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ल्ली में हुए गैंगरेप की सुनवाई कोर्ट में इन कैमरा
चल रही है। मेरे पड़ोसी ने मुझसे पूछा – इस मामले में न्याय पाने के लिए जितना तीखा
विरोध हुआ, उसे उतने ही जबर्दस्त तरीके से मीडिया में जगह भी मिली। पर जब अब मामला
कोर्ट में है तो उसकी खबर उतने विस्तार से नहीं है, आखिर बात क्या है? यह इन कैमरा होता क्या है? क्या पूरी सुनवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग हो
रही है, जिसे बाद में प्रसारित किया जाएगा?
मैंने उनसे बताया कि अरे नहीं, इन कैमरा सुनवाई में
केस से सीधे जुड़े लोगों को ही कोर्ट में मौजूद रहने की इजाजत होती है। और रही बात
मीडिया में खबर की तो निचली अदालत के जज का निर्देश है कि इस केस में कोर्ट में चली
कार्यवाही का प्रकाशन या प्रसारण कोर्ट की इजाजत के बिना न किया जाए।
यह सुनते ही मेरे पड़ोसी के माथे पर बल पड़ गए। वह
थोड़े परेशान से दिखने लगे। मैंने इसकी वजह पूछी तो कहने लगे- देखना जी, ये पांचों
आरोपी केस से बरी कर दिये जाएंगे और छठा तो खैर अपनी किस्मत से नाबालिग निकला, उसका
तो बचना तय है।
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि ऐसा भी नहीं है।
इस केस पर सबकी निगाह है और न्यायपालिका पर सबको भरोसा है। उन्होंने तपाक से कहा कि
मैं कब कह रहा हूं कि मुझे भरोसा नहीं। पर जेसिका लाल का केस याद है न, सभी आरोपी बाइज्जत
बरी कर दिए गए थे। तो मैंने भी उन्हें ध्यान दिलाया कि निचली अदालत से बरी कर दिए गए
थे, फिर उससे ऊपर के कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए आखिरकार मुजरिमों को सजा दिलवाई।
वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर उन्होंने कहा कि यह जो
इन कैमरा का फंडा है, वह मुझे संदेह करने पर मजबूर कर रहा है। पता नहीं, अंदर क्या
गुपचुप-गुपचुप खिचड़ी पक रही है। कई बार बड़ी अदालत के मुंह से सुन चुका हूं कि निचली
अदालत के जजों को ट्रेनिंग की जरूरत है या कभी ये कि निचली अदालत को अपनी सीमा का ध्यान
रखना चाहिए, फिर फुसफुसा कर कहे कि एक-आध बार तो इन जजों के भ्रष्टाचार की भी खबरें
पढ़ता रहा हूं...। मैंने अपने पड़ोसी की बात बीच में ही काटी और उन्हें बताया कि यह
सब तो ठीक है आपने सुना होगा। पर इस केस में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। सब तत्पर
हैं, सजग हैं और अपराधियों को सजा होगी ही होगी।
इस बार उन्होंने धीर-गंभीर मुद्रा बनाई और अपनी उम्र
व अनुभव का हवाला देते हुए कहा – अभी बच्चे हो। दुनिया तुमसे ज्यादा मैंने देखी है।
मैं जानता हूं कि अदालत देख नहीं सकती। वह सिर्फ गवाहों और सबूतों के आधार पर ही फैसला
देती है। देखा नहीं कभी क्या कि न्याय की जो देवी है उसकी आंखों पर पट्टी बंधी होती
है।
उनके इन बेतुके तर्कों से मुझे चिढ़ होने लगी थी।
झुंझला कर मैंने कहा – खूब देखी है और आपकी आंखों पर जो पट्टी बंधी है, उसे भी देख
रहा हूं। अरे भई, अदालत हम इंसानों की तरह भावुक होकर फैसला देने लग जाए तो फिर कैसे
न्याय होगा? तब तो चोर अपने घर चलाने का हवाला देकर अपनी
चोरी को जस्टिफाई करेगा और अदालत भावुक होकर उसे बाइज्जत बरी करने लग जाएगी।
इस बार उन्होंने मुझे समझाने वाले अंदाज में चतुर
वकील की तरह कहा, देखो मुझे पूरा भरोसा है कानून पर। पर डर है कि बचाव पक्ष के किसी
बौड़म तर्क से सहमत होना अदालत की मजबूरी न बन जाए जैसा कि उस नाबालिग के मामले में
हमारा कानून हमें बेबस दिख रहा है।
मैंने पूछा – अगर तर्क बौड़म हो, तो भला अदालत क्यों
सहमत होगी उससे।
मेरे पड़ोसी ने इस बार सोदाहरण समझाया मुझे। मान लो,
बचाव पक्ष ने कहा - मेरे मुवक्किलों ने कोई गंभीर गुनाह नहीं किया है जज साहब। इन्होंने
तो देश और देशवासियों को जगाने का काम किया है। अगर इन्होंने इस वारदात को अंजाम न
दिया होता तो आज ऐसे अपराध के मामले में नाबालिग की उम्रसीमा के निर्धारण की न तो समीक्षा
होती और न ही महिलाओं के साथ हो रहे अपराध पर अंकुश लगाने के लिए देश के कानून को और
सख्त व गंभीर बनाने की कवायद होती। इसीलिए मेरी गुजारिश है कि इन सभी के इस कृत्य को
स्त्रीहित में किए गए अपराध के रूप में देखा जाए।
मैं सोच रहा ही रहा था कि पड़ोसी के इस तर्क का क्या
जवाब दूं कि उन्होंने बात आगे बढ़ाई – देखो बच्चू, यह बात तार्किक तो है और अगर इसी
आधार पर इन आरोपियों को छोटी-मोटी सजा हुई तो? यह
सवाल उन्होंने मेरे सामने उछाल कर विजयी मुद्रा में अपनी कॉलर उठाई और चलते बने। उनके
चेहरे से तनाव काफूर हो चुका था पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा और मन तनाव से बुरी तरह
ऐंठ रहा था।
2 comments:
आपके कोर्ट के पक्ष में किए गए जस्टिपिकेशन को उन्होंने सही तर्क से झुठला दिया। न्याय जस्टिफाइड हो और गलत निर्णय न हो, इस पर विचार तब होना चाहिए जब केस के बारे में पता न हो। लेकिन यहां तो लड़की नु स्वयं बताया है, उसके साथी ने अपराधियों की पहचान की है, तब ये हालात हैं। इस देश की आदत है गुण्डों को हीरो बना देने की। दो फांसियां हुईं हैं, पर वे महाउल्टे काम करके हीरो बन गए। क्या ये सब कुछ साक्ष्य मौजूद होने पर तुरन्त नहीं किया जा सकता है। लेकिन नहीं वोट बैंक की चिंता में राज-काज समाज हित के निर्णय एकदम नहीं लेता। लीपापोती हमेशा होती है।
आपके ब्लॉग पर पहली बार आया और सार्थक पोस्ट पढ़ने को मिली आभार ........
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