Tuesday, July 29, 2008
नवभारत टाइम्स का 'ब्लॉग बाइट'
पेशकश :
अनुराग अन्वेषी
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11:25 AM
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Tuesday, July 22, 2008
देश का चीरहरण
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
देश के प्रति सम्मान का यह भाव रखने वाले पाश ने कभी आहत होकर लिखा था :
इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं ...
सचमुच, आज जो कुछ भी संसद में होता दिखा, उसे हमारी महान संसद के रेकॉर्ड से भले बाहर रखा जाये, पर उन असंसदीय पलों को हमारी निगाहें नहीं भुला सकतीं। चैनलवाले कह रहे हैं यूपीए सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया। पर मैं पूरे विश्वास के साथ कह रहा हूं कि आज इस देश का चीरहरण हुआ है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तेवर अपने भाषण में जितने तीखे हुए हों, यह सच है कि देश की जनता के सामने सभी औंधे मुंह गिरे पड़े हैं।
पाश ने लिखा था 'मेरे यारो, यह हादसा हमारे ही समयों में होना था, कि मार्क्स का सिंह जैसा सिर सत्ता के गलियारों में मिनमिनाता फिरना था'।
आज सांसदों की करतूतों को देखते हुए जी चाहता है कि पाश की ये पंक्तियां चुरा लूं और पूछूं कि यह हादसा हमारे ही समयों में होना था। पर हम सभी तो वह हैं, जो परिवर्तन तो चाहते हैं मगर आहिस्ता-आहिस्ता। कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे। विरोध में हमारी मुट्ठी भी तनी रहे और हमारी कांख भी ढकी रहे। (धूमिल मुझे माफ करें कि इन पंक्तियों का इस्तेमाल मैंने ऐसे घटिया संदर्भ में किया)
देश के इन नामाकुलों के खिलाफ न खड़ा हो पाने के पक्ष में निजी उलझनों की दुहाई देकर मैं खुद को इस देश के चीरहरण में शरीक पा रहा हूं। लानत है ऐसी जिंदगी पर, ऐसी शख्सीयत पर। ओ पाश, मैं खुद को जिंदा महसूस कर सकूं इसके लिए मुझे अपने शब्द उधार दे दो :
Monday, July 21, 2008
हम सब नीरो हैं

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अनुराग अन्वेषी
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12:33 PM
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Thursday, July 17, 2008
ये अशिक्षित शिक्षक

सरकारी स्कूल मुनाफा नहीं देखता। ये स्कूल जिन हाथों से संचालित होते हैं, दरअसल वे हाथ बेजान हैं। वे न तो स्कूल का भविष्य लिख पा रहे हैं और न बच्चों का। बस वे जनता के पैसों को बेवजह बहाना जानते हैं।
नवभारत टाइम्स के मेट्रो एडिटर दिलबर गोठी ने अपने साप्ताहिक कॉलम आंगन टेढ़ा में सरकारी स्कूलों पर अतार्किक ढंग से खर्च की जा रही राशि की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि इन दिनों सरकारी स्कूलों में प्रोजेक्टर पहुंचाए जा रहे हैं। इससे पहले स्कूलों को कंप्यूटर उपलब्ध कराए गए थे, ताकि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी पब्लिक स्कूलों के बच्चों से टक्कर ले सकें। उन्हें सीसीटीवी कैमरे और रेकॉर्डर भी दिए गए और डीवीडी और सीडी प्लेयर भी।
अब जरा गौर करें। स्कूलों में प्रोजेक्टर तो पहुंचा दिए गए पर क्या यह देखने की कोशिश की गई कि स्कूलों में प्रोजेक्टर लगाने की जगह है भी या नहीं। 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में हॉल नहीं है। कमरों के अभाव में क्लास नहीं लग पाती। स्कूलों में बच्चों को साफ पानी मिले, इसके लिए एक्वा गार्ड तो भेज दिए गए, लेकिन यह नहीं देखा गया कि स्कूलों में पानी की सुविधा है या नहीं।
कुल मिलाकर यह कि पब्लिक स्कूलों में शिक्षा को छोड़कर बाकी सारी चीजों की व्यवस्था विलासिता के स्तर तक हैं। वहीं, इन स्कूलों से अंधी होड़ का जुनून सरकारी स्कूलों के सिर चढ़ा है। नतीजा है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जरूरी साधन मुहैया कराने की अनियोजित कोशिश फूहड़ बन जाती है।
यहां तक आते-आते बात थोड़ी भटक गई है। असल मामला यह है कि स्कूलों में चाहे जितने साधन हम जुटा लें, इन कारखानों से निकलने वाले बच्चे तभी कामयाब हो पाएंगे जब उन्हें किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई जाये। पर सवाल यह है कि यह जीने की कला सिखायेगा कौन? वह शिक्षक जो बच्चों के बालमन को ही नहीं समझ पाता?
आज जब इस प्रसंग के बाद मैं अपने स्कूली दिनों को याद कर रहा हूं तो मुझे अपने स्कूल का एक दिन भी याद नहीं आ रहा, जिसे मैं यादगार कह सकूं। एक भी ऐसी क्लास जेहन में नहीं बस सकी है, जो अपनी रोचकता के कारण सुनहरी बन गई हो। ऐसे ही समय में कहना पड़ता है कि ऐसे शिक्षक अपने महती कर्म में फेल हो गये। उन्होंने शिक्षक का पेशा तो अपनाया पर उसके दायित्वों से कोसों दूर रहे।
अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा अपने स्कूल के एक ऐसे साथी की, जो आज शिक्षक है। और जो अपने स्कूली दिनों और शिक्षकों की भूमिका को याद कर दुखी होता है। और इस दुख को याद कर कोशिश करता है कि उसके छात्रों को ऐसी कोई पीड़ा न हो। उसकी हर क्लास इतनी रोचक हो कि हर बच्चा अपने को इन्वॉल्व महसूस कर सके।
Wednesday, July 16, 2008
हमारी काहिली के दो महीने
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अनुराग अन्वेषी
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12:06 AM
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Monday, July 14, 2008
असहजता, जो बन गई है सहजता
सुनते थे खामोशी शोर से घबराती है
खामोशी ही शोर मचाए, ये तो हद है
सचमुच, ब्लॉग पर खुद की इतने दिनों की लंबी चुप्पी मेरे भीतर गहरा शोर मचाने लगी। आज वह शोर जोर मार रहा है।

बकौल मान्या, 'पापा गर्मी तो बीती नहीं, फिर छुट्टियां खत्म क्यों हो गईं?' मैं जब भी कंप्यूटर ऑन करता, अनुनय पहुंच जाता - पापा, मुझे गेम खेलना है। कुल मिलाकर इन दोनों बच्चों ने कंप्यूटर 'हैक' कर लिया था। मैं कुछ नहीं कर सकता था।
जो बचा समय होता था, वह बच्चों के होमवर्क में होम हुआ। अनुनय II में है और मान्या I में। पर स्कूल से मिले होमवर्क (प्रोजेक्ट वर्क) इन बच्चों के स्टैंडर्ड से ऊपर के थे। बाद में मैंने इनके स्कूल के और बच्चों से भी संपर्क किया, सबका हाल एक-सा था। यानी, होमवर्क बच्चों के लायक नहीं, मां-बाप के लायक। यही हाल दूसरे स्कूलों का भी दिखा। मैं समझ नहीं पाया कि प्रोजेक्ट के नाम पर ऐसे होमवर्क से बच्चे क्या सीखेंगे, जो वे करते ही नहीं।
प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - बर्ड हाउस बनाएं। घर की दैनिकचर्या भले गड़बड़ा गई, पर बिटिया रानी बर्ड हाउस देख कर फूली नहीं समाई। मां-बाप की मेहनत कामयाब हुई
मेरी छोटी-सी समझ में यह बात नहीं अंट पा रही कि ऐसे प्रोजेक्ट वर्क से बच्चे में कौन-सा टैलेंट पैदा करना चाहता है स्कूल। सबसे दुखद पहलू, स्कूल से संपर्क करें तो सलाह मिलेगी कि कहां टेंशन पाल रहे हैं, फलां दूकान वाले को कहें, वह पता बता देगा कि इस सीजन में कौन-कौन लोग प्रोजेक्ट वर्क तैयार कर देंगे, बहुत मामूली पैसा लेकर।
गौर से देखें, तो लापरवाही हमारी है। हम अच्छी शिक्षा की उम्मीद में बच्चों का एडमिशन जहां करवाते हैं, उसके बारे में यह पता नहीं करते कि उस स्कूल का मिशन क्या है। इन दिनों मैंने महसूस किया कि जिस तरह से पत्रकारिता में तामझाम बढ़ता गया, उसका स्तर उतना ही गिरता गया। ठीक वैसे ही, स्कूलों ने तामझाम बढ़ाया और पठन-पाठन की जीवंतता कमजोर पड़ती गई। मशीनी और बनावटी शिक्षा बच्चों को तकनीकी रूप से जितना समृद्ध कर दे, उनके भीतर पल रहे इन्सान को उतना ही आहत करती है। महसूस करता हूं कि आज के स्कूलों से मिल रही शिक्षा बच्चों की सहजता पर हमला कर रही है। और वहां से हासिल असहजता ही उनकी सहजता बनती जा रही है।
पेशकश :
अनुराग अन्वेषी
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7:14 PM
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