जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Tuesday, July 29, 2008

नवभारत टाइम्स का 'ब्लॉग बाइट'

साथियो,
नवभारत टाइम्स में हर रविवार को 'ब्लॉग बाइट' नाम से एक कॉलम छप रहा है। अब तक इस कॉलम के चार अंक आ चुके हैं। लिखने की जिम्मेवारी मुझे सौंपी गई है। कोशिश है कि अभी इसके कुछ अंकों में तकनीकी चर्चा जारी रखूं। शुरुआती चर्चा बिल्कुल बेसिक लेवल की होगी, धीरे-धीरे कई ऐसी नई बातें भी सामने आएंगी, जिसके जरिए आप अपने ब्लॉग को और खूबसूरत बना पाएंगे। छप चुके अंकों को पढ़ने के लिए यहां देखें ब्लॉग बाइट

Tuesday, July 22, 2008

देश का चीरहरण


भारत -
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं

देश के प्रति सम्मान का यह भाव रखने वाले पाश ने कभी आहत होकर लिखा था :

इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं ...

सचमुच, आज जो कुछ भी संसद में होता दिखा, उसे हमारी महान संसद के रेकॉर्ड से भले बाहर रखा जाये, पर उन असंसदीय पलों को हमारी निगाहें नहीं भुला सकतीं। चैनलवाले कह रहे हैं यूपीए सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया। पर मैं पूरे विश्वास के साथ कह रहा हूं कि आज इस देश का चीरहरण हुआ है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तेवर अपने भाषण में जितने तीखे हुए हों, यह सच है कि देश की जनता के सामने सभी औंधे मुंह गिरे पड़े हैं।

पाश ने लिखा था 'मेरे यारो, यह हादसा हमारे ही समयों में होना था, कि मार्क्स का सिंह जैसा सिर सत्ता के गलियारों में मिनमिनाता फिरना था'।

आज सांसदों की करतूतों को देखते हुए जी चाहता है कि पाश की ये पंक्तियां चुरा लूं और पूछूं कि यह हादसा हमारे ही समयों में होना था। पर हम सभी तो वह हैं, जो परिवर्तन तो चाहते हैं मगर आहिस्ता-आहिस्ता। कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे। विरोध में हमारी मुट्ठी भी तनी रहे और हमारी कांख भी ढकी रहे। (धूमिल मुझे माफ करें कि इन पंक्तियों का इस्तेमाल मैंने ऐसे घटिया संदर्भ में किया)

देश के इन नामाकुलों के खिलाफ न खड़ा हो पाने के पक्ष में निजी उलझनों की दुहाई देकर मैं खुद को इस देश के चीरहरण में शरीक पा रहा हूं। लानत है ऐसी जिंदगी पर, ऐसी शख्सीयत पर। ओ पाश, मैं खुद को जिंदा महसूस कर सकूं इसके लिए मुझे अपने शब्द उधार दे दो :
इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं ...

Monday, July 21, 2008

हम सब नीरो हैं

जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था।

इस वक्त रोम का वह नीरो हम सबों की आत्मा में घर कर चुका है। नतीजा है कि मैं भी नीरो, तुम भी नीरो, हम सब नीरो। हमारे पास हमारी डफली है अपना राग है। हम गाएंगे। हमें कौन रोक सकता है। यह लोकतांत्रिक देश है। यहां किसी को कोई भी नहीं रोक सकता। हम बिकेंगे, तुम रोकने वाले कौन? हम खरीदार हैं, खरीदेंगे। तुम रोकने वाले कौन?

पर यह न भूलें कि यह वही देश है जहां बुद्ध ने पूछा था 'मैं तो रुक गया, तुम कब रुकोगे' ? उनके यह पूछने मात्र से अंगुलिमाल रुक गया था।

साथियो, सच बताना कि इस देश में कुर्सी बचाने और गिराने का जो घिनौना खेल हो रहा है, वह तुम्हें सालता है या नहीं? अगर सालता है तो फिर हमसब बेज़बान क्यों हैं? साहित्यकार हों या विचारक, सब खामोश क्यों हैं? अखबार और चैनलों को छोड़ दें तो इस मुद्दे पर ऐसी चुप्पी क्यों है? 'इससे मेरा क्या लेना-देना' की भूमिका में हम खड़े क्यों हैं? गौर करें, इस गौरवशाली देश के सामने 'गौरव' का क्षण कोई पहली बार नहीं आया। इससे पहले भी यह होता रहा है। पर इस बार यह नंगे तरीके से सामने आया। मीडिया इन नेताओं से उनके बिकने और खरीदने पर खुलेआम सवाल पूछ रहा है और वे गोल-मटोल जवाब दे, खुद को पाक-साफ बता रहे हैं।

हर सरकार आग्रह करती है जनता से कि अपनी आय की सही जानकारी दें। पर क्या यह सरकार बताएगी कि सांसदों को खरीदने के लिए उनके जो दलाल करोड़ों रुपये लेकर भटक रहे हैं, ये रुपये के आय का स्रोत क्या है?

या वह विपक्ष, जो सरकार की कुर्सी गिराने में जी-जान से जुटा है, यह बताने की हिम्मत जुटा पाएगा कि सहस्त्र (क) मल जुटाने के लिए उसके पास इतनी राशि कहां से आ रही है?

यही वह वक्त है, जब हम अपने भीतर के नीरो को मार भगायें। हम स्वांतः सुखाय के लेखन से बाहर आयें, बहुजन हिताय की बात भी सोचें। हमारे भीतर के शब्द हमारे हाहाकार को बतायें, न कि किसी नकली दुनिया को रचते हुए हमें आत्ममुग्ध बतायें।

सचमुच, अपनी अब तक की चुप्पी से और इस घिनौनी राजनीति का अप्रत्यक्ष हिस्सा होकर मैं आत्मग्लानि से भर गया हूं।

Thursday, July 17, 2008

ये अशिक्षित शिक्षक

बल्लभगढ़ : थाना मुजेसर क्षेत्र में गौंछी गांव के एक सरकारी स्कूल में एक टीचर ने छात्रा का मुंह काला कर स्कूल में घूमाया। उसे यह सजा होम वर्क न करने पर दी गई। बाद में जिला शिक्षा अधिकारी ने उस महिला टीचर को सस्पेंड कर दिया।
पूरी खबर के लिए पढ़ें नवभारत टाइम्स

सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट, हर जगह ऐसे अशिक्षित शिक्षक भरे पड़े हैं। दरअसल, डिग्रियां घोषित कर देती हैं कि अमुक शख्स शिक्षक होने के लायक है और ऐसी डिग्रियों के आधार पर उसे नौकरी भी मिल जाती है। पर उस टीचर में मानवीय संवेदनाएं गहरी हैं या छिछली, वह बच्चों को समझ पाने के काबिल है या नहीं - इसकी पड़ताल करने की किसी पुख्ता व्यवस्था की हमारे यहां बेहद कमी है।

यह सच है कि आज के दौर में प्राइवेट स्कूल एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहां आप जितनी पूंजी लगाते हैं, उससे कई गुणा ज्यादा मुनाफा आपको हासिल होता है। तो मुनाफे के खून का यह जो स्वाद है, वह शाकाहारियों को भी ठेठ मांसाहारी बना गया। जाहिर है ऐसे में बच्चे, शिक्षा, संस्कार, माहौल सब के सब हासिये में चले गए। निगाहों में रच-बस गया मुनाफा, मुनाफा और मुनाफा।

सरकारी स्कूल मुनाफा नहीं देखता। ये स्कूल जिन हाथों से संचालित होते हैं, दरअसल वे हाथ बेजान हैं। वे न तो स्कूल का भविष्य लिख पा रहे हैं और न बच्चों का। बस वे जनता के पैसों को बेवजह बहाना जानते हैं।

नवभारत टाइम्स के मेट्रो एडिटर दिलबर गोठी ने अपने साप्ताहिक कॉलम आंगन टेढ़ा में सरकारी स्कूलों पर अतार्किक ढंग से खर्च की जा रही राशि की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि इन दिनों सरकारी स्कूलों में प्रोजेक्टर पहुंचाए जा रहे हैं। इससे पहले स्कूलों को कंप्यूटर उपलब्ध कराए गए थे, ताकि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी पब्लिक स्कूलों के बच्चों से टक्कर ले सकें। उन्हें सीसीटीवी कैमरे और रेकॉर्डर भी दिए गए और डीवीडी और सीडी प्लेयर भी।

अब जरा गौर करें। स्कूलों में प्रोजेक्टर तो पहुंचा दिए गए पर क्या यह देखने की कोशिश की गई कि स्कूलों में प्रोजेक्टर लगाने की जगह है भी या नहीं। 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में हॉल नहीं है। कमरों के अभाव में क्लास नहीं लग पाती। स्कूलों में बच्चों को साफ पानी मिले, इसके लिए एक्वा गार्ड तो भेज दिए गए, लेकिन यह नहीं देखा गया कि स्कूलों में पानी की सुविधा है या नहीं।

कुल मिलाकर यह कि पब्लिक स्कूलों में शिक्षा को छोड़कर बाकी सारी चीजों की व्यवस्था विलासिता के स्तर तक हैं। वहीं, इन स्कूलों से अंधी होड़ का जुनून सरकारी स्कूलों के सिर चढ़ा है। नतीजा है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जरूरी साधन मुहैया कराने की अनियोजित कोशिश फूहड़ बन जाती है।

यहां तक आते-आते बात थोड़ी भटक गई है। असल मामला यह है कि स्कूलों में चाहे जितने साधन हम जुटा लें, इन कारखानों से निकलने वाले बच्चे तभी कामयाब हो पाएंगे जब उन्हें किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई जाये। पर सवाल यह है कि यह जीने की कला सिखायेगा कौन? वह शिक्षक जो बच्चों के बालमन को ही नहीं समझ पाता?

आज जब इस प्रसंग के बाद मैं अपने स्कूली दिनों को याद कर रहा हूं तो मुझे अपने स्कूल का एक दिन भी याद नहीं आ रहा, जिसे मैं यादगार कह सकूं। एक भी ऐसी क्लास जेहन में नहीं बस सकी है, जो अपनी रोचकता के कारण सुनहरी बन गई हो। ऐसे ही समय में कहना पड़ता है कि ऐसे शिक्षक अपने महती कर्म में फेल हो गये। उन्होंने शिक्षक का पेशा तो अपनाया पर उसके दायित्वों से कोसों दूर रहे।

अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा अपने स्कूल के एक ऐसे साथी की, जो आज शिक्षक है। और जो अपने स्कूली दिनों और शिक्षकों की भूमिका को याद कर दुखी होता है। और इस दुख को याद कर कोशिश करता है कि उसके छात्रों को ऐसी कोई पीड़ा न हो। उसकी हर क्लास इतनी रोचक हो कि हर बच्चा अपने को इन्वॉल्व महसूस कर सके।

Wednesday, July 16, 2008

हमारी काहिली के दो महीने


आरुषि और हेमराज की हत्या आज से ठीक दो महीने पहले हुई थी। यानी 15-16 मई की रात। हेमराज की लाश तो एक दिन बाद यानी 17 मई को बरामद हुई। तब तक पुलिस इसी थ्योरी पर काम करती रही कि नौकर हेमराज ने आरुषि का कत्ल किया है। खैर, लाश मिलने के बाद कोताही बरतने के इल्जाम में नोएडा सेक्टर 20 के एसएचओ का तबादला हुआ। इसके बाद पुलिस ने नये सिरे से तफ्तीश शुरू की और शक के घेरे में आया डॉक्टर तलवार का पुराना नौकर विष्णु। साथ ही डॉ. तलवार के कंपाउंडर कृष्णा से भी पूछताछ हुई। मीडिया में खबर आई 'पुलिस मान रही है कि दोनों की किसी डॉक्टर या कसाई ने की है। जाहिर है पुलिस के शक के घेरे में डॉ. तलवार थे। इस बीच सूत्रों के हवाले से खबर चलती रही कि डॉ. राजेश तलवार और उनकी पारिवारिक मित्र डॉ. अनीता दुर्रानी के बीच नाजायज संबंध हैं। 24 जून को डॉ. राजेश तलवार गिरफ्तार कर लिये गये। पुलिस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि मामला ऑनर कीलिंग का है। डॉ. तलवार और डॉ. अनीता दुर्रानी के बीच नाजायज संबंध थे, जिसे आरुषि जान गई थी। उसका यही जानना उसकी हत्या की वजह बना।

अवैध संबंध और पुलिस के दावे को झूठा कहते हुए दुर्रानी दंपती मीडिया के सामने आए। इससे पहले वह चुप रहे, पता नहीं क्यों। बाद में डॉ. राजेश तलवार के परिजनों ने सीबीआई जांच की मांग की। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी।

हत्या के पंद्रह दिन बाद यानी १ जून को मामला सीबीआई के हाथ में आया। मायावती के निर्देश पर एसएसपी समेत मेरठ जोन के आईजी और डीआईजी का ट्रांसफर हुआ। 13 जून को सीबीआई ने डॉ. तलवार के कंपाउंडर कृष्णा को गिरफ्तार कर लिया। उसी दिन दुर्रानी परिवार के नौकर राजकुमार से की गई पूछताछ। सीबीआई ने 27 जून को राजकुमार को गिरफ्तार कर लिया। 11 जुलाई को डॉ. तलवार को जमानत मिल गई।

इस पूरे प्रकरण को देने का मकसद सिर्फ इतना कि आरुषि और हेमराज के हत्यारे (हत्यारा) हमारी जांच एंजेसियों से ज्यादा चालाक और शातिर हैं (है)। दो महीने गुजर गये और हम अब तक सबूत तलाश रहे हैं। सबूत नष्ट कैसे हुए? नोएडा पुलिस की लापरवाही से? अगर हां, तो नोएडा पुलिस की उस पूरी टीम की सजा क्या होनी चाहिए, जिसकी वजह से हत्या का सबूत नहीं जुट पाया और हत्यारे के चेहरे पर अब तक मुखौटा है। सीबीआई जैसी शार्प जांच एजेंसी के पास अब तक कोई ठोस सबूत नहीं, जिसके बल पर यह केस कोर्ट में टिका रह सके।

क्या इस केस की नियति भी निठारी कांड की तरह लंबा खिंचना है? क्या यह निठल्लापन देखना हमसबों की नियति है? सच है कि यह केस पहेली की तरह लगने लगा है। जांच एजेंसियां जो कहती है, उस पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा नहीं। और उसके कहने में जितने विरोधाभास हैं, उससे हम आंखें कैसे चुरा लें। पर आश्चर्य यह कि सीबीआई को ऐसी चाल दिखाने में संकोच क्यों नहीं। क्या वह किसी को बचाने में जुटी है या वाकई इतनी लाचार है कि उसका हर स्टेटमेंट अब संदिग्ध लगने लगा है।

Monday, July 14, 2008

असहजता, जो बन गई है सहजता

सुनते थे खामोशी शोर से घबराती है
खामोशी ही शोर मचाए, ये तो हद है

सचमुच, ब्लॉग पर खुद की इतने दिनों की लंबी चुप्पी मेरे भीतर गहरा शोर मचाने लगी। आज वह शोर जोर मार रहा है।


दरअसल, गर्मी की छुट्टियां मैंने अनुनय और अन्या (अब मान्या) के संग बिताई। इन दोनों बच्चों ने भी मेरा साथ पा खूब एञ्जॉय किया।
प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - अपने फेवरिट कार्टून करेक्टर का स्केच थर्मोकोल पर बना उसके कटआउट पर फोन डायरी चिपकाएं। बाप के पसीने छूटे और मां की खीज बढ़ी और तैयार हो गयी बिटिया की फोन डायरी।

बकौल मान्या, 'पापा गर्मी तो बीती नहीं, फिर छुट्टियां खत्म क्यों हो गईं?' मैं जब भी कंप्यूटर ऑन करता, अनुनय पहुंच जाता - पापा, मुझे गेम खेलना है। कुल मिलाकर इन दोनों बच्चों ने कंप्यूटर 'हैक' कर लिया था। मैं कुछ नहीं कर सकता था।

जो बचा समय होता था, वह बच्चों के होमवर्क में होम हुआ। अनुनय II में है और मान्या I में। पर स्कूल से मिले होमवर्क (प्रोजेक्ट वर्क) इन बच्चों के स्टैंडर्ड से ऊपर के थे। बाद में मैंने इनके स्कूल के और बच्चों से भी संपर्क किया, सबका हाल एक-सा था। यानी, होमवर्क बच्चों के लायक नहीं, मां-बाप के लायक। यही हाल दूसरे स्कूलों का भी दिखा। मैं समझ नहीं पाया कि प्रोजेक्ट के नाम पर ऐसे होमवर्क से बच्चे क्या सीखेंगे, जो वे करते ही नहीं।

प्रोजेक्ट वर्क (क्लास I ) - बर्ड हाउस बनाएं। घर की दैनिकचर्या भले गड़बड़ा गई, पर बिटिया रानी बर्ड हाउस देख कर फूली नहीं समाई। मां-बाप की मेहनत कामयाब हुई

मेरी छोटी-सी समझ में यह बात नहीं अंट पा रही कि ऐसे प्रोजेक्ट वर्क से बच्चे में कौन-सा टैलेंट पैदा करना चाहता है स्कूल। सबसे दुखद पहलू, स्कूल से संपर्क करें तो सलाह मिलेगी कि कहां टेंशन पाल रहे हैं, फलां दूकान वाले को कहें, वह पता बता देगा कि इस सीजन में कौन-कौन लोग प्रोजेक्ट वर्क तैयार कर देंगे, बहुत मामूली पैसा लेकर।

गौर से देखें, तो लापरवाही हमारी है। हम अच्छी शिक्षा की उम्मीद में बच्चों का एडमिशन जहां करवाते हैं, उसके बारे में यह पता नहीं करते कि उस स्कूल का मिशन क्या है। इन दिनों मैंने महसूस किया कि जिस तरह से पत्रकारिता में तामझाम बढ़ता गया, उसका स्तर उतना ही गिरता गया। ठीक वैसे ही, स्कूलों ने तामझाम बढ़ाया और पठन-पाठन की जीवंतता कमजोर पड़ती गई। मशीनी और बनावटी शिक्षा बच्चों को तकनीकी रूप से जितना समृद्ध कर दे, उनके भीतर पल रहे इन्सान को उतना ही आहत करती है। महसूस करता हूं कि आज के स्कूलों से मिल रही शिक्षा बच्चों की सहजता पर हमला कर रही है। और वहां से हासिल असहजता ही उनकी सहजता बनती जा रही है।

यह सच सभी जानते हैं कि कलकल कर बिंदास बहता झरना बेहद खूबसूरत और आकर्षक होता है। पर उससे बिजली तभी पैदा की जा सकती है, जब उसे बांधा जाए। यानी, बिजली पैदा करने के लिए झरने की सहजता का नष्ट होना अनिवार्य है।

इसी बिजली पैदा करने की ललक में हम अपने बच्चों की सहजता नष्ट कर रहे हैं। उनके बचपन को छीनने की साजिश में हम भी शरीक हैं। क्या कोई हल है कि हम इस साजिश को रोक सकें?