर सकता। यहां नारियों को सम्मान कभी नहीं मिल सकता; यह वाक्य लिखने वाला शासक वही होगा, जो समता और बराबरी की बात करता है, लेकिन वह कभी समता और बराबरी दे नहीं सकता है। क्या झांसी की रानी नारियों की ही प्रतिनिधि थीं? क्योंकि जानता हूं कि देश अगर झांसी की रानी को देश का गौरव समझना चाहता, तो पुरुषोचित अहं को ठेस पहुंचती।' थोड़े समय के विराम के बाद उन्होंने फिर कहा, 'मैं इस बात को पूरे देश भर में कहूंगा। और अगर इस गलती को नहीं सुधारा गया, तो मैं इस पत्थर को तोड़ दूंगा'
समाज में महिलाओं की तात्कालीन स्थिति उन्हें सालती थी। वे चाहते थे कि समाज पर पुरुष का जो वर्चस्व कायम है वह टूटे। यहां महिला और पुरुष की समान भागीदारी हो।
दरअसल डॉ. लोहिया हर तरह की गैरबराबरी के खिलाफ थे और उनकी 'सप्त क्रांति' में भी पूरी दुनिया में जारी नस्ल, वर्ण, भाषा, क्षेत्र, लिंग, अर्थ और धर्म पर आधारित भेदभाव मिटाने पर जोर दिया गया है। क्योंकि इनके रहते मानव समाज कभी भी एक आदर्श समाज नहीं बन सकता। लोहिया ने यह सब सिर्फ कहा या लिखा ही नहीं, बल्कि इनके विरुद्ध संघर्ष खड़ा करने का निरंतर प्रयास भी करते रहे। चूंकि यह संघर्ष आज भी न सिर्फ अधूरा है, बल्कि आज की दुनिया शायद इन भेदभावों के चलते और भी तनावग्रस्त व समस्याग्रस्त नजर आ रही है, इसलिए लोहिया की प्रासंगिकता आज और बढ़ गयी है।